Wednesday, 5 February 2014

सूक्त - 39

[ऋषि- घोषा काक्षीवती । देवता- अश्विनीकुमार । छन्द- जगती - त्रिष्टुप् ।]

9196
यो वां परिज्मा सुवृदश्विना रथो दोषामुषासो हव्यो हविष्मता ।
शश्वत्तमासस्तमु  वामिदं  वयं  पितुर्न  नाम सुवहं हवामहे ॥1॥

जो  सत्कर्म  सदा  करता  है  वह  जन-प्रिय  हो  ही  जाता  है ।
जनता  मुरीद  हो जाती है जन-जन का प्यार वही पाता है॥1॥

9197
चोदयतं  सूनृता:  पिन्वतं  धिय  उत्पुरन्धीरीरयतं   तदुश्मसि ।
यशसं भागं कृणुतं नो अश्विना सोमं न चारुं मघवत्सु नस्कृतम्॥2॥

हम  सम्भाषण- शैली  सीखें  जो  कर  दे  मन-मति  की  व्याख्या ।
ज्ञान  प्राप्त  कर  बनें  यशस्वी  कह  दें  कर्म-योग  की  आख्या ॥2॥

9198
अमाजुरश्चिद्भवथो   युवं   भगोSनाशोश्चिदवितारापमस्य   चित् ।
अन्धस्य चिन्नासत्या कृशस्य चिद्युवामिदाहुर्भिषजा रुतस्य चित्॥3॥

वैद्य   रोग   से   हमें   बचाता   सबकी  पीडा   वह  हरता  है ।
सबका  दुख  वह  दूर भगाता  वह सबकी सेवा करता है ॥3॥

9199
युवं  च्यवानं  सनयं  यथा  रथं  पुनर्युवानं चरथाय चक्षथुः ।
निष्टौग्रयमूहथुरभ्दय्स्परि  विश्वेत्ता  वां सवनेषु प्रवाच्या॥4॥

तुम औषधियों  के  ज्ञाता  हो  रोगी  को  स्वस्थ  बनाते हो ।
नव-जीवन पाती जर्जर-काया जन-जन को अपनाते हो॥4॥

9200
पुराणा  वां  वीर्या3  प्र  ब्रवा  जनेSथो हासथुर्भिषजा मयोभुवा ।
ता वां नु नव्याववसे करामहेSयं नासत्या श्रदरिर्यथा दधत्॥5॥

साक्षी  हैं  सत्कर्म  तुम्हारे  तुम  अनुभवी  चिकित्सक  हो ।
हमें  सहारा  देना  भगवन  तुम सबके शुभ-चिन्तक हो ॥5॥

9201
इयं  वामह्वे  शृणुतं  मे  अश्विना  पुत्रायेव  पितरा  मह्यं  शिक्षतम्।
अनापिरज्ञा असजात्यामतिः पुरा तस्या अभिशस्तेरव स्पृतम्॥6॥

जग  में  मेरा  नहीं  है  कोई  तुम  ही  हो  मेरे  प्राण - अधार ।
ज्ञान - ध्यान मैं नहीं जानती जीवन - नैया  कर  दो पार ॥6॥

9202
युवं  रथेन  विमदाय शुन्ध्युवं न्यूहथुः पुरुमित्रस्य योषणाम् ।
यवं हवं वध्रिमत्या अगच्छतं युवं सुषुतिं चक्रथुः पुरन्धये॥7॥

वैद्य-राज  है  प्रभु का प्रतिनिधि नर हो या नारी सभी समान ।
प्रसव- वेदना  के  अवसर  पर  तू उसको देव-दूत ही मान॥7॥

9203
युवं   विप्रस्य   जरणामुपेयुषः   पुनः   कलेरकृणुतं   युवद्वयः।
युवं वन्दनमृश्यदादुदूपथुत्युवं सद्यो विश्पलामेतवे कृथः ॥8॥

कितनों का काया-कल्प किया है औषधि का अद्भुत अनुभव है।
कैसा भी क्यों न असाध्य रोग हो औषधि में बल अभिनव है॥8॥

9204
युवं  ह  रेभं  वृषणा  गुहा   हितमुदैरयतं   ममृवांसमश्विना ।
युवमृबीसमुत  तप्तमत्रय  ओमन्वन्तं चक्रथुः सप्तवध्रये॥॥9॥

अत्रि - रेभ  नामक  ऋषियों  को  तुमने ही असुरों से बचाया ।
वैद्य-राज तुम सुख-वर्षक हो मति-ज्वर पर भी काबू पाया॥9॥

9205
युवं  श्वेतं  पेदवेSश्विनाश्वं  नवभिर्वाजैर्नवती  च  वाजिनम् ।
चर्कृत्यं ददथुर्द्रावयत्सखं भगं न नृभ्यो हव्यं मयोभुवम्॥10॥

ओ औषधि अन्वेषक आओ मानव-तन  को  सबल बनाओ ।
यश- वैभव दे दो प्रभु हमको रोग-शोक से हमें बचाओ ॥10॥

9206
न तं राजानावदिते कुतश्चन नांहो अश्नोति दुरितं नकिर्भयम् ।
यमश्विना  सुहवा  रुद्रवर्तनी पुरोरथं कृणुथः पत्न्या सह ॥11॥

सँग  तेरा  सबको  सुख - कर  है  तेरी  महिमा  सब  गाते हैं ।
आधि-व्याधि से हमें बचाना तुझ में अपना-पन पाते हैं॥11॥

9207
आ  तेन  यातं  मनसो  जवीयसा  रथं  यं  वामृभवश्चक्रुरश्विना ।
यस्य योगे दुहिता जायते दिव उभे अहनी सुदिने विवस्वतः॥12॥

आदित्य - देव  आलोक - प्रदाता  अंधकार  से  वही  बचाता ।
विश्राम - हेतु अवसर देता है कर्म-योग का पाठ-पढाता ॥12॥

9208
ता  वर्तियातं  जयुषा  वि  पर्वतमपिन्वतं  शयवे  धेनुमश्विना ।
वृकस्य चिद्वर्तिकामन्तरास्यादद्युवं शचीभिर्ग्रसितामममुञ्चतम्॥13॥

तुमने  सबका  कल्याण  किया  है मेरा भी तुम रखना ध्यान ।
सदा  सुरक्षा  देना  प्रभुवर  सात्विक  हो मेरा खान-पान ॥13॥ 

9209
एतं   वा   स्तोममश्विनावकर्मातक्षाम   भृगवो   न   रथम्  ।
न्यमृक्षाम योषणां न मर्ये नित्यं न सूनुं तनयं  दधाना:॥14॥

पर-हित  है  प्रभु  ध्येय तुम्हारा मुझको भी यह देना ज्ञान ।
वरद-हस्त रखना प्रभु मुझ पर जीवन बन जाए वरदान॥14॥        
         

1 comment:

  1. स्वस्थ शरीर, स्वस्थ कर्म, स्वप्रिय, सर्वप्रिय।

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