Tuesday, 11 February 2014

सूक्त - 33

[ऋषि- रक्षा कवच । देवता- विश्वेदेवा । छन्द- बृहती- गायत्री ।]

9128
प्र  मा  युयुज्रे  प्रयुजो  जनानां  वहामि  स्म  पूषणमन्तरेण ।
विश्वे देवासो अध मामरक्षन्दुःशासुरागादिति घोष आसीत्॥1॥

हम  सब  संरक्षित  हों  प्रभुवर  सत्पथ  पर  हमको चलना है ।
जन-कल्याण  हेतु  जीना  है गिर-कर  भी हमें संभलना है॥1॥

9129
सं      मा      तपन्त्यभितः     सपत्नीरिव      पर्शवः ।
नि बाधते अमतिर्नग्नता जसुर्वेर्न वेवीयते मतिः ॥2॥

विहग - सदृश  चञ्चल  मेरा  मन  दीन - दरिद्र  हुआ  जाता है ।
विविध-विधा से दुख पाता है निशि-दिन मुझको तडपाता है॥2॥

9130
मूषो न शिश्ना व्यदन्ति माध्यः स्तोतारं ते शतक्रतो ।
सकृत्सु नो मघवन्निन्द्र मृळयाधा पितेव नो भव ॥3॥

मन का दुख होता है भारी वह तन को जर्जर करता है ।
परमेश्वर है पिता हमारा वही हमारा दुख हरता है ॥3॥

9131
कुरुश्रवणमावृणि राजानं त्रासदस्यवम् ।
मंहिष्ठं                        वाघतामृषिः ॥4॥

मैं  द्रष्टा  हूँ  बल-शाली  हूँ  सत्संग  सदा  मैं  करता  हूँ ।
जन-कल्याण हेतु संग्रह कर मैं सबकी पीडा हरता हूँ॥4॥

9132
यस्य मा हरितो रथे तिस्त्रो वहन्ति साधुया ।  
स्तवै                              सहस्त्रदक्षिणे ॥5॥

परमेश्वर  तुम  ही  प्रणम्य  हो  दानी  को  धन  देते रहना ।
जगती को जिसका लाभ मिले वही प्रसाद ग्रहण करना॥5॥

9133
यस्य प्रस्वादसो गिर उपमश्रवसः पितुः ।
क्षेत्रं             न             रण्वममूचुषे ॥6॥

ऋषि तो समदर्शी होता है दुनियॉ  में  सब हैं एक समान ।
जन-हित है दायित्व उसी का करना है कर्तव्य महान॥6॥

9134
अधि पुत्रोपमश्रवो नपान्मित्रातिथेरिहि ।
पितुष्टे         अस्मि           वन्दिता ॥7॥

जगती  का  कल्याण  ज़रूरी  रखना है जन-जन का ध्यान ।
सभी सुखी हों सभी निरोगी जग में गूँजे संस्कृति महान॥7॥

9135
यदीशीयामृतानामुत वा   मर्त्यानाम्  ।
जीवेदिन्मघवा                     मम ॥8॥

प्रभु  मैं  भी  कुछ  दान  करूँ  जो  देता  है  वह  ही  पाता है ।
श्रुतियों  ने  भी  यही  कहा  है  लेन-देन  का यह नाता है॥8॥

9136
न देवानामति व्रतं शतात्मा कचन जीवति ।
तथा          युजा          वि          वावृते ॥9॥

जो अनुशासन  में  रहता  है  सुख  का  अमृत  वह  पीता  है । 
वह निश्चित शतायु होता है सुख-मय जीवन वह जीता है॥9॥     
   

2 comments:

  1. अनुशासन आधार बने, इस जीवन का।

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  2. मन का दुख होता है भारी वह तन को जर्जर करता है ।
    परमेश्वर है पिता हमारा वही हमारा दुख हरता है ॥3॥
    ....सार्थक सन्देश...अनुपम प्रस्तुति...

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