[ ऋषि- रक्षा कवच । देवता- विश्वेदेवा । छन्द- त्रिष्टुप् ।]
9108
आ नो देवानामुप वेतु शंसो विश्वेभिस्तुरैरवसे यजत्रः ।
तेभिर्वयं सुषखायो भवेम तरन्तो विश्वा दुरिता स्याम॥1॥
ज्ञानी का सान्निध्य- लाभ लें उनसे सीखें हम भी ज्ञान ।
सत्कर्म बहुत ही आवश्यक है सम्पूर्ण तभी होता अभियान॥1॥
9109
परि चिन्मर्तो द्रविणं ममन्यादृतस्य पथा नमसा विवासेत् ।
उत स्वेन क्रतुना सं वदेत श्रेयांसं दक्षं मनसा जगृभ्यात्॥2॥
सत्पथ पर हम चलें निरन्तर हमको तुम देना धन - धान ।
चिन्तन के अनुरूप कर्म हो लक्ष्य-मात्र पर ही हो ध्यान॥2॥
9110
अधायि धीतिरससृग्रमंशास्तीर्थे न दस्ममुप यन्त्यूमा:।
अभ्यानश्म सुवितस्य शूषं नवेदसो अमृतानामभूम॥3॥
हे प्रभु रक्षा करो हमारी रोग - शोक से तुम्हीं बचाओ ।
हमको भी यश-वैभव दे दो आनन्द-पथ पर तुम पहुँचाओ॥3॥
9111
नित्यश्चाकन्यात् स्वपतिर्दमूना यस्मा उ देवः सविता जजान।
भगो वा गोभिरर्यमेमनज्यात्सो अस्मै चारुश्छदयदुत स्यात्॥4॥
विधि ने जग की रचना की है सुख के सँग हमें जीना है ।
पञ्चभूत भी सुख - स्वरूप हैं हमको सुख-अमृत पीना है॥4॥
9112
इयं सा भूया उषसामिव क्षा यध्द क्षुमन्तः शवसा समायन् ।
अस्य स्तुतिं जरितुर्भिक्षमाणा आ नःशग्मास उप यन्तु वाजा:॥5॥
सूरज उजियारा लेकर आता प्रतिदिन देता स्वर्णिम आलोक ।
वरद - हस्त हम पर रखना प्रभु रहे सुरक्षित यह भू-लोक ॥5॥
9113
अस्येदेषा सुमतिः पप्रथानाभवत्पूर्व्या भूमना गौः ।
अस्य सनीळा असुरस्य योनौ समान आ भरणे बिभ्रमाणा:॥6॥
प्रभु तुम पावन पूजनीय हो शुभ-संस्कृति का हो विस्तार ।
जन-कल्याण करें हम निशि-दिन जन-जन का नित हो सत्कार॥6॥
9114
किं स्विद्वनं क उ स वृक्ष आस यतो द्यावापृथिवी निष्टतक्षुः ।
संतस्थाने अजरे इतऊती अहानि पूर्वीरुषसो जरन्त ॥7॥
शस्य-श्यामला जन्म-भूमि यह जरा-रहित है करो हिसाब ।
दिवा-रात्रि इससे परिचित हैं यह आज भी है कोरी किताब॥7॥
9115
नैतावदेना परो अन्यदस्त्युक्षा स द्यावापृथिवी बिभर्ति ।
त्वचं पवित्रं कृणुत स्वधावान्यदीं सूर्यं न हरितो वदन्ति॥8॥
कैसे हुई धरा की रचना कहॉ से आए अन्न और धान।
इस अद्भुत अनुपम अवनि का है कौन धरा-सर्जक महान॥8॥
9116
स्तेगो न क्षामत्येति पृथ्वीं मिहं न वातो वि ह वाति भूम ।
मित्रो यत्र वरुणो अज्यमानोSग्निर्वने न व्यसृष्ट शोकम्॥9॥
धरती नीति - नेम से चलती पावन पुरवाई बहती है ।
सूर्य-किरण चहुँ ओर थिरकती कौतुक काव्य कथा कहती है॥9॥
9117
स्तरीर्यत्सूत सद्यो अज्यमाना व्यथिरव्यथीः कृणुत स्वगोपा ।
पुत्रो यत्पूर्वः पित्रोर्जनिष्ट शम्यां गौर्जगार यध्द पृच्छान् ॥10॥
बिन पीडा सृजन नहीं होता है फिर भी सृजन खुशी देता है ।
अनुष्ठान से तन-मन पकता पर समाधि-पथ पा लेता है॥10॥
9118
उत कण्वं नृषदः पुत्रमाहुरुत श्यावो धनमादत्त वाजी ।
प्र कृष्णाय रुशदपिन्वतोधरृतमत्र नकिरस्मा अपीपेत्॥11॥
अग्नि - देव की महिमा अद्भुत सबको देते हैं हवि-भोग ।
हम भी सदा बॉट-कर खायें यह सबसे उत्तम है योग॥11॥
9108
आ नो देवानामुप वेतु शंसो विश्वेभिस्तुरैरवसे यजत्रः ।
तेभिर्वयं सुषखायो भवेम तरन्तो विश्वा दुरिता स्याम॥1॥
ज्ञानी का सान्निध्य- लाभ लें उनसे सीखें हम भी ज्ञान ।
सत्कर्म बहुत ही आवश्यक है सम्पूर्ण तभी होता अभियान॥1॥
9109
परि चिन्मर्तो द्रविणं ममन्यादृतस्य पथा नमसा विवासेत् ।
उत स्वेन क्रतुना सं वदेत श्रेयांसं दक्षं मनसा जगृभ्यात्॥2॥
सत्पथ पर हम चलें निरन्तर हमको तुम देना धन - धान ।
चिन्तन के अनुरूप कर्म हो लक्ष्य-मात्र पर ही हो ध्यान॥2॥
9110
अधायि धीतिरससृग्रमंशास्तीर्थे न दस्ममुप यन्त्यूमा:।
अभ्यानश्म सुवितस्य शूषं नवेदसो अमृतानामभूम॥3॥
हे प्रभु रक्षा करो हमारी रोग - शोक से तुम्हीं बचाओ ।
हमको भी यश-वैभव दे दो आनन्द-पथ पर तुम पहुँचाओ॥3॥
9111
नित्यश्चाकन्यात् स्वपतिर्दमूना यस्मा उ देवः सविता जजान।
भगो वा गोभिरर्यमेमनज्यात्सो अस्मै चारुश्छदयदुत स्यात्॥4॥
विधि ने जग की रचना की है सुख के सँग हमें जीना है ।
पञ्चभूत भी सुख - स्वरूप हैं हमको सुख-अमृत पीना है॥4॥
9112
इयं सा भूया उषसामिव क्षा यध्द क्षुमन्तः शवसा समायन् ।
अस्य स्तुतिं जरितुर्भिक्षमाणा आ नःशग्मास उप यन्तु वाजा:॥5॥
सूरज उजियारा लेकर आता प्रतिदिन देता स्वर्णिम आलोक ।
वरद - हस्त हम पर रखना प्रभु रहे सुरक्षित यह भू-लोक ॥5॥
9113
अस्येदेषा सुमतिः पप्रथानाभवत्पूर्व्या भूमना गौः ।
अस्य सनीळा असुरस्य योनौ समान आ भरणे बिभ्रमाणा:॥6॥
प्रभु तुम पावन पूजनीय हो शुभ-संस्कृति का हो विस्तार ।
जन-कल्याण करें हम निशि-दिन जन-जन का नित हो सत्कार॥6॥
9114
किं स्विद्वनं क उ स वृक्ष आस यतो द्यावापृथिवी निष्टतक्षुः ।
संतस्थाने अजरे इतऊती अहानि पूर्वीरुषसो जरन्त ॥7॥
शस्य-श्यामला जन्म-भूमि यह जरा-रहित है करो हिसाब ।
दिवा-रात्रि इससे परिचित हैं यह आज भी है कोरी किताब॥7॥
9115
नैतावदेना परो अन्यदस्त्युक्षा स द्यावापृथिवी बिभर्ति ।
त्वचं पवित्रं कृणुत स्वधावान्यदीं सूर्यं न हरितो वदन्ति॥8॥
कैसे हुई धरा की रचना कहॉ से आए अन्न और धान।
इस अद्भुत अनुपम अवनि का है कौन धरा-सर्जक महान॥8॥
9116
स्तेगो न क्षामत्येति पृथ्वीं मिहं न वातो वि ह वाति भूम ।
मित्रो यत्र वरुणो अज्यमानोSग्निर्वने न व्यसृष्ट शोकम्॥9॥
धरती नीति - नेम से चलती पावन पुरवाई बहती है ।
सूर्य-किरण चहुँ ओर थिरकती कौतुक काव्य कथा कहती है॥9॥
9117
स्तरीर्यत्सूत सद्यो अज्यमाना व्यथिरव्यथीः कृणुत स्वगोपा ।
पुत्रो यत्पूर्वः पित्रोर्जनिष्ट शम्यां गौर्जगार यध्द पृच्छान् ॥10॥
बिन पीडा सृजन नहीं होता है फिर भी सृजन खुशी देता है ।
अनुष्ठान से तन-मन पकता पर समाधि-पथ पा लेता है॥10॥
9118
उत कण्वं नृषदः पुत्रमाहुरुत श्यावो धनमादत्त वाजी ।
प्र कृष्णाय रुशदपिन्वतोधरृतमत्र नकिरस्मा अपीपेत्॥11॥
अग्नि - देव की महिमा अद्भुत सबको देते हैं हवि-भोग ।
हम भी सदा बॉट-कर खायें यह सबसे उत्तम है योग॥11॥
शस्य-श्यामला जन्म-भूमि यह जरा-रहित है करो हिसाब ।
ReplyDeleteदिवा-रात्रि इससे परिचित हैं यह आज भी है कोरी किताब॥7॥
बहुत सुंदर भाव...बधाई !
सुन्दर अनुवाद।
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