Tuesday 18 February 2014

सूक्त - 26

[ऋषि- विमद ऐन्द्र । देवता- पूषा । छन्द- अनुष्टुप्- उष्णिक् ।]

9040
प्र ह्यच्छा मनीषा: स्पार्हा यन्ति नियुतः ।
प्र दस्त्रा नियुद्रथः पूषा अविष्टु माहिनः॥1॥

विविध-विधा से भाव हमारे परमेश्वर तक आते-जाते हैं ।
वह प्रभु प्रेम-भाव का पूजक भाव में बहकर ही आते हैं॥1॥

9041
यस्य    त्यन्महित्वं    वाताप्यमनं    जनः ।
विप्र आ वंसध्दीतिभिश्चिकेत सुष्टुतीनाम्॥2॥

जगती-ध्वनि में ही ज्ञानी जन परमेश्वर की छवि पाते हैं ।
प्रभु  सम्प्रेषण  के माध्यम से प्रेम परस्पर पहुँचाते हैं॥2॥

9042
स      वेद     सुष्टुतीनामिन्दुर्म     पूषा     वृषा ।
अभि प्सुरः प्रुषायति व्रजं न आ पप्रुषायति॥3॥

सोम-सदृश वह सुख देता है प्रेम की करता है बरसात ।
हम पर दया-दृष्टि रखता है बतलाता है अपनी बात॥3॥

9043
मंसीमहि त्वा वयमस्माकं देव पूषन् ।
मतीनां च साधनं विप्राणां चाधवम्॥4॥

मन-मति की महिमा न्यारी प्रगति-पन्थ का वह पाथेय ।
वही  सारथी  मेरे  रथ  का वह ही तय करता है ध्येय ॥4॥

9044
प्रत्यर्धिर्यज्ञानामश्वहयो                    रथानाम् ।
ऋषिः स यो मनुर्हितो विप्रस्य यावयत्सखः॥5॥

जो जन सबका हित करता है वह जन ही ऋषि कहलाता है।
वह सबको सखा समझता है सुख संदेश-सदृश आता है॥5॥

9045
आधीषमाणाया: पतिः शुचायाश्च शुचस्य च ।
वासोवायोSवीनामा   वासांसि   मर्मृजत् ॥6॥

परमेश्वर हम  सबका  रक्षक  है रखता सदा हमारा ध्यान ।
सुख-कर साधन वह देता है पोषण करता पिता समान॥6॥

9046
इनो    वाजानां   पतिरिनः  पुष्टीनां    सखा ।
प्र श्मश्रु हर्यतो दूधोद्वि वृथा यो अदाभ्यः॥7॥

परमेश्वर जगती का पालक वह अति - शय  बलशाली  है ।
पर सबकी रक्षा करता है जग के उपवन  का माली  है ॥7॥

9047
आ   ते    रथस्य    पूषन्नजा    धुरं   ववृत्युः।
विश्वस्यार्थिनः सखा सनोजा अनपच्युतः॥8॥

जग  की  एक-एक गतिविधि का अन्वेषण अति आवश्यक है।
मन  में  अतिशय कौतूहल है इसकी वेग-विधा व्यापक है ॥8॥

9048
अस्माकमूर्जा  रथं  पूषा अविष्टु माहिनः ।
भुवद्वाजानां वृध इमं नः शृणवध्दवम्॥9॥

प्रभु  मेरा अभिप्राय  समझ  लो  तन-मन  से हमें समर्थ बनाओ।
सान्निध्य सहारा मुझे चाहिए तुम मन की पुकार बन जाओ॥9॥  




 

3 comments:

  1. बहुत सुन्दर सूक्तियां एवं बहुत उत्कृष्ट अनुवाद. आप बड़ा काम कर रही हैं , बहुत बधाई आपको ..

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  2. जग की एक-एक गतिविधि का अन्वेषण अति आवश्यक है।
    मन में अतिशय कौतूहल है इसकी वेग-विधा व्यापक है ॥8॥

    यह आश्चर्य और कौतुहल ही जीवन को रसमय बनाता है

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