Wednesday 18 December 2013

सूक्त - 87

[ऋषि- पायु भारद्वाज । देवता- रक्षोहा अग्नि । छन्द- त्रिष्टुप् - अनुष्टुप् ।]

9737
रक्षोहणं वाजिनमा जिघर्मि मित्रं प्रथिष्ठमुप यामि शर्म ।
शिशानो अग्निःक्रतुभि:समिध्दःस नो दिवा स रिषःपातु नक्तम्॥1॥

हम सज्जन से मित्रता निभाते और दुष्ट के लिए काल हैं ।
हे अग्निदेव तुम रक्षा करना हम पथ के पावन-प्रवाल हैं॥1॥

9738
अयोदंष्ट्रो अर्चिषा  यातुधानानुप  स्पृश जातवेदः समिध्दः ।
आ जिह्वया मूरदेवान्रभस्व क्रव्यादो व्रक्त्व्यपि धत्स्वासन्॥2॥

हे  प्रभु  हमें  नीरोग  बनाओ  तन-मन  की  हर  पीडा हर लो ।
आरोग्य प्रदान करो हमको आत्मीय समझ कर अपना लो॥2॥

9739
उभोभयाविन्नुप   धेहि   दंष्ट्रा   हिंस्त्रः   शिशानोSवरं   परं  च ।
उतान्तरिक्षे परि याहि राजञ्जम्भैः सं धेह्यभि यातुधानान्॥3॥

विध्वंस  और  रचना  दोनों  ही  बडी  कुशलता  से  करते  हो ।
अन्तरिक्ष  में  तुम्हीं  चमकते  तुम  रोगों से रक्षा करते हो॥3॥

9740
यज्ञैरिषूः  संनममानो  अग्ने  वाचा  शल्यॉं  अशनिभिर्दिहानः ।
ताभिर्विध्य हृदये यातुधानान् प्रतीचो बाहून्प्रति भङ्ध्येषाम्॥4॥

सतत  सुरक्षा  तुम  देते  हो रिपु - दल  का  तुम  बल  हरते  हो ।
उत्तम  स्वास्थ्य  तुम्हीं  देते  हो  प्रेरक बन-कर बल भरते हो॥4॥

9741
अग्ने  त्वचं  यातुधानस्य  भिन्धि हिंस्त्राशनिर्हरसा  हन्त्वेनम् ।
प्र पर्वाणि जातवेदः शृणीहि क्रव्यात्क्रविष्णुर्वि चिनोतु वृक्णम्॥5॥

मनुज-देह में जठर-अग्नि बन तन को सदा स्वस्थ रखते हो ।
तन-रोगाणु-मुक्त करते हो आरोग्य प्रदान तुम्हीं करते हो॥5॥

9742
यत्रेदानीं  पश्यसि  जातवेदस्तिष्ठन्तमग्न  उत  वा  चरन्तम् ।
यद्वान्तरिक्षे पथिभिः पतन्तं तमस्ता विध्य शर्वा शिशानः॥6॥

जो भी अशुभ तुम्हें दिखता हो उसको शीघ्र भस्म कर देना ।
हम सबकी तुम रक्षा करना तुम शुभ का पोषण कर लेना॥6॥

9743
उतालब्धं   स्पृणुहि   जातवेद   आलेभानादृष्टिभिर्यातुधानात् ।
अग्ने पूर्वो नि जहि शोशुचान आमादःक्ष्विङ्कास्तमदन्त्वेनीः॥7॥

दुनियॉं  के  इस  महाजाल  से  हे  प्रभु  तुम  ही  हमें बचाना ।
अपने कुछ गुण हमें भी देना सदा सत्य पथ पर ले जाना॥7॥

9744
इह प्र ब्रूहि यतम: सो अग्ने यो यातुधानो य इदं कृणोति ।
तमा रभस्व समिधा यविष्ठ नृचक्षसश्चक्षुषे रन्धयैनम्॥8॥

विघ्न-विनाशक तुम हो प्रभु-वर सत्कर्मों का पाठ-पढाना।
मेरा  सब  अवगुण हर लेना असुरों से तुम हमें बचाना॥8॥

9745
तीक्ष्णेनाग्ने चक्षुषा रक्ष यज्ञं प्राञ्चं वसुभ्यः प्र णय प्रचेतः।
हिंस्त्रं रक्षांस्यभि शोशुचानं मा त्वा दभन्यातुधाना नृचक्षः॥9॥

अन्न-धान हमको देना प्रभु सदा सुरक्षित तुम रखना ।
तुम असुरों के संहारक हो हम सबकी रक्षा करना ॥9॥

9746
नृचक्षा रक्षः परि पश्य विक्षु तस्य त्रीणि  प्रति  शृणीह्यग्रा।
तस्याग्ने पृष्टीर्हरसा शृणीहि त्रेधा मूलं यातुधानस्य वृश्च॥10॥

जगती  से  असुरत्व  मिटा  दो  सज्जन का प्रतिपाल करो ।
हे अग्नि-देव तुम समर्थ हो हवि-भोग मेरा स्वीकार करो॥10॥

9747
त्रिर्यातुधानं प्रसितिं त एत्वृतं यो अग्ने अनृतेन हन्ति ।
तमर्चिषा स्फूर्जयञ्जातवेद: समक्षमेनं गृणते नि वृङ्धि॥11॥

रोग - शोक  से  बचे  रहें  हम  ऐसी  युक्ति  हमें  बतलाओ ।
सत-पथ पर ही चलें निरंतर वही रीति हमको समझाओ॥11॥

9748
तदग्ने चक्षु: प्रति धेहि रेभे शफारुजं येन पश्यसि ययातुधानम् ।
अथर्ववज्ज्योतिषा   दैव्येन  सत्यं  धूर्वन्तमचितं  न्योष ॥12॥

असत  से  जहॉं  सत्य  कुम्हलाये  हे  प्रभु  तुम  ही रक्षा करना ।
शीघ्रातिशीघ्र तुम दंडित करना तुम सज्जन का दुख हरना॥12॥

9749
यदग्ने   अद्य   मिथुना   शपातो   यद्वाचस्तुष्टं   जनयन्त   रेभा: ।
मन्योर्मनसःशरव्या3 जायते या तया विध्य हृदये यातुधानान्॥13॥

प्रतिवाद परस्पर करें पुरुष जब तुम्हीं उन्हें सत्पथ बतलाना ।
नीति- नेम की बात सिखाना जीवन की शैली समझाना ॥13॥

9750
परा शृणीहि तपसा यातुधानान्पराग्ने रक्षो हरसा शृणीहि ।
परार्चिषा मूरदेवाञ्छृणीहि परासुतृपो अभि शोशुचानः॥14॥

अरजकता यदि राज करेगी जनता निरीह पिस जाएगी ।
सिंहासन पर जब सज्जन बैठे तब ही जनता मुस्काएगी॥14॥

9751
पराद्य  देवा  वृजिनं  शृणन्तु  प्रत्यगेनं  शपथा  यन्तु  तृष्टा: ।
वाचास्तेनं शरव ऋच्छन्तु मर्मन्विश्वस्यैतु प्रसितिं यातुधानः॥15॥

दुष्ट - दमन  करते  रहना  प्रभु  सज्जन  को  सुख देते रहना ।
भटके मानुष को राह दिखाना तुम ही उसकी पीडा हरना ॥15॥

9752
यः पौरुषेयेण क्रविषा समङ्क्ते यो अश्व्येन पशुना यातुधानः ।
यो अघ्न्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च॥16॥

अकारण जो हिंसा करते हैं जो गो-धन की हत्या करते हैं ।
इन लोगों को दण्डित करना जो गाय को भूखी रखते हैं॥16॥

9753
संवत्सरीणं पय उस्त्रियायासस्तस्य माशीद्यातुधानो नृचक्षः।
पीयूषमग्ने यतमस्तितृप्सात्तं प्रयञ्चमर्चिषा विध्य मर्मन्॥17॥

हिंसक  को  गो - धन  मत  देना उसको शुभ-चंतन दे देना ।
तुम उसको सत्पथ दिखलाना और उसे भी अपना लेना॥17॥

9754
विषं गवां यातुधाना: पिबन्त्वा वृश्च्यन्तामदितये दुरेवा ।
परैनान्देवः सविता ददातु परा भागमोषधीनां जयन्ताम्॥18॥

कर्तव्य-कर्म क्या हो कैसा हो हे प्रभु हमें तुम्हीं समझाना ।
दुर्जन को दण्डित करना फिर सत्य-धर्म उसको बतलाना॥18॥

9755
सनादग्ने मृणसि यातुधानान्न त्वा रक्षांसि पृतनासु जिग्युः।
अनु दह सहमूरान्क्रव्यादो मा ते हेत्या मुक्षत दैव्याया:॥19॥

हे  अग्नि - देवता  हे  बलशाली सदाचार तुम ही सिखलाना ।
भूल से भी कोई भूल न हो अब तुम ही सन्मार्ग दिखाना॥19॥

9756
त्वं  नो  अग्ने  अधरादुदक्तात्त्वं  पश्चादुत  रक्षा  पुरस्तात् ।
प्रति ते ते अ अजरासस्तपिष्ठा अघशंसं शोशुचतो दहन्तु॥20॥

दशों - दिशा  से  हम रक्षित हों भगवन वरद - हस्त रखना ।
प्रभु पावक-पावन प्रणम्य हो मुझ पर सतत कृपा करना॥20॥

9757
पश्चात्पुरस्तादधरादुदक्तात्कविः काव्येन परि पाहि राजन्।
सखे सखायमजरो जरिम्णेSग्ने मर्तॉं अमर्त्यस्त्वं नः॥21॥

सम्पूर्ण  विश्व  की  रक्षा  करना  पृथ्वी  ही है मेरा परिवार ।
दीर्घ-आयु  देना  तुम  प्रभुवर  धरती  है  मेरा घर-बार॥21॥

9758
परि त्वाग्ने पुरं वयं विप्रं सहस्य धीमहि ।
धृषद्वर्णं दिवेदिवे हन्तारं भङ्गुरावताम्॥22॥

हे अग्नि-देव गुण के निधान हो शुभ-शुभ कर्मों का दो दान।
मेरे अवगुन ले लो भगवन करते हैं आज यही आह्वान॥22॥

9759
विषेण  भङ्गुरावतः  प्रति  ष्म  रक्षसो  दह ।
अग्ने तिग्मेन शोचिषा तपुरग्राभिरृष्टिभिः॥23॥

विध्वंसक असुरों को हे भगवन तुम दण्डित करते रहना ।
सज्जन की तुम रक्षा करना सदा-सदा पोषण करना॥23॥

9760
प्रत्यग्ने  मिथुना  दह  यातुधाना  किमीदिना ।
सं त्वा शिशामि जागृह्यदब्धं विप्र मन्मभिः॥24॥

नर- नारी  दोनों  समान  हैं आपस  का  मत-भेद भगायें ।
वे एक-दूजे के पूरक हैं मिल-जुल कर कर्तव्य निभायें॥24॥

9761
प्रत्यग्ने  हरसा  हरः शृणीहि  विश्वतः प्रति ।
यातुधानस्य रक्षसो बलं वि रुज वीर्यम्॥25॥

पर - पीडा  में  जो  रत  रहते  उनको  है  सत्पथ  पर  लाना ।
जीवन परहित हेतु मिला है यही सत्य सबको समझाना॥25॥              
                 

5 comments:

  1. जीवन भेद विभेद का विश्लेषण करती सूक्त सुप्रभात संग लागी

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  2. रोग - शोक से बचे रहें हम ऐसी युक्ति हमें बतलाओ ।
    सत-पथ पर ही चलें निरंतर वही रीति हमको समझाओ॥11॥

    कितनी सुंदर प्रार्थनाये हैं ये...आभार!

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  3. ऊर्जा चक्रों में सतत बहती रहे।

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  4. प्रत्येक श्लोक विचारणीय...

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