[ऋषि- रक्षा कवच । देवता- विश्वेदेवा । छन्द- बृहती- गायत्री ।]
9128
प्र मा युयुज्रे प्रयुजो जनानां वहामि स्म पूषणमन्तरेण ।
विश्वे देवासो अध मामरक्षन्दुःशासुरागादिति घोष आसीत्॥1॥
हम सब संरक्षित हों प्रभुवर सत्पथ पर हमको चलना है ।
जन-कल्याण हेतु जीना है गिर-कर भी हमें संभलना है॥1॥
9129
सं मा तपन्त्यभितः सपत्नीरिव पर्शवः ।
नि बाधते अमतिर्नग्नता जसुर्वेर्न वेवीयते मतिः ॥2॥
विहग - सदृश चञ्चल मेरा मन दीन - दरिद्र हुआ जाता है ।
विविध-विधा से दुख पाता है निशि-दिन मुझको तडपाता है॥2॥
9130
मूषो न शिश्ना व्यदन्ति माध्यः स्तोतारं ते शतक्रतो ।
सकृत्सु नो मघवन्निन्द्र मृळयाधा पितेव नो भव ॥3॥
मन का दुख होता है भारी वह तन को जर्जर करता है ।
परमेश्वर है पिता हमारा वही हमारा दुख हरता है ॥3॥
9131
कुरुश्रवणमावृणि राजानं त्रासदस्यवम् ।
मंहिष्ठं वाघतामृषिः ॥4॥
मैं द्रष्टा हूँ बल-शाली हूँ सत्संग सदा मैं करता हूँ ।
जन-कल्याण हेतु संग्रह कर मैं सबकी पीडा हरता हूँ॥4॥
9132
यस्य मा हरितो रथे तिस्त्रो वहन्ति साधुया ।
स्तवै सहस्त्रदक्षिणे ॥5॥
परमेश्वर तुम ही प्रणम्य हो दानी को धन देते रहना ।
जगती को जिसका लाभ मिले वही प्रसाद ग्रहण करना॥5॥
9133
यस्य प्रस्वादसो गिर उपमश्रवसः पितुः ।
क्षेत्रं न रण्वममूचुषे ॥6॥
ऋषि तो समदर्शी होता है दुनियॉ में सब हैं एक समान ।
जन-हित है दायित्व उसी का करना है कर्तव्य महान॥6॥
9134
अधि पुत्रोपमश्रवो नपान्मित्रातिथेरिहि ।
पितुष्टे अस्मि वन्दिता ॥7॥
जगती का कल्याण ज़रूरी रखना है जन-जन का ध्यान ।
सभी सुखी हों सभी निरोगी जग में गूँजे संस्कृति महान॥7॥
9135
यदीशीयामृतानामुत वा मर्त्यानाम् ।
जीवेदिन्मघवा मम ॥8॥
प्रभु मैं भी कुछ दान करूँ जो देता है वह ही पाता है ।
श्रुतियों ने भी यही कहा है लेन-देन का यह नाता है॥8॥
9136
न देवानामति व्रतं शतात्मा कचन जीवति ।
तथा युजा वि वावृते ॥9॥
जो अनुशासन में रहता है सुख का अमृत वह पीता है ।
वह निश्चित शतायु होता है सुख-मय जीवन वह जीता है॥9॥
9128
प्र मा युयुज्रे प्रयुजो जनानां वहामि स्म पूषणमन्तरेण ।
विश्वे देवासो अध मामरक्षन्दुःशासुरागादिति घोष आसीत्॥1॥
हम सब संरक्षित हों प्रभुवर सत्पथ पर हमको चलना है ।
जन-कल्याण हेतु जीना है गिर-कर भी हमें संभलना है॥1॥
9129
सं मा तपन्त्यभितः सपत्नीरिव पर्शवः ।
नि बाधते अमतिर्नग्नता जसुर्वेर्न वेवीयते मतिः ॥2॥
विहग - सदृश चञ्चल मेरा मन दीन - दरिद्र हुआ जाता है ।
विविध-विधा से दुख पाता है निशि-दिन मुझको तडपाता है॥2॥
9130
मूषो न शिश्ना व्यदन्ति माध्यः स्तोतारं ते शतक्रतो ।
सकृत्सु नो मघवन्निन्द्र मृळयाधा पितेव नो भव ॥3॥
मन का दुख होता है भारी वह तन को जर्जर करता है ।
परमेश्वर है पिता हमारा वही हमारा दुख हरता है ॥3॥
9131
कुरुश्रवणमावृणि राजानं त्रासदस्यवम् ।
मंहिष्ठं वाघतामृषिः ॥4॥
मैं द्रष्टा हूँ बल-शाली हूँ सत्संग सदा मैं करता हूँ ।
जन-कल्याण हेतु संग्रह कर मैं सबकी पीडा हरता हूँ॥4॥
9132
यस्य मा हरितो रथे तिस्त्रो वहन्ति साधुया ।
स्तवै सहस्त्रदक्षिणे ॥5॥
परमेश्वर तुम ही प्रणम्य हो दानी को धन देते रहना ।
जगती को जिसका लाभ मिले वही प्रसाद ग्रहण करना॥5॥
9133
यस्य प्रस्वादसो गिर उपमश्रवसः पितुः ।
क्षेत्रं न रण्वममूचुषे ॥6॥
ऋषि तो समदर्शी होता है दुनियॉ में सब हैं एक समान ।
जन-हित है दायित्व उसी का करना है कर्तव्य महान॥6॥
9134
अधि पुत्रोपमश्रवो नपान्मित्रातिथेरिहि ।
पितुष्टे अस्मि वन्दिता ॥7॥
जगती का कल्याण ज़रूरी रखना है जन-जन का ध्यान ।
सभी सुखी हों सभी निरोगी जग में गूँजे संस्कृति महान॥7॥
9135
यदीशीयामृतानामुत वा मर्त्यानाम् ।
जीवेदिन्मघवा मम ॥8॥
प्रभु मैं भी कुछ दान करूँ जो देता है वह ही पाता है ।
श्रुतियों ने भी यही कहा है लेन-देन का यह नाता है॥8॥
9136
न देवानामति व्रतं शतात्मा कचन जीवति ।
तथा युजा वि वावृते ॥9॥
जो अनुशासन में रहता है सुख का अमृत वह पीता है ।
वह निश्चित शतायु होता है सुख-मय जीवन वह जीता है॥9॥
अनुशासन आधार बने, इस जीवन का।
ReplyDeleteमन का दुख होता है भारी वह तन को जर्जर करता है ।
ReplyDeleteपरमेश्वर है पिता हमारा वही हमारा दुख हरता है ॥3॥
....सार्थक सन्देश...अनुपम प्रस्तुति...