Friday, 28 February 2014

सूक्त - 17

[ऋषि- देवश्रवा यामायन । देवता- पूषा-सरस्वती । छन्द- त्रिष्टुप्-बृहती-अनुष्टुप्।]

8947
त्वष्टा   दुहित्रे   वहतुं   कृणोतीतीदं   विश्वं   भुवनं  समेति ।
यमस्य माता पर्युह्यमाना महो जाया विवस्वतो ननाश॥1॥

आदित्य - देव आलोक - प्रदाता  अ‍ॅधकार  को  करते  दूर ।
जगती निज दायित्व निभाता ऊर्जा मिलती है भरपूर ॥1॥

8948
अपागूहन्नमृतां मर्त्येभ्यः  कृत्वी  सवर्णामददुर्विवस्वते ।
उताश्विनावभरद्यत्तदासीदजहादु  द्वा  मिथुना  सरण्यूः ॥2॥

ऊषा - किरण आती  धरती  पर करती आशा का सञ्चार ।
कर्म - योग का पाठ पढाती सन्ध्या दे जाती अभिसार॥2॥

8949
पूषा   त्वेतश्च्यावयतु   प्र   विद्वाननष्टपशुर्भुवनस्य  गोपा: ।
स त्वैतेभ्यः परि ददत्पितृभ्योSग्निर्देवेभ्यःसुविदत्रियेभ्यः॥3॥

परमेश्वर  है  पिता  हमारा  हम  सबकी  रक्षा  करता   है ।
वह शुभचिन्तक सदा हमारा सबकी पीडा वह हरता है॥3॥

8950
आयुर्विश्वायुः परि पासति त्वा पूषा त्वा पातु प्रपथे पुरस्तात् ।
यत्रासते  सुकृतो  यत्र ते ययुस्तत्र त्वा देवः सविता दधातु॥4॥

सर्व - व्याप्त  है  वह  परमात्मा  शुभ-चिन्तक है सखा हमारा ।
वही   सुरक्षा   देता   हमको   वह  ही  तो  है  सगा  हमारा ॥4॥

8951
पूषेमा आशा अनु  वेद सर्वा: सो अस्मॉ अ अभयतमेन नेषत् ।
स्वस्तिदा  आघृणिः सर्ववीरोSप्रयुच्छन्पुर  एतु  प्रजानन् ॥5॥

हे दिशा हमें तुम अभय-दान दो हम भी निज दायित्व निभायें।
नहीं किसी का भय हो हमको हम भी प्रभु - प्रसाद को पायें॥5॥

8952
प्रपथे  पथामजनिष्ट   पूषा   प्रपथे   दिवः  प्रपथे   पृथिव्या: ।
उभे अभि प्रियतमे सधस्थे आ च परा च चरति प्रजानन्॥6॥

कण - कण  में  है  वह  परमेश्वर  हर  प्राणी में वही समाया ।
श्रुति भी नेति-नेति कहती है अद्भुत है उस प्रभु की माया॥6॥

8953
सरस्वतीं   देवयन्तो   हवन्ते   सरस्वतीमध्वरे   तायमाने ।
सरस्वतीं  सुकृतो  अह्वयन्त  सरस्वती दाशुषे वार्यं दात् ॥7॥

ऋषि - गण  वाक् मध्यमा द्वारा हवि-भोग अग्नि को देते हैं ।
वे  यश - वैभव  प्रदान  करते  हैं  रोग - शोक  हर लेते हैं ॥7॥

8954
सरस्वति  या  सरथं  ययाथ   स्वधाभिर्देवि पितृभिर्मदन्ती ।
आसद्यास्मिन्बर्हिषि  मादयस्वानमीवा  इष  आ धेह्यस्मे॥8॥

सरस्वती  सादर  प्रणम्य  हो  वाक् - वैभव  का  दे  दो  दान ।
जग हो शुभ-चिन्तन का मंदिर सत्कर्मों का हो अभियान॥8॥

8955
सरस्वती यां पितरो हवन्ते दक्षिणा यज्ञमभिनक्षमाणा: ।
सहस्त्रार्घममिळो अत्र भागं रायस्पोषं यजमानेषु धेहि ॥9॥

मॉ सरस्वती को ज्ञानी-जन हवि-भोग समर्पित करते हैं ।
माता हमको यश-वैभव देना बारम्बार नमन करते हैं ॥9॥

8956
आपो अस्मान्मातरः शुन्धयन्तु  घृतेन  नो घृतप्वः पुनन्तु ।
विश्वं हि रिप्रं प्रवहन्ति देवीरुदिदाभ्यः शुचिरा पूत एमि॥10॥

माता  समान  पोषक  जल-धारा  सबकी  प्यास  बुझाती है ।
शुध्द-पवित्र  बना  देती  है  शुचिता - कथा  सुनाती  है ॥10॥

8957
द्रप्सश्चस्कन्द  प्रथमॉ अनु  द्यूनिमं  च  योनिमनु यश्च पूर्वः ।
समानं योनिमनु सञ्चरन्तं द्रप्सं जुहोम्यनु सप्त होत्रा:॥11॥

सुधा - सदृश  यह  सोम-सुन्दरी इस जगती में विद्यमान है ।
अब अन्वेषण आवश्यक है यक्ष-प्रश्न यह अभिज्ञान  है ॥11॥

8958
यस्ते द्रप्सःस्कन्दति यस्ते अंशुर्बाहुच्युतो धिषणाया उपस्थात्।
अध्वर्योर्वा परि वा यःपवित्रात्तं ते जुहोमि मनसा वषट्कृतम्॥12॥

सोम - तत्व  सर्वत्र  व्याप्त  है  पवन - सदृश  है चारों ओर ।
इसे जानना आवश्यक है व्याकुल है यह मन का मोर ॥12॥

8959
यस्ते द्रप्सः स्कन्नो यस्ते अंशुरवश्च यः परः स्त्रुचा ।
अयं   देवो  बृहस्पतिः  सं  तं  सिञ्चतु  राधसे ॥13॥

सोम है क्या हम  कैसे जानें सोम-लता का हो परि-शोध ।
ज्ञानी वैद्य करें अन्वेषण निज दायित्वों का हो बोध ॥13॥

8960
पयस्वतीरोषधयः     पयस्वन्मामकं     वचः ।
अपां पयस्वदित्पयस्तेन मा सह शुन्धत॥14॥

औषधि मातृ - सदृश  होती  है  उसकी महिमा को हम जानें ।
अनगिन आयाम औषधि के हम इस अमृत को पहचानें॥14॥  
       

3 comments:

  1. सोम तो आज रहस्यावृत में है!

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  2. सोम है क्या हम कैसे जानें सोम-लता का हो परि-शोध ।
    ज्ञानी वैद्य करें अन्वेषण निज दायित्वों का हो बोध

    वैद्यों को इसका पता तो अब तक चल गया होगा..

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