[ऋषि- विमद ऐन्द्र । देवता- अग्नि । छन्द- गायत्री-एकपदा विराट्-अनुष्टुप्-विराट्--त्रिष्टुप्।]
8983
भद्रं नो अपि वातय मनः ॥1॥
अग्नि - देव अति तेजस्वी हैं करते हैं सबका कल्याण ।
सत्पथ पर हम चलें निरंतर जब तक है इस तन में प्राण॥1॥
8984
अग्निमीळे भुजां यवविष्ठं शासा मित्रं दुर्धरीतुम् ।
यस्य धर्मन्त्स्व1 रेनीः सपर्यन्ति मातुरूधः॥2॥
हे अग्निदेव तुम आ जाओ ग्रहण करो लो हविष्यान्न ।
तुम हम सबकी रक्षा करना हमको भी देना धन-धान॥2॥
8985
यमासा कृपनीळं भासाकेतुं वर्धयन्ति । भ्राजते श्रेणिदन्॥3॥
दुष्ट - दमन अति आवश्यक है सज्जन को प्रभु आश्रय देना ।
तुम ही हम सबके रक्षक हो अपने-पन से अपना लेना ॥॥3॥
8986
अर्यो विशां गातुरेति प्र यदानड् दिवो अन्तान्।कविरभ्रं दीद्यानः॥4॥
हे अग्नि-देव तुम ही प्रणम्य हो आओ ग्रहण करो हवि भोग ।
जग का कल्याण तुम्हीं करते हो यही कर्म है यही है योग॥4॥
8987
जुषध्दव्या मानुषस्योर्ध्वस्तस्थावृभ्वा यज्ञे।मिन्वन्त्सद्म पुर एति॥5॥
अग्नि - देव हवि - भोग बॉटते जग को देते हैं अनुदान ।
यह हवि-भोग महा-औषधि है यह है अद्भुत सुधा-समान॥5॥
8988
स हि क्षेमो हविर्यज्ञः श्रुष्टीदस्य गातुरेति।अग्निं देवा वाशीमन्तम्॥6॥
हे अग्नि - देव आवाहन है तुम सब देवों के सँग आओ ।
सबको हवि-भोग खिलाओ भगवन फिर प्रसाद तुम भी पाओ॥6॥
8989
यज्ञासाहं दुव इषेSग्निं पूर्वस्य शेवस्य। अद्रेः सूनुमायुमाहुः॥7॥
पावन - पावक पूजनीय हो रोग - शोक सबका हर लेना ।
तुम हवि-भाग वहन करते हो सबको सुख-मय जीवन देना॥7॥
8990
नरो ये के चास्मदा वविश्वेत्ते वाम आ स्युः।अग्निं हविषा वर्धन्तः॥8॥
हे अग्नि - देव यश - वैभव देना सुख-सन्तति देना भर-पूर ।
हे प्रभु तुम ही रक्षा करना कभी न हमसे होना दूर ॥8॥
8991
कृष्णः श्वेतोSरुसषो यामो अस्य ब्रध्न ऋज्र उत शोणो यशस्वान्।
हिरण्यरूपं जनिता जजान॥9॥
हे प्रभु पावक पूज्य हमारे जल थल नभ है तेरा धाम ।
सागर में तुम ही बडवानल जंगल में दावानल नाम॥9॥
8992
एवा ते अग्ने विमदो मनीषामूर्जो नपादमृतेभिः सजोषा: ।
गिर आ वक्षत्सुमतीरियान इषमूर्जं सुक्षितिं विश्वमाभा:॥10॥
पावन-पावक तुम प्रणम्य हो तुम हो सुधा-सदृश सुख - धाम ।
अन्न - धान तुम देना प्रभु-वर तुमको बारम्बार प्रणाम ॥10॥
8983
भद्रं नो अपि वातय मनः ॥1॥
अग्नि - देव अति तेजस्वी हैं करते हैं सबका कल्याण ।
सत्पथ पर हम चलें निरंतर जब तक है इस तन में प्राण॥1॥
8984
अग्निमीळे भुजां यवविष्ठं शासा मित्रं दुर्धरीतुम् ।
यस्य धर्मन्त्स्व1 रेनीः सपर्यन्ति मातुरूधः॥2॥
हे अग्निदेव तुम आ जाओ ग्रहण करो लो हविष्यान्न ।
तुम हम सबकी रक्षा करना हमको भी देना धन-धान॥2॥
8985
यमासा कृपनीळं भासाकेतुं वर्धयन्ति । भ्राजते श्रेणिदन्॥3॥
दुष्ट - दमन अति आवश्यक है सज्जन को प्रभु आश्रय देना ।
तुम ही हम सबके रक्षक हो अपने-पन से अपना लेना ॥॥3॥
8986
अर्यो विशां गातुरेति प्र यदानड् दिवो अन्तान्।कविरभ्रं दीद्यानः॥4॥
हे अग्नि-देव तुम ही प्रणम्य हो आओ ग्रहण करो हवि भोग ।
जग का कल्याण तुम्हीं करते हो यही कर्म है यही है योग॥4॥
8987
जुषध्दव्या मानुषस्योर्ध्वस्तस्थावृभ्वा यज्ञे।मिन्वन्त्सद्म पुर एति॥5॥
अग्नि - देव हवि - भोग बॉटते जग को देते हैं अनुदान ।
यह हवि-भोग महा-औषधि है यह है अद्भुत सुधा-समान॥5॥
8988
स हि क्षेमो हविर्यज्ञः श्रुष्टीदस्य गातुरेति।अग्निं देवा वाशीमन्तम्॥6॥
हे अग्नि - देव आवाहन है तुम सब देवों के सँग आओ ।
सबको हवि-भोग खिलाओ भगवन फिर प्रसाद तुम भी पाओ॥6॥
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यज्ञासाहं दुव इषेSग्निं पूर्वस्य शेवस्य। अद्रेः सूनुमायुमाहुः॥7॥
पावन - पावक पूजनीय हो रोग - शोक सबका हर लेना ।
तुम हवि-भाग वहन करते हो सबको सुख-मय जीवन देना॥7॥
8990
नरो ये के चास्मदा वविश्वेत्ते वाम आ स्युः।अग्निं हविषा वर्धन्तः॥8॥
हे अग्नि - देव यश - वैभव देना सुख-सन्तति देना भर-पूर ।
हे प्रभु तुम ही रक्षा करना कभी न हमसे होना दूर ॥8॥
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कृष्णः श्वेतोSरुसषो यामो अस्य ब्रध्न ऋज्र उत शोणो यशस्वान्।
हिरण्यरूपं जनिता जजान॥9॥
हे प्रभु पावक पूज्य हमारे जल थल नभ है तेरा धाम ।
सागर में तुम ही बडवानल जंगल में दावानल नाम॥9॥
8992
एवा ते अग्ने विमदो मनीषामूर्जो नपादमृतेभिः सजोषा: ।
गिर आ वक्षत्सुमतीरियान इषमूर्जं सुक्षितिं विश्वमाभा:॥10॥
पावन-पावक तुम प्रणम्य हो तुम हो सुधा-सदृश सुख - धाम ।
अन्न - धान तुम देना प्रभु-वर तुमको बारम्बार प्रणाम ॥10॥
हे प्रभु पावक पूज्य हमारे जल थल नभ है तेरा धाम ।
ReplyDeleteसागर में तुम ही बडवानल जंगल में दावानल नाम॥9॥
हमारे भीतर जठराग्नि के रूप में भी तुम्हीं हो...नमन तुम्हें !
उत्कृष्ट अनुवाद
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