[ऋषि- विमद ऐन्द्र । देवता- पूषा । छन्द- अनुष्टुप्- उष्णिक् ।]
9040
प्र ह्यच्छा मनीषा: स्पार्हा यन्ति नियुतः ।
प्र दस्त्रा नियुद्रथः पूषा अविष्टु माहिनः॥1॥
विविध-विधा से भाव हमारे परमेश्वर तक आते-जाते हैं ।
वह प्रभु प्रेम-भाव का पूजक भाव में बहकर ही आते हैं॥1॥
9041
यस्य त्यन्महित्वं वाताप्यमनं जनः ।
विप्र आ वंसध्दीतिभिश्चिकेत सुष्टुतीनाम्॥2॥
जगती-ध्वनि में ही ज्ञानी जन परमेश्वर की छवि पाते हैं ।
प्रभु सम्प्रेषण के माध्यम से प्रेम परस्पर पहुँचाते हैं॥2॥
9042
स वेद सुष्टुतीनामिन्दुर्म पूषा वृषा ।
अभि प्सुरः प्रुषायति व्रजं न आ पप्रुषायति॥3॥
सोम-सदृश वह सुख देता है प्रेम की करता है बरसात ।
हम पर दया-दृष्टि रखता है बतलाता है अपनी बात॥3॥
9043
मंसीमहि त्वा वयमस्माकं देव पूषन् ।
मतीनां च साधनं विप्राणां चाधवम्॥4॥
मन-मति की महिमा न्यारी प्रगति-पन्थ का वह पाथेय ।
वही सारथी मेरे रथ का वह ही तय करता है ध्येय ॥4॥
9044
प्रत्यर्धिर्यज्ञानामश्वहयो रथानाम् ।
ऋषिः स यो मनुर्हितो विप्रस्य यावयत्सखः॥5॥
जो जन सबका हित करता है वह जन ही ऋषि कहलाता है।
वह सबको सखा समझता है सुख संदेश-सदृश आता है॥5॥
9045
आधीषमाणाया: पतिः शुचायाश्च शुचस्य च ।
वासोवायोSवीनामा वासांसि मर्मृजत् ॥6॥
परमेश्वर हम सबका रक्षक है रखता सदा हमारा ध्यान ।
सुख-कर साधन वह देता है पोषण करता पिता समान॥6॥
9046
इनो वाजानां पतिरिनः पुष्टीनां सखा ।
प्र श्मश्रु हर्यतो दूधोद्वि वृथा यो अदाभ्यः॥7॥
परमेश्वर जगती का पालक वह अति - शय बलशाली है ।
पर सबकी रक्षा करता है जग के उपवन का माली है ॥7॥
9047
आ ते रथस्य पूषन्नजा धुरं ववृत्युः।
विश्वस्यार्थिनः सखा सनोजा अनपच्युतः॥8॥
जग की एक-एक गतिविधि का अन्वेषण अति आवश्यक है।
मन में अतिशय कौतूहल है इसकी वेग-विधा व्यापक है ॥8॥
9048
अस्माकमूर्जा रथं पूषा अविष्टु माहिनः ।
भुवद्वाजानां वृध इमं नः शृणवध्दवम्॥9॥
प्रभु मेरा अभिप्राय समझ लो तन-मन से हमें समर्थ बनाओ।
सान्निध्य सहारा मुझे चाहिए तुम मन की पुकार बन जाओ॥9॥
9040
प्र ह्यच्छा मनीषा: स्पार्हा यन्ति नियुतः ।
प्र दस्त्रा नियुद्रथः पूषा अविष्टु माहिनः॥1॥
विविध-विधा से भाव हमारे परमेश्वर तक आते-जाते हैं ।
वह प्रभु प्रेम-भाव का पूजक भाव में बहकर ही आते हैं॥1॥
9041
यस्य त्यन्महित्वं वाताप्यमनं जनः ।
विप्र आ वंसध्दीतिभिश्चिकेत सुष्टुतीनाम्॥2॥
जगती-ध्वनि में ही ज्ञानी जन परमेश्वर की छवि पाते हैं ।
प्रभु सम्प्रेषण के माध्यम से प्रेम परस्पर पहुँचाते हैं॥2॥
9042
स वेद सुष्टुतीनामिन्दुर्म पूषा वृषा ।
अभि प्सुरः प्रुषायति व्रजं न आ पप्रुषायति॥3॥
सोम-सदृश वह सुख देता है प्रेम की करता है बरसात ।
हम पर दया-दृष्टि रखता है बतलाता है अपनी बात॥3॥
9043
मंसीमहि त्वा वयमस्माकं देव पूषन् ।
मतीनां च साधनं विप्राणां चाधवम्॥4॥
मन-मति की महिमा न्यारी प्रगति-पन्थ का वह पाथेय ।
वही सारथी मेरे रथ का वह ही तय करता है ध्येय ॥4॥
9044
प्रत्यर्धिर्यज्ञानामश्वहयो रथानाम् ।
ऋषिः स यो मनुर्हितो विप्रस्य यावयत्सखः॥5॥
जो जन सबका हित करता है वह जन ही ऋषि कहलाता है।
वह सबको सखा समझता है सुख संदेश-सदृश आता है॥5॥
9045
आधीषमाणाया: पतिः शुचायाश्च शुचस्य च ।
वासोवायोSवीनामा वासांसि मर्मृजत् ॥6॥
परमेश्वर हम सबका रक्षक है रखता सदा हमारा ध्यान ।
सुख-कर साधन वह देता है पोषण करता पिता समान॥6॥
9046
इनो वाजानां पतिरिनः पुष्टीनां सखा ।
प्र श्मश्रु हर्यतो दूधोद्वि वृथा यो अदाभ्यः॥7॥
परमेश्वर जगती का पालक वह अति - शय बलशाली है ।
पर सबकी रक्षा करता है जग के उपवन का माली है ॥7॥
9047
आ ते रथस्य पूषन्नजा धुरं ववृत्युः।
विश्वस्यार्थिनः सखा सनोजा अनपच्युतः॥8॥
जग की एक-एक गतिविधि का अन्वेषण अति आवश्यक है।
मन में अतिशय कौतूहल है इसकी वेग-विधा व्यापक है ॥8॥
9048
अस्माकमूर्जा रथं पूषा अविष्टु माहिनः ।
भुवद्वाजानां वृध इमं नः शृणवध्दवम्॥9॥
प्रभु मेरा अभिप्राय समझ लो तन-मन से हमें समर्थ बनाओ।
सान्निध्य सहारा मुझे चाहिए तुम मन की पुकार बन जाओ॥9॥
सुन्दर..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सूक्तियां एवं बहुत उत्कृष्ट अनुवाद. आप बड़ा काम कर रही हैं , बहुत बधाई आपको ..
ReplyDeleteजग की एक-एक गतिविधि का अन्वेषण अति आवश्यक है।
ReplyDeleteमन में अतिशय कौतूहल है इसकी वेग-विधा व्यापक है ॥8॥
यह आश्चर्य और कौतुहल ही जीवन को रसमय बनाता है