Wednesday, 19 February 2014

सूक्त - 25

[ऋषि- विमद ऐन्द्र । देवता- सोम । छन्द- आस्तार पंक्ति ।]

9029
भद्रं नो अपि वातय मनो दक्षमुत क्रतुम् ।
अधा ते सख्ये अन्धसो वि वो मदे रणन्गावो न यवसे विवक्षसे॥1॥

मेरे  आनन्द - पूर्ण  प्रभु  मुझको  दे  दो  सुन्दर  तन  और  मन ।
सुख-सान्निध्य सुखद मिल जाए मिल जाए तुमसे अपनापन॥1॥

9030
हृदिस्पृशस्त आसते विश्वेषु सोम धामसु ।
अधा कामा इमे मम वि वो मदे तिष्ठन्ते वसूयवो विवक्षसे ॥2॥

प्रभु  तेरी  महिमा  अपार  है  मेरी  सेवा  स्वीकार  करो ।
मात्र तुम्हीं  मेरे  अपने हो अक्षत-चन्दन माथ-धरो ॥2॥ 

9031
उत व्रतानि सोम ते प्राहं मिनामि पाक्या ।
अधा पितेव सूनवे वि वो मदे मृळा नो अभि चिद्वधाद्विवक्षसे॥3॥

तेरे  प द - चिन्हों  पर  चलकर  हम  सदा  बढायें  मान  तेरा ।
सबका कल्याण तुम्हीं करते हो स्वीकार करो हवि-भाग मेरा॥3॥

9032
समु प्र यन्ति धीतयः सर्गासोSवतॉ इव ।
क्रतुं नः सोम जीवसे वि वो मदे धारया चमसॉ इव विवक्षसे ॥4॥

प्रभु  समझो  सम्प्रेषण  मेरा  कर्म - योग  का  दे दो ज्ञान ।
तुम महान हो पिता सभी के सबका रखना पूरा ध्यान ॥4॥

9033
तव त्ये सोम शक्तिभिर्निकामासो व्यृण्विरे ।
गृत्सस्य धीरास्तवसो वि वो मदे व्रजं गोमन्तमश्विनं विवक्षसे॥5॥

यह जीवन व्यर्थ न हो जाए तुम ही सत्पथ पर ले चलना ।
मेरा ध्यान सदा रखना प्रभु मनो-कामना पूरी करना ॥5॥

9034
पशुं नः सोम रक्षसि पुरुत्रा विष्ठितं जगत् ।
समाकृणोषि जीवसे वि वो मदे विश्वा सम्पश्यन्भुवना विवक्षसे॥6॥

हे  प्रभु  रक्षा  करो  हमारी  तुम  सबकी  रक्षा करते हो ।
अन्न-धान सबको देते हो तुम सबकी पीडा हरते हो॥6॥

9035
त्वं नः सोम विश्वतो गोपा अदाभ्यो भव ।
सेध राजन्नप स्त्रिधो वि वो मदे मा नो दुःशंस ईशिता विवक्षसे॥7॥

हे  सोम - देव तुम सुधा-सदृश हो सदा हमारी रक्षा करना ।
रिपु-दल से तुम हमें बचाना मन का ताप तुम्हीं हरना॥7॥

9036
त्वं नः सोम सुक्रतुर्वयोधेयाय जागृहि ।
क्षेत्रवित्तरो मनुषो वि वो मदे द्रुहो नः पाह्यंहसो विवक्षसे॥8॥

तुम  ही  हम सबके आश्रय हो हम खेती करके पायें धान ।
अति-अद्भुत है महिमा तेरी अति-अद्भुत है कर्म महान॥8॥

9037
त्वं नो वृत्रहन्तमेन्द्रस्येन्दो शिवः सखा ।
यत्सीं हवन्ते समिथे वि वो मदे युध्यमानास्तोकसातौ विवक्षसे॥9॥

तुम  ही  मेरे  सखा - सदृश  हो  बन  जाते  हो  सदा - सहायक ।
जन-कल्याण सदा करते हो महिमा-मण्डित हो जन-नायक ॥9॥

9038
अयं घ स तुरो मद इन्द्रस्य वर्धत प्रियः ।
अयं कक्षीवतो महो वि वो मदे मतिं विप्रस्य वर्धयद्विवक्षसे॥10॥

अति  व्यापक  है  वेग  तुम्हारा  सभी  जीव  के सखा तुम्हीं हो ।
तुम ही सबको सुख देते हो सबके शुभ-चिन्तक तुम ही हो॥10॥

9039
अयं विप्राय दाशुषे वाजॉ इयर्ति गोमतः ।
अयं सप्तभ्य आ वरं वि वो मदे प्रान्धं श्रोणं च तारिषद्विवक्षसे॥11॥

खेती से अन्न-धान मिल जाए गो-रस भी मिल जाए सुख-कर ।
मुझे  लक्ष्य  तक  पहुँचाना प्रभु मुझ पर सदा अनुग्रह कर ॥11॥     

1 comment:

  1. यह जीवन व्यर्थ न हो जाए तुम ही सत्पथ पर ले चलना ।
    मेरा ध्यान सदा रखना प्रभु मनो-कामना पूरी करना ॥5॥

    करणीय प्रार्थना..सुंदर भाव !

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