Thursday 13 February 2014

सूक्त - 31

[ ऋषि- रक्षा कवच । देवता- विश्वेदेवा । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

9108
आ  नो  देवानामुप  वेतु  शंसो  विश्वेभिस्तुरैरवसे यजत्रः ।
तेभिर्वयं सुषखायो भवेम तरन्तो विश्वा दुरिता स्याम॥1॥

ज्ञानी  का  सान्निध्य- लाभ  लें उनसे सीखें हम भी ज्ञान ।
सत्कर्म बहुत ही आवश्यक है सम्पूर्ण तभी होता अभियान॥1॥

9109
परि चिन्मर्तो द्रविणं ममन्यादृतस्य पथा नमसा विवासेत् ।
उत स्वेन क्रतुना सं वदेत श्रेयांसं दक्षं मनसा जगृभ्यात्॥2॥

सत्पथ  पर हम चलें निरन्तर हमको तुम देना धन - धान ।
चिन्तन के अनुरूप कर्म हो लक्ष्य-मात्र पर ही हो ध्यान॥2॥

9110
अधायि  धीतिरससृग्रमंशास्तीर्थे  न  दस्ममुप  यन्त्यूमा:।
अभ्यानश्म  सुवितस्य  शूषं  नवेदसो  अमृतानामभूम॥3॥

हे  प्रभु  रक्षा  करो  हमारी  रोग -  शोक  से  तुम्हीं   बचाओ ।
हमको भी यश-वैभव दे दो आनन्द-पथ पर तुम पहुँचाओ॥3॥

9111
नित्यश्चाकन्यात्  स्वपतिर्दमूना  यस्मा  उ देवः सविता जजान।
भगो वा गोभिरर्यमेमनज्यात्सो अस्मै चारुश्छदयदुत स्यात्॥4॥

विधि  ने  जग  की  रचना  की  है  सुख  के  सँग  हमें  जीना  है ।
पञ्चभूत  भी  सुख - स्वरूप  हैं  हमको  सुख-अमृत पीना है॥4॥

9112
इयं  सा  भूया  उषसामिव  क्षा  यध्द क्षुमन्तः शवसा समायन् ।
अस्य स्तुतिं जरितुर्भिक्षमाणा आ नःशग्मास उप यन्तु वाजा:॥5॥

सूरज  उजियारा  लेकर  आता प्रतिदिन देता स्वर्णिम आलोक ।
वरद - हस्त  हम  पर  रखना प्रभु रहे सुरक्षित यह भू-लोक ॥5॥

9113
अस्येदेषा     सुमतिः     पप्रथानाभवत्पूर्व्या     भूमना     गौः ।
अस्य सनीळा असुरस्य योनौ समान आ भरणे बिभ्रमाणा:॥6॥

प्रभु  तुम  पावन  पूजनीय  हो  शुभ-संस्कृति  का  हो  विस्तार ।
जन-कल्याण करें हम निशि-दिन जन-जन का नित हो सत्कार॥6॥

9114
किं स्विद्वनं क उ स वृक्ष आस यतो द्यावापृथिवी निष्टतक्षुः ।
संतस्थाने अजरे  इतऊती  अहानि  पूर्वीरुषसो जरन्त ॥7॥

शस्य-श्यामला जन्म-भूमि यह जरा-रहित है  करो हिसाब । 
दिवा-रात्रि इससे परिचित हैं यह आज भी है कोरी किताब॥7॥

9115
नैतावदेना  परो  अन्यदस्त्युक्षा  स  द्यावापृथिवी  बिभर्ति ।
त्वचं पवित्रं कृणुत स्वधावान्यदीं सूर्यं न हरितो वदन्ति॥8॥

कैसे  हुई  धरा  की  रचना  कहॉ  से  आए  अन्न  और  धान।
इस अद्भुत अनुपम अवनि का है कौन धरा-सर्जक महान॥8॥

9116
स्तेगो न  क्षामत्येति पृथ्वीं मिहं न वातो वि  ह वाति भूम ।
मित्रो यत्र वरुणो अज्यमानोSग्निर्वने न व्यसृष्ट शोकम्॥9॥

धरती  नीति - नेम  से  चलती  पावन  पुरवाई  बहती  है ।
सूर्य-किरण चहुँ ओर थिरकती कौतुक काव्य कथा कहती है॥9॥

9117
स्तरीर्यत्सूत सद्यो अज्यमाना व्यथिरव्यथीः कृणुत स्वगोपा ।
पुत्रो यत्पूर्वः पित्रोर्जनिष्ट शम्यां गौर्जगार यध्द पृच्छान् ॥10॥

बिन  पीडा  सृजन  नहीं होता है फिर भी सृजन खुशी देता है ।
अनुष्ठान से तन-मन पकता पर समाधि-पथ पा लेता  है॥10॥

9118
उत  कण्वं  नृषदः  पुत्रमाहुरुत  श्यावो  धनमादत्त  वाजी ।
प्र कृष्णाय रुशदपिन्वतोधरृतमत्र नकिरस्मा अपीपेत्॥11॥

अग्नि - देव  की  महिमा  अद्भुत  सबको  देते हैं हवि-भोग ।
हम  भी  सदा  बॉट-कर खायें यह सबसे उत्तम है  योग॥11॥ 

 
  

2 comments:

  1. शस्य-श्यामला जन्म-भूमि यह जरा-रहित है करो हिसाब ।
    दिवा-रात्रि इससे परिचित हैं यह आज भी है कोरी किताब॥7॥

    बहुत सुंदर भाव...बधाई !

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