[ऋषि- लुश धानाक । देवता- विश्वेदेवा । छन्द- जगती - त्रिष्टुप् ।]
9165
उषासानक्ता बृहती सुपेशसा द्यावाक्षामा वरुणो मित्रो अर्यमा ।
इन्द्रं हुवे मरुतःपर्वतॉं अप आदित्यान्द्यावापृथिवी अपःस्वः॥1॥
सूर्य वायु जल मेघ किरण पर अभी और अन्वेषण हो ।
सर्वाधिक समुचित लाभ मिले सम्यक सटीक सम्प्रेषण हो॥1॥
9166
द्यौश्च नः पृथिवी च प्रचेतस ऋतावरी रक्षतामंहसो रिषः ।
मा दुर्विदत्रा निरृतिर्न ईशत तद्देवानामवो अद्या वृणीमहे॥2॥
आदित्य अवनि अम्बर और जल पर आज भी है कुछ कौतूहल।
इनकी रक्षा का व्रत हम ले लें बढ जाएगा हम सब का बल ॥2॥
9167
विश्वस्मान्नो अदितिः पात्वंहसो माता मित्रस्य वरुणस्य रेवतः।
स्वर्वज्ज्योतिरवृकं नशीमहि तद्देवानामवो अद्या वृणीमहे ॥3॥
आदित्य - देव यश - वैभव देते रोग - शोक से रखते दूर ।
सत्पथ पर हम चलें निरंतर मंज़िल तो आएगी ज़रूर ॥3॥
9168
ग्रावा वदन्नप रक्षासि सेधतु दुष्ष्वप्न्यं निरृतिं विश्वमत्रिणम् ।
आदित्यं शर्म मरुतामशीमहि तद्देवानामवो अद्या वृणीमहे॥4॥
मेघ - गरज बिजली की चमक इस पर भी होना है परिशोध ।
लाभ - हानि है क्यों है कितनी दोनों ही पक्षों का हो बोध ॥4॥
9169
एन्द्रो बर्हि:सीदतु पिन्वतामिळा बबृहस्पतिःसामभिरृक्वो अर्चतु।
सुप्रकेतं जीवसे मन्म धीमहि तद्देवानामवो अद्या वृणीमहे ॥5॥
पवन - प्रवाहित है पृथ्वी पर नभ में है उसका क्या दायित्व ।
नीति-निपुण बन-कर जीना है सतत-सीखना सह-अस्तित्व॥5॥
9170
दिविस्पृशं यज्ञमस्माकमश्विना जीराध्वरं कृणुतं सुम्नमिष्टये ।
प्राचीनरश्मिमाहुतं घृतेन तद्देवानामयो अद्या वृणीमहे ॥॥6॥
पावक - पवन प्राण - रक्षक हैं इन पर भी हो शुभ-चिन्तन ।
परि-आवरण अगर पावन हो तब ही मुस्काएगा जीवन ॥6॥
9171
उप ह्वये सुहवं मारुतं गणं पावकमृष्वं सख्याय शंभुवम् ।
रायस्पोषं सौश्रवसाय धीमहि तद्देवानामवो अद्या वृणीमहे॥7॥
नभ से प्राप्त हुए शब्दों पर बडा - शोध अब भी है शेष ।
मति-अनुरूप मनन करना है कर्तव्य कहॉ होता अशेष ॥7॥
9172
अपां पेरुं जीवधन्यं भरामहे देवाव्यं सुहवमध्वरश्रियम् ।
सुरश्मिं सोममिन्द्रियं यमीमहि तद्देवानामहो अद्या वृणीमहे॥8॥
जलधि-जलाशय में जल-चर हों धरती पर समरस हो जीव ।
नभ में चमके मानस चन्दा हम ईश्वर की शक्ति सजीव ॥8॥
9173
सनेम तत्सुसनिता सनित्वभिर्वयं जीवा जीव-पुत्रा अनागसः।
ब्रह्मद्विषो विष्वगेनो भरेरत तद्देवानामवो अद्या वृणीमहे ॥9॥
शुभ - चिन्तन दीर्घायु बनाता वह परमेश्वर ही वरेण्य है ।
वह रक्षक है सुख-संतति देता वह परमात्मा ही प्रणम्य है॥9॥
9174
ये स्था मनोर्यज्ञियास्ते शृणोतन यद्वो देवा ईमहे तद्ददातन ।
जैत्रं क्रतुं रयिमद्वीरवद्यशस्ततद्देवामवो अद्या वृणीमहे ॥10॥
आत्म-ज्ञान को जान मनुज जीवन-रण को मति-बल से पढ ।
नीति-निपुण बन-कर कुछ पा ले मैं रक्षक हूँ जा आगे बढ॥10॥
9175
महदद्य महतामा वृणीमहेSवो देवानां बृहतामनर्वणाम् ।
यथा वसु वीरजातं नशामहै तद्देवानामवो अद्या वृणीमहे ॥11॥
पर-हित को जीवन अर्पित है हे प्रभु तुम यश-वैभव देना ।
जीवन-भर शुभ कर्म करें हम आत्मीय समझ अपना लेना॥11॥
9176
महो अग्नेः समिधानस्य शर्मण्यनागा मित्रे वरुणे स्वस्तये ।
श्रेष्ठे स्याम सवितुः सवीमनि तद्देवानामवो अद्या वृणीमहे॥12॥
कभी कोई अपराध न हो प्रभु हम सब सात्विक - सुख पायें ।
हर सोच मेरी एक रचना हो रक्षित हो कर प्रभु गुण-गायें॥12॥
9177
ये सवितुः सत्यसवस्य विश्वे मित्रस्य व्रते वरुणस्य देवा: ।
ते सौभगं वीरवद्गोमदप्नो दधातन द्रविणं चित्रमस्मे ॥13॥
नेम-नियम से सभी बँधे हैं तुम भी यह सीखो मन के मीत ।
हम सब प्रभु द्वारा रक्षित हैं उनकी गरिमा के गाओ गीत॥13॥
9178
सविता पश्चातात्सविता पुरस्तात्सवितोत्तरात्तात्सविताधरात्तात्।
सविता नः सुवतु सर्वतातिं सविता नो रासतां दीर्घमायुः॥14॥
हे प्रभु दशों - दिशा में तुम हो सदा हमारी रक्षा करना ।
तुम सर्वत्र व्याप्त हो प्रभु-वर मुझ पर वरद-हस्त तुम रखना॥14॥
9165
उषासानक्ता बृहती सुपेशसा द्यावाक्षामा वरुणो मित्रो अर्यमा ।
इन्द्रं हुवे मरुतःपर्वतॉं अप आदित्यान्द्यावापृथिवी अपःस्वः॥1॥
सूर्य वायु जल मेघ किरण पर अभी और अन्वेषण हो ।
सर्वाधिक समुचित लाभ मिले सम्यक सटीक सम्प्रेषण हो॥1॥
9166
द्यौश्च नः पृथिवी च प्रचेतस ऋतावरी रक्षतामंहसो रिषः ।
मा दुर्विदत्रा निरृतिर्न ईशत तद्देवानामवो अद्या वृणीमहे॥2॥
आदित्य अवनि अम्बर और जल पर आज भी है कुछ कौतूहल।
इनकी रक्षा का व्रत हम ले लें बढ जाएगा हम सब का बल ॥2॥
9167
विश्वस्मान्नो अदितिः पात्वंहसो माता मित्रस्य वरुणस्य रेवतः।
स्वर्वज्ज्योतिरवृकं नशीमहि तद्देवानामवो अद्या वृणीमहे ॥3॥
आदित्य - देव यश - वैभव देते रोग - शोक से रखते दूर ।
सत्पथ पर हम चलें निरंतर मंज़िल तो आएगी ज़रूर ॥3॥
9168
ग्रावा वदन्नप रक्षासि सेधतु दुष्ष्वप्न्यं निरृतिं विश्वमत्रिणम् ।
आदित्यं शर्म मरुतामशीमहि तद्देवानामवो अद्या वृणीमहे॥4॥
मेघ - गरज बिजली की चमक इस पर भी होना है परिशोध ।
लाभ - हानि है क्यों है कितनी दोनों ही पक्षों का हो बोध ॥4॥
9169
एन्द्रो बर्हि:सीदतु पिन्वतामिळा बबृहस्पतिःसामभिरृक्वो अर्चतु।
सुप्रकेतं जीवसे मन्म धीमहि तद्देवानामवो अद्या वृणीमहे ॥5॥
पवन - प्रवाहित है पृथ्वी पर नभ में है उसका क्या दायित्व ।
नीति-निपुण बन-कर जीना है सतत-सीखना सह-अस्तित्व॥5॥
9170
दिविस्पृशं यज्ञमस्माकमश्विना जीराध्वरं कृणुतं सुम्नमिष्टये ।
प्राचीनरश्मिमाहुतं घृतेन तद्देवानामयो अद्या वृणीमहे ॥॥6॥
पावक - पवन प्राण - रक्षक हैं इन पर भी हो शुभ-चिन्तन ।
परि-आवरण अगर पावन हो तब ही मुस्काएगा जीवन ॥6॥
9171
उप ह्वये सुहवं मारुतं गणं पावकमृष्वं सख्याय शंभुवम् ।
रायस्पोषं सौश्रवसाय धीमहि तद्देवानामवो अद्या वृणीमहे॥7॥
नभ से प्राप्त हुए शब्दों पर बडा - शोध अब भी है शेष ।
मति-अनुरूप मनन करना है कर्तव्य कहॉ होता अशेष ॥7॥
9172
अपां पेरुं जीवधन्यं भरामहे देवाव्यं सुहवमध्वरश्रियम् ।
सुरश्मिं सोममिन्द्रियं यमीमहि तद्देवानामहो अद्या वृणीमहे॥8॥
जलधि-जलाशय में जल-चर हों धरती पर समरस हो जीव ।
नभ में चमके मानस चन्दा हम ईश्वर की शक्ति सजीव ॥8॥
9173
सनेम तत्सुसनिता सनित्वभिर्वयं जीवा जीव-पुत्रा अनागसः।
ब्रह्मद्विषो विष्वगेनो भरेरत तद्देवानामवो अद्या वृणीमहे ॥9॥
शुभ - चिन्तन दीर्घायु बनाता वह परमेश्वर ही वरेण्य है ।
वह रक्षक है सुख-संतति देता वह परमात्मा ही प्रणम्य है॥9॥
9174
ये स्था मनोर्यज्ञियास्ते शृणोतन यद्वो देवा ईमहे तद्ददातन ।
जैत्रं क्रतुं रयिमद्वीरवद्यशस्ततद्देवामवो अद्या वृणीमहे ॥10॥
आत्म-ज्ञान को जान मनुज जीवन-रण को मति-बल से पढ ।
नीति-निपुण बन-कर कुछ पा ले मैं रक्षक हूँ जा आगे बढ॥10॥
9175
महदद्य महतामा वृणीमहेSवो देवानां बृहतामनर्वणाम् ।
यथा वसु वीरजातं नशामहै तद्देवानामवो अद्या वृणीमहे ॥11॥
पर-हित को जीवन अर्पित है हे प्रभु तुम यश-वैभव देना ।
जीवन-भर शुभ कर्म करें हम आत्मीय समझ अपना लेना॥11॥
9176
महो अग्नेः समिधानस्य शर्मण्यनागा मित्रे वरुणे स्वस्तये ।
श्रेष्ठे स्याम सवितुः सवीमनि तद्देवानामवो अद्या वृणीमहे॥12॥
कभी कोई अपराध न हो प्रभु हम सब सात्विक - सुख पायें ।
हर सोच मेरी एक रचना हो रक्षित हो कर प्रभु गुण-गायें॥12॥
9177
ये सवितुः सत्यसवस्य विश्वे मित्रस्य व्रते वरुणस्य देवा: ।
ते सौभगं वीरवद्गोमदप्नो दधातन द्रविणं चित्रमस्मे ॥13॥
नेम-नियम से सभी बँधे हैं तुम भी यह सीखो मन के मीत ।
हम सब प्रभु द्वारा रक्षित हैं उनकी गरिमा के गाओ गीत॥13॥
9178
सविता पश्चातात्सविता पुरस्तात्सवितोत्तरात्तात्सविताधरात्तात्।
सविता नः सुवतु सर्वतातिं सविता नो रासतां दीर्घमायुः॥14॥
हे प्रभु दशों - दिशा में तुम हो सदा हमारी रक्षा करना ।
तुम सर्वत्र व्याप्त हो प्रभु-वर मुझ पर वरद-हस्त तुम रखना॥14॥
धन्यवाद शकुन्तला जी,इस तरह हम भी वेद -पाठ कर रहे हैं.......
ReplyDeleteअति सुंदर...
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