[ऋषि- गौरिवीति शाक्त्य । देवता- इन्द्र । छन्द- त्रिष्टुप् ।]
9586
वसूनां वा चर्कृष इयक्षन्धिया वा यज्ञैर्वा रोदस्यो: ।
अर्वन्तो वा ये रयिमन्तःसातौ वनुं वा ये सुश्रुणं सुश्रुतो धुः॥1॥
जो चाहिए उसी का दान करो यह है उपासना-मूल-मन्त्र ।
बिना दान कुछ नहीं मिलेगा यह सिखलाते हैं सभी तन्त्र॥1॥
9587
हव एषामसुरो नक्षत द्यां श्रवस्यता मनसा निंसत क्षाम् ।
चक्षाणा यत्र सुविताय देवा द्यौर्न वारेभिः कृणवन्त स्वैः॥2॥
हमारी कर्म-भूमि वसुधा है जो जितना समर्थ उतना पाता है।
आकाश शब्द धारण करता है नभ प्रकाश से भर जाता है ॥2॥
9588
इयमेषाममृतानां गीः सर्वताता ये कृपणन्त रत्नम् ।
धियं च यज्ञं च साधन्तस्ते नो धान्तु वसव्य1मसामि ॥3॥
हे प्रभु तुम सुख-साधन देना नमन तुम्हें हम करते हैं ।
निर्विघ्न यज्ञ पूजन हो जाए यही प्रार्थना हम करते हैं॥3॥
9589
आ तत्त इन्द्रायवः पनन्ताभि य ऊर्वं गोमन्तं तितृत्सान् ।
सकृत्स्वं1 ये पुरुपुत्रां महीं सहस्त्रधारां बृहतीं दुदुक्षन् ॥4॥
वनस्पतियों से भरी है धरती अन्न शाक और फल देती है ।
कर्मानुरूप यश- वैभव देती यह सबको अपना लेती है ॥4॥
9590
शचीव इन्द्रमवसे कृणुध्वमनानतं दमयन्तं पृतन्यून् ।
ऋभुक्षणं मघवानं सुवृक्तिं भर्ता यो वज्रं नर्यं पुरुक्षुः ॥5॥
हे प्रभु तुम कुछ ऐसा करना हमें राजा मिल जाए बलशाली।
रहे सुरक्षित देश हमारा राष्ट्र बने फिर गौरवशाली ॥5॥
9591
यद्वावान पुरुतमं पुराषाळा वृत्रहेन्द्रो नामान्यप्रा: ।
अचेति प्रासहस्पतिस्तुविष्मान्यदीमुश्मसि कर्तवे करत्तत्॥6॥
दुष्ट - दमन अति आवश्यक है जनता की रक्षा बहुत ज़रूरी।
नृप में शौर्य-धैर्य दोनों हो जन-जन की इच्छा हो पूरी ॥6॥
9586
वसूनां वा चर्कृष इयक्षन्धिया वा यज्ञैर्वा रोदस्यो: ।
अर्वन्तो वा ये रयिमन्तःसातौ वनुं वा ये सुश्रुणं सुश्रुतो धुः॥1॥
जो चाहिए उसी का दान करो यह है उपासना-मूल-मन्त्र ।
बिना दान कुछ नहीं मिलेगा यह सिखलाते हैं सभी तन्त्र॥1॥
9587
हव एषामसुरो नक्षत द्यां श्रवस्यता मनसा निंसत क्षाम् ।
चक्षाणा यत्र सुविताय देवा द्यौर्न वारेभिः कृणवन्त स्वैः॥2॥
हमारी कर्म-भूमि वसुधा है जो जितना समर्थ उतना पाता है।
आकाश शब्द धारण करता है नभ प्रकाश से भर जाता है ॥2॥
9588
इयमेषाममृतानां गीः सर्वताता ये कृपणन्त रत्नम् ।
धियं च यज्ञं च साधन्तस्ते नो धान्तु वसव्य1मसामि ॥3॥
हे प्रभु तुम सुख-साधन देना नमन तुम्हें हम करते हैं ।
निर्विघ्न यज्ञ पूजन हो जाए यही प्रार्थना हम करते हैं॥3॥
9589
आ तत्त इन्द्रायवः पनन्ताभि य ऊर्वं गोमन्तं तितृत्सान् ।
सकृत्स्वं1 ये पुरुपुत्रां महीं सहस्त्रधारां बृहतीं दुदुक्षन् ॥4॥
वनस्पतियों से भरी है धरती अन्न शाक और फल देती है ।
कर्मानुरूप यश- वैभव देती यह सबको अपना लेती है ॥4॥
9590
शचीव इन्द्रमवसे कृणुध्वमनानतं दमयन्तं पृतन्यून् ।
ऋभुक्षणं मघवानं सुवृक्तिं भर्ता यो वज्रं नर्यं पुरुक्षुः ॥5॥
हे प्रभु तुम कुछ ऐसा करना हमें राजा मिल जाए बलशाली।
रहे सुरक्षित देश हमारा राष्ट्र बने फिर गौरवशाली ॥5॥
9591
यद्वावान पुरुतमं पुराषाळा वृत्रहेन्द्रो नामान्यप्रा: ।
अचेति प्रासहस्पतिस्तुविष्मान्यदीमुश्मसि कर्तवे करत्तत्॥6॥
दुष्ट - दमन अति आवश्यक है जनता की रक्षा बहुत ज़रूरी।
नृप में शौर्य-धैर्य दोनों हो जन-जन की इच्छा हो पूरी ॥6॥
जो चाहिए उसी का दान करो यह है उपासना-मूल-मन्त्र ।
ReplyDeleteबिना दान कुछ नहीं मिलेगा यह सिखलाते हैं सभी तन्त्र॥1॥
जो देगा वह ही पायेगा