Monday, 10 February 2014

सूक्त - 34

[ऋषि-  अक्ष मौजवान् । देवता- अक्ष समूह । छन्द- त्रिष्टुप् - जगती ।]

9137
प्रावेपा  मा  बृहतो  मादयन्ति  प्रवातेजा  इरिणे  वर्वृताना: ।
सोमस्येव मौजवतस्य भक्षो विभीदको जागृविर्मह्यमच्छान्॥1॥

जुआ  खेलना  निन्दनीय  है मनुज कृषक बन-कर यह ठान ।
ज्वार - बाजरा - जौ  और गेहूँ खेती करके हम पायें धान ॥1॥ 

9138
न मा मिमेथ न जिहीळ एषा शिवा सखिभ्य उत मह्यमासीत्।
अक्षस्याहमेकपरस्य    हेतोरनुव्रतामप    जायामरोधम् ॥2॥

मेरी   पत्नी   संस्कारी   है   वह   ही   रखती   है  मेरा  ध्यान ।
सद् -व्यवहार सदा करती है बनूँगा मैं भी सफल किसान॥2॥

9139
द्वेष्टि  श्वश्रूरप  जाया  रुणध्दि  न नाथितो विन्दते मर्डितारम् ।
अश्वस्येव जरतो वस्न्यस्य नाहं विन्दामि कितवस्य भोगम्॥3॥

श्रति  कहती  है  उत्तम  खेती  आओ  हम  सब अन्न उगायें ।
साथ-साथ पशु-पालन भी हो जैविक खेती हम अपनायें ॥3॥

9140
अन्ये  जायां  परि  मृशन्त्यस्य यस्यागृधद्वेदने वाज्य1क्षः ।
पिता माता भ्रातर एनमाहुर्न जानीमो नयता बध्दमेतम्॥4॥

ऑगन - बाडी  में  सब्जी  हो  खेतों  में  हो  गेहूँ  और  धान ।
जिस घर में गो-माता रँभाती वह घर तो है स्वर्ग-समान ॥4॥

9141
यदादीध्ये  न  दविषाण्येभिः परायद्भयोSव  हीये  सखिभ्यः ।
न्युप्ताश्च बभ्रवो ववाचमक्रतँ एमीदेषां निष्कृतं जारिणीव ॥5॥

कन्हार  भूमि  में  दलहन  बोयें  दलहन  है  किसान  की ढाल ।
चना-बूट खाने को मिलता प्रतिदिन खाओ अरहर की दाल॥5॥

9142
सभामेति  कितवः  पृच्छमानो  जेष्यामीति  तन्वा3 शूशुजानः ।
अक्षासो अस्य वि तिरन्ति कामं प्रतिददीव्ने दधत आ कृतानि॥6॥

पपीता   केला   दरमी  मुनगा  घर  में  हो  नीबू  सीता - फल ।
बिही  बहुत  ही आवश्यक  है  फल  से  ही  तो  बढता बल ॥6॥

9143
अक्षास  इदङ्कुशिनो नितोदिनो निकृत्वानस्तपनास्तापयिष्णवः।
कुमारदेष्णा जयतः पुनर्हणो मध्वा सम्पृक्ता: कितवस्य बर्हणा॥॥7॥

कृषक   अन्न - दाता   है   मेरा   वह   मेरा   आगत   आदर्श ।
कर्म - योग  का  पाठ - पढाता  वह  ही  तो  पावन  परामर्श ॥7॥

9144
त्रिपञ्चाशः  क्रीळति   व्रात   एषां   देवइव   सविता   सत्यधर्मा ।
उग्रस्य चिन्मन्यवे ना नमन्ते राजा चिदेभ्यो नम इत्कृणोति॥8॥

कृषक  भोर  में  उठ  जाता  है  वह  ही  रखता  पशुओं  का ध्यान ।
फिर   वह   खेत   चला   जाता  है  कृषक  हमारा  है  भगवान ॥8॥

9145
नीचा   वर्तन्त   उपरि  स्फुरन्त्यहस्तासो   हस्तवन्तं   सहन्ते ।
दिव्या अङ्गारा इरिणे न्युप्ता: शीता:सन्तो हृदयं निर्दहन्ति ॥9॥

कबिरा  ने  अपनी  चादर  बुन  ली  बापू  ने  वस्त्र बनाया अपना।
यदि हम अपना वस्त्र बना लें तो सच होगा फिर सारा सपना॥9॥

9146
जाया  तप्यते  कितवस्य हीना माता पुत्रस्य चरतः क्व स्वित् ।
ऋणावा बिभ्यध्दनमिच्छमानोSन्येषामस्तमुप नक्तमेति॥10॥

परम्परा  से  वस्त्र  बनायें  उसको  दुनियॉ  भर  में  भिजवायें ।
जन - प्रिय  होगी  कला  हमारी  अर्थ- भार पर काबू पायें ॥10॥

9147
स्त्रियं दृष्ट्वाय  कितवं ततापान्येषां जायां  सुकृतं  न  योनिम् ।
पूर्वाह्णे अश्वान्युयुजे  हि  बभ्रून्त्सो अग्नेरन्ते वृषलः पपाद॥11॥

हम कुछ निर्यात क्यों नहीं करते कुण्ठित होती है कला हमारी।
आयात करें हम बन्द तभी तो निखरेगी श्रम-शक्ति हमारी॥11॥

9148
यो  वः सेनानीर्महतो  गणस्य  राजा  व्रातस्य  प्रथमो  बभूव ।
तस्मै कृणोमि न धना रुणध्मि दशाहं प्राचीस्तदृतं वदामि॥12॥

कितने  सुन्दर  जूते  कपडे  अभी  यहॉ  पर  बन  सकते  हैं ।
पहले  सोच  बदलनी  होगी  बडे-बुज़ुर्ग  यही  कहते  हैं ॥12॥

9149
अक्षैर्मा  दीव्यः कृषिमित्कृषस्व  वित्ते  रमस्व  बहु  मन्यमानः।
तत्र  गावः कितव  तत्र  जाया  तन्मे  वि चष्टे सवितायमर्यः॥13॥

शीतल  जल  बहता  है  कल - कल  समरसता  यह  ही  बोता है ।
जल ही पुण्य-कर्म सिखलाता सन्तप्त मनुज शीतल होता है॥13॥

9150
मित्रं  कृणुध्वं  खलु  मृळता  नो  मा  नो  घोरेण  चरताभि धृष्णु ।
नि  वो  नु  मन्युर्विशतामरातिमन्यो बभ्रूणां प्रसितौ न्वस्तु॥14॥

कर्म - मार्ग  की  बडी  है  महिमा  छोडो  सब  अपना  अभिमान ।
जल सम सरल-तरल बन जायें छेडो अब तुम यह अभियान॥14॥               

 

3 comments:

  1. ग्राम्यजीवन की सुन्दर परिकल्पना..

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  2. शीतल जल बहता है कल - कल समरसता यह ही बोता है ।
    जल ही पुण्य-कर्म सिखलाता सन्तप्त मनुज शीतल होता है॥13

    शीतल जल के समान तृप्त करती वाणी

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  3. मूल्यवान सूत्र...

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