Sunday 9 February 2014

सूक्त - 35

[ऋषि- लुश धानाक । देवता- विश्वेदेवा । छन्द- जगती- त्रिष्टुप् ।]

9151
अबुध्रमु त्य इन्द्रवन्तो अग्नयो ज्योतिर्भरन्त उषसो व्युष्टिषु ।
मही द्यावापृथिवी चेततामपोSद्या  देवानामव आ वृणीमहे ॥1॥

पवन  साथ  में  लिए  अग्नि  यह  उषा-काल में जग जाती है ।
फिर जगती भी जग जाती है पृथ्वी-पर नव-ऊर्जा आती है॥1॥

9152
दिवस्पृथिव्योरव आ  वृणीमहे  मातृन्त्सिन्धून्पर्वताञ्छर्यणावतः।
अनागास्त्वं सूर्यमुषासमीमहे भद्रं सोमःसुवानो अद्या कृणोतु नः॥2॥

यह  धरती  भी  संरक्षित  हो  पर्वत - सरितायें  सखी - समान ।
दोष - मुक्त  मन  हो  जाए  प्रभु  अद्भुत है सूरज का अनुदान॥2॥

9153
द्यावा  नो अद्य  पृथिवी अनागसो मही त्रायेतां सुविताय मातरा ।
उषा उच्छन्त्यप बाधतामघं स्वस्त्य1ग्निं समिधानमीमहे॥3॥

असीम  कृपा  है  उस  ईश्वर  की  जिसने  धरती गगन दिया है ।
इन सूर्य-रश्मियों को देकर प्रभु ने हम पर उपकार किया है ॥3॥

9154
इयं  न  उस्त्रा  प्रथमा  सुदेव्यं  रेवत्सनिभ्यो  रेवती व्युच्छतु ।
आरे मन्युं दुर्विदत्रस्य धीमहि स्वस्त्य1 समिधानमीमहे ॥4॥

उषा  हमें  यश - धन  देती  है  सत्पथ  पर  हमें  चलाती  है ।
दीप्त - सूर्य  पर  शोध  करें हम सूर्य-ज्योति सिखलाती है ॥4॥

9155
प्र  या: सिस्त्रते  सूर्यस्य  रश्मिभिर्ज्योतिर्भरन्तीरुषसो व्युष्टिषु ।
भद्रा नो अद्य श्रवसे व्युच्छत स्वस्त्य1ग्निं समिधानमीमहे॥5॥

उषा - काल  की  महिमा  अद्भुत  अन्न - धान  लेकर  आती  है ।
हम अग्नि-तत्व की गरिमा जानें वही लक्ष्य तक पहुँचाती है॥5॥

9156
अनमीवा उषस आ कचरन्तु न उदग्नयो जिहतां ज्योतिषा बृहत् ।
आयुक्षातामश्विना  तूतुजिं रथं स्वस्त्य1ग्निं समिधानमीमहे॥6॥

उषा  सदा  शुभ  लेकर  आती  तन - मन  ऊर्जा  से  भर देती  है ।
अग्नि - देवता सुख-साधक हैं जठर- -अग्नि तन को सेती है ॥6॥

9157
श्रेष्ठं  नो  अद्य  सवितर्वरेण्यं  भागमा  सुव  स  हि  रत्नधा  असि ।
रायो जनित्रीं धिषणामुप ब्रुवे स्वस्त्य1ग्निं समिधानमीमहे॥7॥

आदित्य -  देव  वैभव  देते  हैं  वह  ही  हैं  आलोक -  प्रदाता ।
हे  वेद-वाक् तुम ही प्रणम्य हो अग्नि सभी रूपों में भाता ॥7॥

9158
पिपर्तु  मा  तदृतस्य  प्रवाचनं  देवानां  यन्मनुष्या3 अमन्महि ।
विश्वा विदुस्त्रा:स्पळुदेति सूर्यःस्वस्त्य1ग्निं समिधानमीमहे॥8॥

नीति - नियम  तुम  ही  सिखलाना  तुम्हें  नमन  है  बारम्बार ।
सूर्य   उषा   पर   स्नेह   लुटाता   सूर्य  शोध  का  है  आगार ॥8॥

9159
अद्वेषो  अद्य  बहिर्षः स्तरीमणि ग्राव्णां योगे मन्मनः साध ईमहे ।
आदित्यानां शर्मणि स्था भुरण्यसि स्वस्त्य1ग्निं समिधानमीमहे॥9॥

प्रभु  पावन  पथ  पर  ले  जाना  तुम  मुझको अभीष्ट-फल  देना ।
भूल  से  कोई  भूल  न  हो  प्रभु आत्मीय समझ अपना लेना॥9॥

9160
आ  नो  बर्हि: सधमादे  बृहद्दिवि  देवां  ईळे  सादया  सप्त होतृन् ।
इन्द्रं मित्रं वरुणं सातये भगं स्वस्त्य1ग्निं समिधानमीमहे॥10॥

पावन  पावक  की  गरिमा अद्भुत  उस  पर  होना  है  परिशोध ।
कहीं  प्रज्वलित  कहीं  सुप्त है मनुज-मात्र को हो यह बोध  ॥10॥

9161
त  आदित्या  आगता  सर्वतातये  वृधे नो यज्ञमवता सजोषसः ।
बृहस्पतिं पूषणमश्विना भगं स्वस्त्य1ग्निं समिधानमीमहे॥11॥

रहस्य  कई  हैं  अग्नि -  देव  के  अनगिन  हैं  इनके  आयाम ।
प्रश्न - चिह्न  यह  बना  हुआ  है अन्वेषण बिन नहीं विराम ॥11॥

9162
तन्नो  देवा  यच्छत  सुप्रवाचनं छर्दिरादित्या: सुभरं नृपाय्यम् ।
पश्वे तोकाय तनयाय जीवसे स्वस्त्य1ग्निं समिधामीमहे।॥12॥

हे  सूर्य  कहाने  वाले  ज्ञानी  तुम  मुझको  सुख - सन्तति देना ।
यज्ञ  सभी  का  सुख-साधक  है प्रभु सबकी पीडा हर लेना ॥12॥

9163
विश्वे  अद्य  मरुतो  विश्व  ऊती  विश्वे  भवन्त्वग्नयः  समिध्दा: ।
विश्वे नो देवा अवसा गमन्तु विश्वमस्तु द्रविणं वाजो अस्मे॥13॥

अग्नि - देव  हम  सबके  रक्षक  हम  उनका आवाहन  करते हैं ।
यश - वैभव  तुम  ही देना प्रभु हम सत्पथ पर ही चलते हैं ॥13॥

9164
यं   देवासोSवथ   वाजसातौ   यं   त्रायध्वे   यं  पिपृथात्यंहः ।
यो वो गोपीथे न भयस्य वेद ते स्याम देववीतये तुरासः॥14॥

सूर्य - देव  तुम  ही  संरक्षक  तुम  ही  देते  हो  अभय - दान ।
तुम  रिपु-दल  से मुझे बचाना तुम ही देना आत्म-ज्ञान॥14॥   

4 comments:

  1. खूबसूरत कथ्य...

    ReplyDelete

  2. उषा - काल की महिमा अद्भुत अन्न - धान लेकर आती है ।
    हम अग्नि-तत्व की गरिमा जानें वही लक्ष्य तक पहुँचाती है॥5॥

    वेदों का ज्ञान हम तक पहुँचाने के लिए बहुत बहुत आभार!

    ReplyDelete
  3. अग्नि तत्व की महिमा अनंत ......फिर चाहे वह किसी भी रूप में हो.....

    ReplyDelete
  4. सब के सब सहजता से गुँथें हैं।

    ReplyDelete