[ऋषिका- इन्द्रस्नुषा । देवता- वसुक्र ऐन्द्र । छन्द- त्रिष्टुप् ।]
9073
विश्वो ह्य1न्यो अरिराजगाम ममेदह श्वशुरो ना जगाम ।
जक्षीयाध्दाना उत सोमं पपीयात्स्वाशितः पुनरस्तं जगायात्॥1॥
जो आगन्तुक की सेवा करता सुख का बीज वही बोता है ।
अतिथि पूज्य है सदा हमारा पहुना देव-सदृश होता है॥1॥
9074
स रोरुवद्वृषभस्तिग्मशृङ्गो वर्ष्मन्तस्थौ वरिमन्ना पृथिव्या: ।
विश्वेष्वेनं वृजनेषु पामि यो मे कुक्षी सुतसोमः पृणाति॥2॥
अपना आयुध लेकर चलता जो हम सबका रखवाला है ।
दूर भी है अत्यन्त निकट है वह मन-मोहन मुरली वाला॥2॥
9075
अद्रिणा ते मन्दिन इन्द्र तूयान्त्सुन्वन्ति सोमान्पिबसि त्वमेषाम्।
पचन्ति ते वृषभॉ अत्सि तेषां पृक्षेण यन्मघवन्हूयमानः ॥3॥
सोम - लता को भली - भॉति वे वैद्य - राज पहचानते हैं ।
उसका प्रभाव है सुधा - सदृश यह बात वैद्य ही जानते हैं ॥3॥
9076
इदं सु मे जरितरा चिकिध्दि प्रतीपं शापं नद्यो वहन्ति ।
लोपाशः सिंहं प्रत्यञ्चमत्सा:कोष्टा वराहं निरतक्त कक्षात्॥4॥
आषधियॉ हैं दिव्य इसी से जर्जर - काया बल पाती है ।
इन औषधियों के सेवन से बूढी काया खिल जाती है ॥4॥
9077
कथा त एतदहमा चिकेतं गृत्सस्य पाकस्तवसो मनीषाम्।
त्वं नो विद्वॉ ऋतुथा वि वोचो यमर्धं ते मघवन्क्षेम्या धूः॥5॥
अति समर्थ है वह परमेश्वर ज्ञानी भी पार नहीं पाते हैं ।
आर्त्त - नाद सुन - कर पर वे ही दौडे-दौडे आ जाते हैं ॥5॥
9078
एवा हि मां तवसं वर्धयन्ति दिवश्चिन्मे बृहत उत्तरा धूः ।
पुरु सहस्त्रा नि शिशामि साकमशत्रुं हि मा जनिता जजान॥6॥
वह अनादि अद्भुत अनन्त है नहीं है कोई परिभाषा ।
पर जाने क्यों प्यारा लगता है मिलने की होती अभिलाषा॥6॥
9079
एवा हि मां तवसं जज्ञुरुग्रं कर्मन्कर्मन्वृषणमिन्द्र देवा: ।
वधीं वृत्रं वज्रेण मन्दसानोSप व्रजं महिना दाषुषे वम्॥7॥
भले ही हो वह बहुत बडा पर सखा - सरीखा लगता है ।
वह बिल्कुल गैर नहीं लगता अपना-पन साफ झलकता है॥7॥
9080
देवास आयन्परशूँरबिभ्रन्वना वृश्चन्तो अभि विङ्भिरायन् ।
नि सुद्रवं1 दधतो वक्षणासु यत्रा कृपीटमनु तद्दहन्ति॥8॥
सत्पथ पर आओ करो भरोसा पाओगे तुम उत्तम फल ।
कर्मानुरूप तुम फल पाओगे आज नहीं तो निश्चय कल॥8॥
9081
शशः क्षुरं प्रत्यञ्चं जगाराद्रिं लोगेन व्यभेदमारात् ।
बृहन्तं चिदृहते रन्धयानि वयद्वत्सो वृषभं शूशुवानः॥9॥
वह ईश्वर अद्भुत अनुपम है करता सदा निराला खेल ।
असंभव संभव हो जाता है दुष्टों को कर देता है फेल॥9॥
9082
सुपर्ण इत्था नखमा सिषायावरुध्दः परिपदं न सिंहः ।
निरुध्दश्चिन्महिषस्तर्ष्यावान्गोधा तस्मा अयथं कर्षदेतत्॥10॥
सोच - मात्र से क्षण - भर में ही सभी समस्या हल होती है ।
उसकी बानी बहुत मधुर है बीज प्रेम का वह बोती है॥10॥
9083
तेभ्यो गोधा अयथं कर्षदेतद्ये ब्रह्मणः प्रतिपीयन्त्यन्नैः ।
सिम उक्ष्णोSवसृष्टॉ अदन्ति स्वयं बलानि तन्वःशृणाना:॥11॥
रिरु-दल से तुम मुझे बचाना आत्मीय मान-कर अपना लेना ।
भूल से यदि कोई भूल हो जाए तो तुम मुझे क्षमा कर देना॥11॥
9084
एते शमीभिः सुशमी अभूवन्ये हिन्विरे तन्व1: सोम उक्थैः ।
नृवद्वदन्नुप नो माहि वाजान्दिवि श्रवो दधिषे नाम वीरः॥12॥
यज्ञ - भाव से इस तन - मन का भली-भॉति पोषण होता है ।
निज दायित्व निभाता है सत्कर्म- बीज फिर से बोता है॥12॥
9073
विश्वो ह्य1न्यो अरिराजगाम ममेदह श्वशुरो ना जगाम ।
जक्षीयाध्दाना उत सोमं पपीयात्स्वाशितः पुनरस्तं जगायात्॥1॥
जो आगन्तुक की सेवा करता सुख का बीज वही बोता है ।
अतिथि पूज्य है सदा हमारा पहुना देव-सदृश होता है॥1॥
9074
स रोरुवद्वृषभस्तिग्मशृङ्गो वर्ष्मन्तस्थौ वरिमन्ना पृथिव्या: ।
विश्वेष्वेनं वृजनेषु पामि यो मे कुक्षी सुतसोमः पृणाति॥2॥
अपना आयुध लेकर चलता जो हम सबका रखवाला है ।
दूर भी है अत्यन्त निकट है वह मन-मोहन मुरली वाला॥2॥
9075
अद्रिणा ते मन्दिन इन्द्र तूयान्त्सुन्वन्ति सोमान्पिबसि त्वमेषाम्।
पचन्ति ते वृषभॉ अत्सि तेषां पृक्षेण यन्मघवन्हूयमानः ॥3॥
सोम - लता को भली - भॉति वे वैद्य - राज पहचानते हैं ।
उसका प्रभाव है सुधा - सदृश यह बात वैद्य ही जानते हैं ॥3॥
9076
इदं सु मे जरितरा चिकिध्दि प्रतीपं शापं नद्यो वहन्ति ।
लोपाशः सिंहं प्रत्यञ्चमत्सा:कोष्टा वराहं निरतक्त कक्षात्॥4॥
आषधियॉ हैं दिव्य इसी से जर्जर - काया बल पाती है ।
इन औषधियों के सेवन से बूढी काया खिल जाती है ॥4॥
9077
कथा त एतदहमा चिकेतं गृत्सस्य पाकस्तवसो मनीषाम्।
त्वं नो विद्वॉ ऋतुथा वि वोचो यमर्धं ते मघवन्क्षेम्या धूः॥5॥
अति समर्थ है वह परमेश्वर ज्ञानी भी पार नहीं पाते हैं ।
आर्त्त - नाद सुन - कर पर वे ही दौडे-दौडे आ जाते हैं ॥5॥
9078
एवा हि मां तवसं वर्धयन्ति दिवश्चिन्मे बृहत उत्तरा धूः ।
पुरु सहस्त्रा नि शिशामि साकमशत्रुं हि मा जनिता जजान॥6॥
वह अनादि अद्भुत अनन्त है नहीं है कोई परिभाषा ।
पर जाने क्यों प्यारा लगता है मिलने की होती अभिलाषा॥6॥
9079
एवा हि मां तवसं जज्ञुरुग्रं कर्मन्कर्मन्वृषणमिन्द्र देवा: ।
वधीं वृत्रं वज्रेण मन्दसानोSप व्रजं महिना दाषुषे वम्॥7॥
भले ही हो वह बहुत बडा पर सखा - सरीखा लगता है ।
वह बिल्कुल गैर नहीं लगता अपना-पन साफ झलकता है॥7॥
9080
देवास आयन्परशूँरबिभ्रन्वना वृश्चन्तो अभि विङ्भिरायन् ।
नि सुद्रवं1 दधतो वक्षणासु यत्रा कृपीटमनु तद्दहन्ति॥8॥
सत्पथ पर आओ करो भरोसा पाओगे तुम उत्तम फल ।
कर्मानुरूप तुम फल पाओगे आज नहीं तो निश्चय कल॥8॥
9081
शशः क्षुरं प्रत्यञ्चं जगाराद्रिं लोगेन व्यभेदमारात् ।
बृहन्तं चिदृहते रन्धयानि वयद्वत्सो वृषभं शूशुवानः॥9॥
वह ईश्वर अद्भुत अनुपम है करता सदा निराला खेल ।
असंभव संभव हो जाता है दुष्टों को कर देता है फेल॥9॥
9082
सुपर्ण इत्था नखमा सिषायावरुध्दः परिपदं न सिंहः ।
निरुध्दश्चिन्महिषस्तर्ष्यावान्गोधा तस्मा अयथं कर्षदेतत्॥10॥
सोच - मात्र से क्षण - भर में ही सभी समस्या हल होती है ।
उसकी बानी बहुत मधुर है बीज प्रेम का वह बोती है॥10॥
9083
तेभ्यो गोधा अयथं कर्षदेतद्ये ब्रह्मणः प्रतिपीयन्त्यन्नैः ।
सिम उक्ष्णोSवसृष्टॉ अदन्ति स्वयं बलानि तन्वःशृणाना:॥11॥
रिरु-दल से तुम मुझे बचाना आत्मीय मान-कर अपना लेना ।
भूल से यदि कोई भूल हो जाए तो तुम मुझे क्षमा कर देना॥11॥
9084
एते शमीभिः सुशमी अभूवन्ये हिन्विरे तन्व1: सोम उक्थैः ।
नृवद्वदन्नुप नो माहि वाजान्दिवि श्रवो दधिषे नाम वीरः॥12॥
यज्ञ - भाव से इस तन - मन का भली-भॉति पोषण होता है ।
निज दायित्व निभाता है सत्कर्म- बीज फिर से बोता है॥12॥
नहीं कहीं कुछ व्यर्थ जगत में।
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