Saturday, 1 March 2014

सूक्त - 16

[ऋषि- दमन यामायन । देवता- अग्नि । छन्द- त्रिष्टुप्- अनुष्टुप् ।]

8933
मैनमग्ने वि दहो माभि शोचो मास्य त्वचं चिक्षिपो मा शरीरम्।
यदा   शृतं   कृणवो  जातवेदोSथेमेनं  प्र  हिणुतात्पितृभ्यः ॥1॥

जब हम देह त्याग करते हैं कर्मों का फल हम सब पाते है ।
सब कुछ नष्ट नहीं होता है आत्मा सँग फिर आ जाते हैं॥1॥

8934
शृतं  यदा  करसि  जातवेदोSथेमेनं  परि  दत्तात्पितृभ्यः ।
यदा गच्छात्यसुनीतिमेतामथा देवानां वशनीर्भवाति॥2॥

कर्म - प्रधान  जगत  की  रचना कर्मानुरूप मिलता है भोग ।
जन्म अनेक मिले हैं हमको अविरल चलता है विनियोग॥2॥

8935
सूर्यं  चक्षुर्गच्छतु  वातमात्मा द्यां च गच्छ पृथिवीं च धर्मणा ।
अपो वा गच्छ यदि तत्र ते हितमोषधीषु प्रति तिष्ठा शरीरैः॥3॥

जब  जीव  देह  तज  देता  है  वह पञ्च - तत्व में होता लीन ।
कर्मानुसार नव-जीवन  पाता भोग में होता फिर तल्लीन॥3॥

8936
अजो भागस्तपसा तं तपस्व तं  ते  शोचिस्तपतु तं ते अर्चिः ।
यास्ते शिवास्तन्वो जातवेदस्ताभिर्वहैनं सुकृतामु लोकम्॥4॥

अजर-अमर  है  सबकी  आत्मा हम अपनी महिमा को जानें ।
सत्पथ पर हम चलें निरंतर अपनी पुनीत प्रतिभा पहचानें॥4॥

8937
अव सृज पुनरग्ने पितृभ्यो यस्त आहुतश्चरति सस्वधाभिः ।
आयुर्वसान उप  वेतु  शेषः  सं  गच्छतां तन्वा जातवेदः ॥5॥

बचपन  में  हो  समुचित  शिक्षा  पृथ्वी पर पॉव गगन देखे ।
उत्तम  खेती  हो धरती पर स्वयं स्वस्थ हो सबको सरेखे॥5॥

8938
यत्ते  कृष्णः  शकुन आतुतोद  पिपीलः सर्प  उत वा श्वापदः ।
अग्निष्टद्विश्वादगदं कृणोतु सोमश्च यो ब्राह्मणॉ आविवेश॥6॥

देह  में  है  यदि  कष्ट  कोई तो उचित समय पर हो उपचार ।
औषधि  लेकर  रोग - मुक्त  हों उत्तम हो आचार- विचार॥6॥

8939
अग्नेर्वर्म  परि गोभिर्व्ययस्व सं प्रोर्णुष्व पीवसा मेदसा च ।
नेत्त्वा धृष्णुर्हरसा जर्हृषाणो दधृग्विधक्ष्यन्पर्यङ्खयाते॥7॥

मृत शरीर हवि बन जाता है अग्नि - देव  का  बनता भोग ।
यही जन्म अन्तिम हो जाए यही सिखाता सबको योग॥7॥

8940
इममग्ने चमसं मा वि जिह्वरःप्रियो देवानामुत सोम्यानाम्।
एष  यश्चमसो  देवपानस्तस्मिन्देवा  अमृता मादयन्ते ॥8॥

कर्म - योग  की  राह  पकड  लें  इधर - उधर  न भटकें हम ।
यह  शरीर  है  साधन  मेरा  अब  हो  न  जाए कोई भ्रम ॥8॥

8941
क्रव्यादमग्निं  प्र  हिणोमि  दूरं यमराज्ञो गच्छतु रिप्रवाहः ।
इहैवायमितरो  जातवेदा  देवेभ्यो  हव्यं  वहतु प्रजाजन्॥9॥

मसान  दूर   हो  आबादी  से  खुली   हवा  हो  और  हो  धूप ।
अग्नि - देव  सद्गति  देते  हैं अग्नि-देव अद्भुत अ अनूप ॥9॥

8942
यो अग्निःक्रव्यात्प्रविवेश वो गृहमिमं पश्यन्नितरं जातवेदसम्।
तं  हरामि  पितृयज्ञाय  देवं  स  घर्ममिन्वात्परमे  सधस्थे ॥10॥

जीव   देह   जब   तज   देता   है   पञ्च-भूत  में  मिल  जाता  है ।
यह  भी  एक  यज्ञ  है जिसमें फिर-फिर जीव जन्म पाता है॥10॥

8943
यो   अग्निः   क्रव्यवाहनः  पितृन्यक्षदृतावृधः ।
प्रेदु हव्यानि वोचति देवेभ्यश्च पितृभ्य आ॥11॥

मृत  शरीर  जब  जल  जाता है मन में रहती उसकी याद ।
परम्परा निर्वाह में मानव बिसराता है निज अवसाद॥11॥

8944
उशन्तस्त्वा नि धीमह्युसशन्तः समिधीमहि ।
उशन्नुशत आ  वह  पितृन्हविषे  अत्तवे ॥12॥

हे पावन पावक प्रणम्य हो हम प्रेम से तुम्हें बुलाते हैं ।
प्रभु तुम सादर ग्रहण करो हम हविष्यान्न पहुँचाते हैं॥12॥

8945
यं  त्वमग्ने  समदहस्तमु  निर्वापया पुनः ।
कियाम्ब्वत्र रोहतु पाकदूर्वा व्यल्कशा॥13॥

मानव - देह  जहॉ  जलता  है  उस पर जब होती बरसात ।
वह जगह हरी हो जाती है खिल उठते हैं पल्लव-पात॥13॥

8946
शीतिके  शीतिकावति  ह्लादिके  ह्लादिकावति ।
मण्डूक्या3 सु सं गम इमं स्व1ग्निं हर्षय॥14॥

औषधियॉ  अद्भुत  गुणकारी   होती   नवीन  जर्जर  काया ।
यह मौत से लड कर जीती है ऐसी है औषधि की माया॥14॥     


 
 
 

2 comments:

  1. सुन्दर भावभरा काव्यानुवाद।

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  2. देह में है यदि कष्ट कोई तो उचित समय पर हो उपचार ।
    औषधि लेकर रोग - मुक्त हों उत्तम हो आचार- विचार॥6॥

    वाह, जीवन का कोई पक्ष न छूटे..

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