[ऋषि- घोषा काक्षीवती । देवता- अश्विनीकुमार । छन्द- जगती - त्रिष्टुप् ।]
9196
यो वां परिज्मा सुवृदश्विना रथो दोषामुषासो हव्यो हविष्मता ।
शश्वत्तमासस्तमु वामिदं वयं पितुर्न नाम सुवहं हवामहे ॥1॥
जो सत्कर्म सदा करता है वह जन-प्रिय हो ही जाता है ।
जनता मुरीद हो जाती है जन-जन का प्यार वही पाता है॥1॥
9197
चोदयतं सूनृता: पिन्वतं धिय उत्पुरन्धीरीरयतं तदुश्मसि ।
यशसं भागं कृणुतं नो अश्विना सोमं न चारुं मघवत्सु नस्कृतम्॥2॥
हम सम्भाषण- शैली सीखें जो कर दे मन-मति की व्याख्या ।
ज्ञान प्राप्त कर बनें यशस्वी कह दें कर्म-योग की आख्या ॥2॥
9198
अमाजुरश्चिद्भवथो युवं भगोSनाशोश्चिदवितारापमस्य चित् ।
अन्धस्य चिन्नासत्या कृशस्य चिद्युवामिदाहुर्भिषजा रुतस्य चित्॥3॥
वैद्य रोग से हमें बचाता सबकी पीडा वह हरता है ।
सबका दुख वह दूर भगाता वह सबकी सेवा करता है ॥3॥
9199
युवं च्यवानं सनयं यथा रथं पुनर्युवानं चरथाय चक्षथुः ।
निष्टौग्रयमूहथुरभ्दय्स्परि विश्वेत्ता वां सवनेषु प्रवाच्या॥4॥
तुम औषधियों के ज्ञाता हो रोगी को स्वस्थ बनाते हो ।
नव-जीवन पाती जर्जर-काया जन-जन को अपनाते हो॥4॥
9200
पुराणा वां वीर्या3 प्र ब्रवा जनेSथो हासथुर्भिषजा मयोभुवा ।
ता वां नु नव्याववसे करामहेSयं नासत्या श्रदरिर्यथा दधत्॥5॥
साक्षी हैं सत्कर्म तुम्हारे तुम अनुभवी चिकित्सक हो ।
हमें सहारा देना भगवन तुम सबके शुभ-चिन्तक हो ॥5॥
9201
इयं वामह्वे शृणुतं मे अश्विना पुत्रायेव पितरा मह्यं शिक्षतम्।
अनापिरज्ञा असजात्यामतिः पुरा तस्या अभिशस्तेरव स्पृतम्॥6॥
जग में मेरा नहीं है कोई तुम ही हो मेरे प्राण - अधार ।
ज्ञान - ध्यान मैं नहीं जानती जीवन - नैया कर दो पार ॥6॥
9202
युवं रथेन विमदाय शुन्ध्युवं न्यूहथुः पुरुमित्रस्य योषणाम् ।
यवं हवं वध्रिमत्या अगच्छतं युवं सुषुतिं चक्रथुः पुरन्धये॥7॥
वैद्य-राज है प्रभु का प्रतिनिधि नर हो या नारी सभी समान ।
प्रसव- वेदना के अवसर पर तू उसको देव-दूत ही मान॥7॥
9203
युवं विप्रस्य जरणामुपेयुषः पुनः कलेरकृणुतं युवद्वयः।
युवं वन्दनमृश्यदादुदूपथुत्युवं सद्यो विश्पलामेतवे कृथः ॥8॥
कितनों का काया-कल्प किया है औषधि का अद्भुत अनुभव है।
कैसा भी क्यों न असाध्य रोग हो औषधि में बल अभिनव है॥8॥
9204
युवं ह रेभं वृषणा गुहा हितमुदैरयतं ममृवांसमश्विना ।
युवमृबीसमुत तप्तमत्रय ओमन्वन्तं चक्रथुः सप्तवध्रये॥॥9॥
अत्रि - रेभ नामक ऋषियों को तुमने ही असुरों से बचाया ।
वैद्य-राज तुम सुख-वर्षक हो मति-ज्वर पर भी काबू पाया॥9॥
9205
युवं श्वेतं पेदवेSश्विनाश्वं नवभिर्वाजैर्नवती च वाजिनम् ।
चर्कृत्यं ददथुर्द्रावयत्सखं भगं न नृभ्यो हव्यं मयोभुवम्॥10॥
ओ औषधि अन्वेषक आओ मानव-तन को सबल बनाओ ।
यश- वैभव दे दो प्रभु हमको रोग-शोक से हमें बचाओ ॥10॥
9206
न तं राजानावदिते कुतश्चन नांहो अश्नोति दुरितं नकिर्भयम् ।
यमश्विना सुहवा रुद्रवर्तनी पुरोरथं कृणुथः पत्न्या सह ॥11॥
सँग तेरा सबको सुख - कर है तेरी महिमा सब गाते हैं ।
आधि-व्याधि से हमें बचाना तुझ में अपना-पन पाते हैं॥11॥
9207
आ तेन यातं मनसो जवीयसा रथं यं वामृभवश्चक्रुरश्विना ।
यस्य योगे दुहिता जायते दिव उभे अहनी सुदिने विवस्वतः॥12॥
आदित्य - देव आलोक - प्रदाता अंधकार से वही बचाता ।
विश्राम - हेतु अवसर देता है कर्म-योग का पाठ-पढाता ॥12॥
9208
ता वर्तियातं जयुषा वि पर्वतमपिन्वतं शयवे धेनुमश्विना ।
वृकस्य चिद्वर्तिकामन्तरास्यादद्युवं शचीभिर्ग्रसितामममुञ्चतम्॥13॥
तुमने सबका कल्याण किया है मेरा भी तुम रखना ध्यान ।
सदा सुरक्षा देना प्रभुवर सात्विक हो मेरा खान-पान ॥13॥
9209
एतं वा स्तोममश्विनावकर्मातक्षाम भृगवो न रथम् ।
न्यमृक्षाम योषणां न मर्ये नित्यं न सूनुं तनयं दधाना:॥14॥
पर-हित है प्रभु ध्येय तुम्हारा मुझको भी यह देना ज्ञान ।
वरद-हस्त रखना प्रभु मुझ पर जीवन बन जाए वरदान॥14॥
9196
यो वां परिज्मा सुवृदश्विना रथो दोषामुषासो हव्यो हविष्मता ।
शश्वत्तमासस्तमु वामिदं वयं पितुर्न नाम सुवहं हवामहे ॥1॥
जो सत्कर्म सदा करता है वह जन-प्रिय हो ही जाता है ।
जनता मुरीद हो जाती है जन-जन का प्यार वही पाता है॥1॥
9197
चोदयतं सूनृता: पिन्वतं धिय उत्पुरन्धीरीरयतं तदुश्मसि ।
यशसं भागं कृणुतं नो अश्विना सोमं न चारुं मघवत्सु नस्कृतम्॥2॥
हम सम्भाषण- शैली सीखें जो कर दे मन-मति की व्याख्या ।
ज्ञान प्राप्त कर बनें यशस्वी कह दें कर्म-योग की आख्या ॥2॥
9198
अमाजुरश्चिद्भवथो युवं भगोSनाशोश्चिदवितारापमस्य चित् ।
अन्धस्य चिन्नासत्या कृशस्य चिद्युवामिदाहुर्भिषजा रुतस्य चित्॥3॥
वैद्य रोग से हमें बचाता सबकी पीडा वह हरता है ।
सबका दुख वह दूर भगाता वह सबकी सेवा करता है ॥3॥
9199
युवं च्यवानं सनयं यथा रथं पुनर्युवानं चरथाय चक्षथुः ।
निष्टौग्रयमूहथुरभ्दय्स्परि विश्वेत्ता वां सवनेषु प्रवाच्या॥4॥
तुम औषधियों के ज्ञाता हो रोगी को स्वस्थ बनाते हो ।
नव-जीवन पाती जर्जर-काया जन-जन को अपनाते हो॥4॥
9200
पुराणा वां वीर्या3 प्र ब्रवा जनेSथो हासथुर्भिषजा मयोभुवा ।
ता वां नु नव्याववसे करामहेSयं नासत्या श्रदरिर्यथा दधत्॥5॥
साक्षी हैं सत्कर्म तुम्हारे तुम अनुभवी चिकित्सक हो ।
हमें सहारा देना भगवन तुम सबके शुभ-चिन्तक हो ॥5॥
9201
इयं वामह्वे शृणुतं मे अश्विना पुत्रायेव पितरा मह्यं शिक्षतम्।
अनापिरज्ञा असजात्यामतिः पुरा तस्या अभिशस्तेरव स्पृतम्॥6॥
जग में मेरा नहीं है कोई तुम ही हो मेरे प्राण - अधार ।
ज्ञान - ध्यान मैं नहीं जानती जीवन - नैया कर दो पार ॥6॥
9202
युवं रथेन विमदाय शुन्ध्युवं न्यूहथुः पुरुमित्रस्य योषणाम् ।
यवं हवं वध्रिमत्या अगच्छतं युवं सुषुतिं चक्रथुः पुरन्धये॥7॥
वैद्य-राज है प्रभु का प्रतिनिधि नर हो या नारी सभी समान ।
प्रसव- वेदना के अवसर पर तू उसको देव-दूत ही मान॥7॥
9203
युवं विप्रस्य जरणामुपेयुषः पुनः कलेरकृणुतं युवद्वयः।
युवं वन्दनमृश्यदादुदूपथुत्युवं सद्यो विश्पलामेतवे कृथः ॥8॥
कितनों का काया-कल्प किया है औषधि का अद्भुत अनुभव है।
कैसा भी क्यों न असाध्य रोग हो औषधि में बल अभिनव है॥8॥
9204
युवं ह रेभं वृषणा गुहा हितमुदैरयतं ममृवांसमश्विना ।
युवमृबीसमुत तप्तमत्रय ओमन्वन्तं चक्रथुः सप्तवध्रये॥॥9॥
अत्रि - रेभ नामक ऋषियों को तुमने ही असुरों से बचाया ।
वैद्य-राज तुम सुख-वर्षक हो मति-ज्वर पर भी काबू पाया॥9॥
9205
युवं श्वेतं पेदवेSश्विनाश्वं नवभिर्वाजैर्नवती च वाजिनम् ।
चर्कृत्यं ददथुर्द्रावयत्सखं भगं न नृभ्यो हव्यं मयोभुवम्॥10॥
ओ औषधि अन्वेषक आओ मानव-तन को सबल बनाओ ।
यश- वैभव दे दो प्रभु हमको रोग-शोक से हमें बचाओ ॥10॥
9206
न तं राजानावदिते कुतश्चन नांहो अश्नोति दुरितं नकिर्भयम् ।
यमश्विना सुहवा रुद्रवर्तनी पुरोरथं कृणुथः पत्न्या सह ॥11॥
सँग तेरा सबको सुख - कर है तेरी महिमा सब गाते हैं ।
आधि-व्याधि से हमें बचाना तुझ में अपना-पन पाते हैं॥11॥
9207
आ तेन यातं मनसो जवीयसा रथं यं वामृभवश्चक्रुरश्विना ।
यस्य योगे दुहिता जायते दिव उभे अहनी सुदिने विवस्वतः॥12॥
आदित्य - देव आलोक - प्रदाता अंधकार से वही बचाता ।
विश्राम - हेतु अवसर देता है कर्म-योग का पाठ-पढाता ॥12॥
9208
ता वर्तियातं जयुषा वि पर्वतमपिन्वतं शयवे धेनुमश्विना ।
वृकस्य चिद्वर्तिकामन्तरास्यादद्युवं शचीभिर्ग्रसितामममुञ्चतम्॥13॥
तुमने सबका कल्याण किया है मेरा भी तुम रखना ध्यान ।
सदा सुरक्षा देना प्रभुवर सात्विक हो मेरा खान-पान ॥13॥
9209
एतं वा स्तोममश्विनावकर्मातक्षाम भृगवो न रथम् ।
न्यमृक्षाम योषणां न मर्ये नित्यं न सूनुं तनयं दधाना:॥14॥
पर-हित है प्रभु ध्येय तुम्हारा मुझको भी यह देना ज्ञान ।
वरद-हस्त रखना प्रभु मुझ पर जीवन बन जाए वरदान॥14॥
स्वस्थ शरीर, स्वस्थ कर्म, स्वप्रिय, सर्वप्रिय।
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