Thursday, 27 February 2014

सूक्त - 18

[ऋषि- संकुसुक यामायन । देवता- मृत्यु । छन्द- त्रिष्टुप्-पंक्ति-जगती-अनुष्टुप्।]

8961
परं   मृत्यो  अनु   परेहि  पन्थां  यस्ते  स्व  इतरो  देवयानात् ।
चक्षुष्मते श्रृण्वते ते ब्रवीमि मा नः प्रजां रीरिषो मोत वीरान्॥1॥

हे  मृत्यु - देव  तुम  राह  बदल लो तुम ढूँढ लो कोई और गली ।
अनुरोध  आपसे  इतना  है  कुम्हलाए  न कोई कमल-कली॥1॥

8962
मृत्योः  पदं  योपयन्तो  यदैत  द्राघीय  आयुः  प्रतरं  दधाना: ।
आप्यायमाना:प्रजया धनेन शुध्दा:पूता भवतय यज्ञियासः॥2॥

जो  सत्कर्म  सदा  करता  है  उसका  भविष्य  भी उज्ज्वल है ।
शुभ कर्मों का फल भी शुभ है आज नहीं तो निश्चित कल है ॥2॥

8963
इमे   जीवा   वि   मृतैराववृत्रन्नभूद्भद्रा   देवहूतिर्नो   अद्य ।
प्राञ्चो अगाम नृतये हसाय द्राघीय आयुः प्रतरं दधाना:॥3॥

हे  प्रभु  दीर्घ - आयु  मिल  जाए  जग  में  हो सबका कल्याण ।
सुखकर जीवन जियें हम सभी जब तक है इस तन में प्राण॥3॥

8964
इमं  जीवेभ्यः  परिधिं  दधामि  मैषा  नु  गादपरो  अर्थमेतम् ।
शतं   जीवन्तु  शरदः  पुरूचीरनन्तर्मृत्युं  दधतां   पर्वतेन ॥4॥

अल्पायु  मृत्यु  से  तुम्हीं  बचाना  सतत  सुरक्षा  देते  रहना ।
सत्पथ पर हम चलें निरंतर वरद-हस्त तुम हम पर रखना॥4॥

8965
यथाहान्यनुपूर्वं  भवन्ति  यथ  ऋतव  ऋतुभिर्यन्ति  साधु ।
यथा  न  पूर्वमपरो  जहात्येवा  धातरायूंषि  कल्पयैषाम्॥5॥

एक-एक दिन क्रम से आता क्रम है आना और फिर जाना ।
हे मृत्यु-देव वृद्धों के रहते तुम बच्चों को न हाथ लगाना॥5॥

8966
आ   रोहतायुर्जरसं   वृणाना   अनुपूर्वं   यतमाना   यतिष्ठ ।
इह त्वष्टा सुजनिमा सजोषा दीर्घमायुःकरति जीवसे वः॥6॥

हे  प्रभु  पूर्ण - आयु  हम  पायें  चौथे - पन  का निर्वाह करें ।
रक्षा  करना  सदा  हमारी  गति- यति से हम धीर-धरें ॥6॥

8967
इमा  नारीरविधवा:  सुपत्नीराञ्जनेन  सर्पिषा सं विशन्तु ।
अनश्रवोSनमीवा: सुरत्ना आ रोहन्तु जनयो योनिमग्रे॥7॥

लालित्य लेप से ललनायें  भी आनन्द  बिछायें चारों ओर ।
दुख को भूत मान कर त्यागें आगे है चलो सुनहरा भोर॥7॥

8968
उदीर्ष्व   नार्यभि   जीवलोकं   गतासुमेतमुप   शेष   एहि ।
हस्तग्राभस्य दिधिषोस्तवेदं पत्युर्जनित्वमभि सं बभूथ॥8॥

जो  बीत  गया  उसको  भूलो  बढ  जाओ  आगे देखो आज ।
निज कर्तव्य निभाओ अब तो देख रहा है सकल समाज॥8॥

8969
धनुर्हस्तादाददानो   मृतस्यास्मे   क्षत्राय   वर्चसे   बलाय ।
अत्रैव त्वमिह वयं सुवीरा विश्वा: स्पृधो अभिमातीर्जयेम॥9॥

समुचित शक्ति हमें देना प्रभु हम  दायित्व निभायें अपना ।
हे  परमेश्वर  पूरा  करना  देखा  हमने जो सुन्दर सपना ॥9॥

8970
उप   सर्प   मातरं   भूमिमेतामुरुव्यचसं    पृथिवीं    सुशेवाम् ।
ऊर्णम्रदा युवतिर्दक्षिणावत एषा त्वा पातु निरृतेरुपस्थात्॥10॥

यह   धरती   माता  है  मेरी   मर  जाने   पर  देती  है   गोद ।
जननी जन्म-भूमि प्यारी है जीवन भर यहॉ मनाए मोद॥10॥

8971
उच्छ्वञ्चस्व पृथिवि मा नि बाधथा:सूपायनास्मै भव सूपवञ्चना।
माता पुत्रं यथा सिचाभ्येनं भूम ऊर्णेहि ॥11॥

पृथ्वी - माता  पीडा  हर  लो  दे  दो  मुझको  अपना ऑचल ।
गहरी नींद मुझे सोना है फिर से पाना है स्वर्णिम-कल ॥11॥

8972
उच्छ्वञ्चमाना पृथिवी सु तिष्ठतु सहस्त्रं मित उप हि श्रयन्ताम्।
ते गृहासो घृतश्चुतो भवन्तु विश्वाहास्मै शरणा: स स्न्त्वत्र॥12॥

निर्जीव  देह को तुम्हीं संभालो यह कार्य तुम्हीं कर सकती हो ।
मुझे  तुम्हारा  साथ  चाहिए  मेरा आश्रय  बन सकती हो ॥12॥

8973
उत्ते स्तभ्नामि पृथिवीं त्वत्परीमं लोगं निदधन्मो अहं रिषम्।
एतां स्थूणां पितरो धारयन्तु तेSत्रा यमः सादना ते मिनोतु॥13॥

हे जननी जन्म- भूमि मेरी निर्जीव-देह का तुम्हीं हो ठौर ।
तुम्हें कष्ट तो होगा पर अब इसका नहीं है कोई और ॥13॥

8974
प्रतीचीने   मामहनीष्वा:  पर्णमिवा   दधुः ।
प्रतीचीं जग्रभा वाचमश्वं रशनया यथा॥14॥

हे  परमेश्वर सद्-विद्या दो प्रति-दिन हो एक नया सवेरा ।
जीवन यह सार्थक हो जाए छँट जाए अज्ञान-अँधेरा॥14॥    
 

 

   

3 comments:

  1. मृत्यु का दार्शनिक स्वरूप..

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  2. जीवनोपयोगी सुक्त बेहतरीन प्रणाम

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  3. हे परमेश्वर सद्-विद्या दो प्रति-दिन हो एक नया सवेरा ।
    जीवन यह सार्थक हो जाए छँट जाए अज्ञान-अँधेरा॥

    असतो मा सद गमय...

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