[ऋषि- कृष्ण आङ्गिरस । देवता- इन्द्र । छन्द- जगती- त्रिष्टुप् ।]
9238
अच्छा म इन्द्रं मतयः स्वर्विदः सध्रीचीरर्विश्वा उशतीरनूषत ।
परि ष्वजन्ते जनयो यथा पतिं मर्यं न शुन्ध्युं मघवानमूतये॥1॥
हे प्रभु तुम्हीं आत्मबल देना ध्येय मेरा मुझको समझाना ।
पत्नी का आश्रय पति बनता वैसे ही तुम मेरे बन जाना ॥1॥
9239
न घा त्वद्रिगप वेति मे मनस्त्वे इत्कामं पुरुहूत शिश्रय ।
राजेव दस्म नि षदोSधि बर्हिष्यस्मिन्त्सु सोमेSवपानमस्तु ते॥2॥
हे पूजनीय हे परमेश्वर तुम मेरे मन में रहते हो ।
तुम ही मेरी अभिलाशा हो अब तुम्हीं कहो क्या कहते हो॥2॥
9240
विषूवृदिन्द्रो अमतेरुत क्षुधः स इद्रायो मघवा वस्व ईशते ।
तस्येदिमे प्रवणे सप्त सिन्धवो वयो वर्धन्ति वृषभस्य शुष्मिणः॥3॥
प्रभु तुम सदा अन्न-धन देना मेरे आस-पास ही रहना ।
तुम यश-वैभव के मालिक हो तुम सदा हमारी रक्षा करना॥3॥
9241
वयो न वृक्षं सुपलाशमासदन्त्सोमास इन्द्रं मन्दिनश्चमूषदः।
प्रैषामनीकं शवसा दविद्युतद्विदत्स्व1र्मनवे ज्योतिरार्यम्॥4॥
पंछी पेडों पर पलना पाते आदित्य-देव आलोक लुटाते ।
यह सब कुछ कितना सुन्दर है सूर्य-देवता तमस मिटाते॥4॥
9242
कृतं न श्वघ्नी वि चिनोति देवने संवर्ग यन्मघवा सूर्यं जयत्।
न तत्ते अन्यो अनु वीर्यं शकन्न पुराणो मघवन्नोत नूतनः॥5॥
सूर्य - देव संस्कार सिखाते वे कर्म-योग का पाठ पढाते ।
रिमझिम बरसात वही देते हैं आत्मीय मान वे हीअपनाते॥5॥
9243
विशंविशं मघवा पर्यशायत जनानां धेना अवचाकशद्वृषा ।
यस्याह शक्रःसवनेषु रण्यति स तीव्रैःसोमैःसहते पृतन्यतः॥6॥
प्रभु तुम जन-जन में बसते हो हम सबकी बातें सुनते हो ।
षड्-रिपु से तुम हमें बचाते सबका सुख गुनते बुनते हो॥6॥
9244
आपो न सिन्धुमभि यत्समक्षरन्त्सोमास इन्द्रं कुल्याइव हृदम्।
वर्धन्ति विप्रा महो अस्य सादने यवं न वृष्टिर्दिव्येन दानुना॥7॥
रिमझिम फुहार हरियाली लाती अन्न-फूल-फल हम पाते हैं ।
सरितायें सागर में जाती हैं प्रभु ही सबको अपनाते हैं ॥7॥
9245
वृषा न क्रुध्दः पतयद्रजः स्वा यो अर्यपत्नीरकृणोदिमा अपः ।
स सुन्वते मघवा जीरदानवेSविन्दज्ज्योतिर्मनवे हविष्मते॥8॥
कर्म-योग की गरिमा अद्भुत सब कुछ संभव हो जाता है ।
उद्देश्य मनुज को मिल जाता है सत्कर्मों का फल पाता है॥8॥
9246
उज्जायतां परशुरर्ज्योतिषा सह भूया ऋतस्य सुदुघा पुराणवत्।
वि रोचतामरुषो भानुना शुचिः स्व1र्ण शुक्रं शुशुचीत सत्पतिः॥9॥
कर्म - योग के शाश्वत - विग्रह आदित्य - देव अति अद्भुत हैं ।
वह आराम नहीं करते हैं निशि-दिन सेवा में प्रस्तुत हैं ॥9॥
9247
गोभिष्टरेमामतिं दुरेवां यवेन क्षुधं पुरुहूत विश्राम ।
वयं राजभिः प्रथमा धनान्यस्माकेन वृजनेना जयेम ॥10॥
हे वाक् - देवी हमको वर दो हम भी वाणी का वैभव पायें ।
जीवन-में सत्कर्म करें प्रभु हम भी वेद-ऋचा को गायें॥10॥
9248
बृहस्पतिर्नः परि पातु पश्चादुतोत्तरस्मादधरादघायोः ।
इन्द्रः पुरस्तादुत मध्यतो नः सखा सखिभ्यो वरिवः कृणोतु॥11॥
हमें सुरक्षा देना प्रभु वर तुम्हीं मात्र हो मीत हमारे ।
धन-वैभव देते रहना प्रभु हम सेवक है सदा तुम्हारे ॥11॥
9238
अच्छा म इन्द्रं मतयः स्वर्विदः सध्रीचीरर्विश्वा उशतीरनूषत ।
परि ष्वजन्ते जनयो यथा पतिं मर्यं न शुन्ध्युं मघवानमूतये॥1॥
हे प्रभु तुम्हीं आत्मबल देना ध्येय मेरा मुझको समझाना ।
पत्नी का आश्रय पति बनता वैसे ही तुम मेरे बन जाना ॥1॥
9239
न घा त्वद्रिगप वेति मे मनस्त्वे इत्कामं पुरुहूत शिश्रय ।
राजेव दस्म नि षदोSधि बर्हिष्यस्मिन्त्सु सोमेSवपानमस्तु ते॥2॥
हे पूजनीय हे परमेश्वर तुम मेरे मन में रहते हो ।
तुम ही मेरी अभिलाशा हो अब तुम्हीं कहो क्या कहते हो॥2॥
9240
विषूवृदिन्द्रो अमतेरुत क्षुधः स इद्रायो मघवा वस्व ईशते ।
तस्येदिमे प्रवणे सप्त सिन्धवो वयो वर्धन्ति वृषभस्य शुष्मिणः॥3॥
प्रभु तुम सदा अन्न-धन देना मेरे आस-पास ही रहना ।
तुम यश-वैभव के मालिक हो तुम सदा हमारी रक्षा करना॥3॥
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वयो न वृक्षं सुपलाशमासदन्त्सोमास इन्द्रं मन्दिनश्चमूषदः।
प्रैषामनीकं शवसा दविद्युतद्विदत्स्व1र्मनवे ज्योतिरार्यम्॥4॥
पंछी पेडों पर पलना पाते आदित्य-देव आलोक लुटाते ।
यह सब कुछ कितना सुन्दर है सूर्य-देवता तमस मिटाते॥4॥
9242
कृतं न श्वघ्नी वि चिनोति देवने संवर्ग यन्मघवा सूर्यं जयत्।
न तत्ते अन्यो अनु वीर्यं शकन्न पुराणो मघवन्नोत नूतनः॥5॥
सूर्य - देव संस्कार सिखाते वे कर्म-योग का पाठ पढाते ।
रिमझिम बरसात वही देते हैं आत्मीय मान वे हीअपनाते॥5॥
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विशंविशं मघवा पर्यशायत जनानां धेना अवचाकशद्वृषा ।
यस्याह शक्रःसवनेषु रण्यति स तीव्रैःसोमैःसहते पृतन्यतः॥6॥
प्रभु तुम जन-जन में बसते हो हम सबकी बातें सुनते हो ।
षड्-रिपु से तुम हमें बचाते सबका सुख गुनते बुनते हो॥6॥
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आपो न सिन्धुमभि यत्समक्षरन्त्सोमास इन्द्रं कुल्याइव हृदम्।
वर्धन्ति विप्रा महो अस्य सादने यवं न वृष्टिर्दिव्येन दानुना॥7॥
रिमझिम फुहार हरियाली लाती अन्न-फूल-फल हम पाते हैं ।
सरितायें सागर में जाती हैं प्रभु ही सबको अपनाते हैं ॥7॥
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वृषा न क्रुध्दः पतयद्रजः स्वा यो अर्यपत्नीरकृणोदिमा अपः ।
स सुन्वते मघवा जीरदानवेSविन्दज्ज्योतिर्मनवे हविष्मते॥8॥
कर्म-योग की गरिमा अद्भुत सब कुछ संभव हो जाता है ।
उद्देश्य मनुज को मिल जाता है सत्कर्मों का फल पाता है॥8॥
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उज्जायतां परशुरर्ज्योतिषा सह भूया ऋतस्य सुदुघा पुराणवत्।
वि रोचतामरुषो भानुना शुचिः स्व1र्ण शुक्रं शुशुचीत सत्पतिः॥9॥
कर्म - योग के शाश्वत - विग्रह आदित्य - देव अति अद्भुत हैं ।
वह आराम नहीं करते हैं निशि-दिन सेवा में प्रस्तुत हैं ॥9॥
9247
गोभिष्टरेमामतिं दुरेवां यवेन क्षुधं पुरुहूत विश्राम ।
वयं राजभिः प्रथमा धनान्यस्माकेन वृजनेना जयेम ॥10॥
हे वाक् - देवी हमको वर दो हम भी वाणी का वैभव पायें ।
जीवन-में सत्कर्म करें प्रभु हम भी वेद-ऋचा को गायें॥10॥
9248
बृहस्पतिर्नः परि पातु पश्चादुतोत्तरस्मादधरादघायोः ।
इन्द्रः पुरस्तादुत मध्यतो नः सखा सखिभ्यो वरिवः कृणोतु॥11॥
हमें सुरक्षा देना प्रभु वर तुम्हीं मात्र हो मीत हमारे ।
धन-वैभव देते रहना प्रभु हम सेवक है सदा तुम्हारे ॥11॥
उदात्त और संयमित जीवनशैली
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