Monday 17 February 2014

सूक्त - 27

[ऋषि- वसुक्र ऐन्द्र । देवता- इन्द्र । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

9049
असत्सु मे जरितः साभिवेगो यत्सुन्वते यजमानाय शिक्षम् ।
अनाशीर्दामहमस्मि प्रहन्ता स स्त्यध्वृतं वृजिनायन्तमाभुम्॥1॥

परमेश्वर  यश - वैभव  देता  है  मनो- कामना  पूरी  करता ।
दुष्टों  को  दण्ड  वही देता है वह ही सज्जन का दुख हरता ॥1॥

9050
यदीदहं  युधये  संनयान्यदेवयून्तन्वा3  शूशुजानान् ।
अमा ते तुम्रं वृषभं पचानि तीव्रं सुतं पञ्चदशं नि षिञ्चम्॥2॥

अभिमानी  जन  सुख  से  वञ्चित  यश - वैभव  से रहते दूर ।
सज्जन सब  कुछ पा लेता है मिलता है उसे प्यार भरपूर ॥2॥

9051
नाहं  तं  वेद  य  इति  ब्रवीत्यदेवयून्त्समरणे  जघन्वान्  ।
यदावाख्यत्समरणमृघावदादिध्द  मे  वृषभा  प्र ब्रुवन्ति॥3॥

दुष्ट - दमन अति आवश्यक है प्रभु सज्जन की पीडा हरना ।
जो सत्पथ पर ही चलते हैं उनकी अभिलाषा पूरी करना॥3॥

9052
यदज्ञातेषु  वृजनेष्वासं  विश्वे  सतो  मघवानो  म  आसन् ।
जिनामि वेत्क्षेम आ सन्तमाभुं प्र तं क्षिणां पर्वते पादगृह्य॥4॥

सदा  सुरक्षा  देना  प्रभुवर अन्न - धान  तुम  देते  रहना ।
दुष्टों को तुम दण्डित करना और संतों की रक्षा करना ॥4॥

9053
न  वा  उ  मां  वृजने  वारयन्ते  न पर्वतासो यदहं मनस्ये ।
मम स्वनात्कृधुकर्णो भयात एवेदनु द्यून्किरणः समेजात्॥5॥

अति - विचित्र  है जग की रचना कौन इसे किसको समझाए ।
मन हो जाता मगन कभी और कभी अचानक चुप हो जाए॥5॥

9054
दर्शन्न्वत्र   श्रृतपॉ  अनिन्द्रान्बाहुक्षदः  शरवे   पत्यमानान् ।
घृषुं  वा  ये  निनिदुः  सखायमध्यू  न्वेषु  पवयो  ववृत्युः ॥6॥

त्याग-सहित उपभोग करें हम अन्यथा अशुभ की आशंका है ।
सही   राह पर  नहीं  चले  तो जल जाती सोने की लंका है ॥6॥

9055
अभूर्वौक्षीर्व्यु1  आयुरानाड्   दर्षन्नु   पूर्वो  अपरो  नु   दर्षत् ।
द्वे  पवस्ते  परि  तं  न  भूतो  यो अस्य पारे रजसो विवेष ॥7॥

अनन्त  अजन्मा  अति  अद्भुत है वह ही पावन परम पूर्ण है ।
सर्वत्र व्याप्त है वह परमात्मा शेष सभी कुछ तो अपूर्ण  है॥7॥

9056
गायो  यवं  प्रयुता  अर्यो अक्षन्ता अपश्यं  सहगोपाश्चरन्तीः ।
हवा इदर्यो अभितः समायन्कियदासु स्वपतिश्छन्दयाते॥8॥

मनुज - मात्र कर्तव्य निभाता निज सुख-दुख पाया करता है ।
कर्म  स्वतंत्र  बनाया  प्रभु  ने  बुलावे  पर जाना पडता है ॥8॥

9057
सं   यद्वयं   यवसादो   जनानामहं   यवाद   उर्वज्रे   अन्तः ।
अत्रा युक्तोSवसातारमिच्छादथो अयुक्तं  युनजद्ववन्वान्॥9॥

हमने  जग  में  जन्म  लिया है कर्मानुरूप हम फल पाते हैं ।
प्रभु-सान्निध्य हमें मिल जाए इसी लोभ में अकुलाते हैं॥9॥

9058
अत्रेदु  मे  मंससे  सत्यमुक्तं द्विपाच्च यच्चतुष्पात्संसृजानि ।
स्रीभिर्यो अत्र वृषणं पृतन्यादयुध्दो अस्य वि भजानि वेदः॥10॥

इस  दुनियॉ में  नर - नारी  सब  निज  दायित्व  निभाने आते ।
जो  नारी   तिरस्कार करते हैं वे खुद अपमानित हो जाते ॥10॥

9059
यस्यानक्षा दुहिता जात्वास कस्तां विद्वॉ अभि मन्याते अन्धाम्।
कतरो मेनिं प्रति तं मुचाते य ईं वहाते य ईं वा वरेयात् ॥11॥

दृष्टि - हींन  को  कौन  शरण  दे कन्या हो गई कौडी - कानी ।
कौन  विवाह  करेगा  उससे  कौन है ऐसी सास-सयानी॥11॥

9060
कियती  योषा  मर्यतो  वधूयोः  परिप्रीता  पन्यसा  वार्येण ।
भद्रा वधूर्भवति यत्सुपेशा:स्वयं सा मित्रं वनुते जने चित्॥12॥

वही  बहू - रानी  उत्तम  है  जो  वर  स्वतः  वरण  करती  है ।
धन-वैभव पर ध्यान नहीं अपने अनुकूल सखा चुनती है।॥12॥ 

9061
पत्तो  जगार  प्रत्यञ्चमत्ति  शीर्ष्णा  शिरः  प्रति  दधौ  वरूथम् ।
आसीन ऊर्ध्वामुपसि क्षिणाति न्यङ्ङुत्तानामन्वेति भूमिम्॥13॥

रवि - रश्मि  थिरकती  वसुधा  पर  वह  तमस मिटाने आती है ।
तन  में  मन  में  प्रकाश भर कर वह मंद-मंद मुस्काती है ॥13॥

9062
बृहन्नच्छायो अपलाशो अर्वा तस्थौ माता  विषितो अत्ति गर्भः।
अन्यसा वत्सं रिहती मिमाय कया भुवा नि दधे धेनुरूधः॥14॥

सचमुच  सूर्य  कर्म - योगी   है  करता  नहीं   कभी   विश्राम ।
रवि - किरणों  से  सबको छूता समरसता का है वह धाम॥14॥

9063
सप्त  वीरासो  अधरादुदायन्नष्टोत्तरात्तात्  समजग्मिरन्ते ।
नव पश्चातात्स्थिविमन्त आयन्दश प्राक्सानु वि तिरन्त्यश्नः॥15॥

अद्भुत रचना है उस प्रभु की चहुँ ओर थिरकती उसकी माया ।
माया से  हम  बँधे  हुए  हैं  माया  है परमेश्वर की छाया ॥15॥

9064
दशानामेकं  कपिलं  समानं  तं  हिन्वन्ति  क्रतवे  पार्याय ।
गर्भं माता सुधितं वक्षणास्ववेनन्तं तुषयन्ती बिभर्ति॥16॥

नियति - नटी  भी महतारी है हम सबका रखती है ध्यान ।
कर्म  हेतु  प्रभु  प्रेरित  करते है उनके ही हाथ कमान ॥16॥

9065
पीवानं  मेषमपचन्त  वीरा  न्युप्ता  अक्षा अनु  दीव आसन् ।
द्वा  धनुं  बृहतीमप्स्व1न्तः पवित्रवन्ता चरतः पुनन्ता॥17॥

स्थूल - देह  में  प्राण  प्रमुख है जिससे हम जीवित रहते हैं ।
मनुज-जन्म सार्थक हो जाए यही विचार सदा करते हैं॥17॥

9066
वि  क्रोशनासो  विष्वञ्च  आयन्पचाति  नेमो  नहिपक्षदर्धः।
अयं  मे  देवः सविता  तदाह  द्र्वन्न इद्वनवत्सर्पिरन्नः॥18॥

प्रभु - सान्निध्य  मुझे  मिल जाए इसी लोभ से हम आते हैं ।
विविध-विधा से हम जीते हैं निज कर्मों का फल पाते हैं॥18॥

9067
अपश्यं  ग्रामं  वहमानमारादचक्रया  स्वधया  वर्तमानम् ।
सिंषक्तर्य्यःप्र युगा जनानां सद्यःशिश्ना प्रमिनानो नवीयान्॥19॥

अनादि - काल  से  चलती आई मनुज-मात्र की यह क्रीडा है ।
वे प्रेम - पात्र को स्वयं मिलाते यह परमेश्वर की लीला है॥19॥

9068
एतौ  मे  गावौ  प्रमरस्य युक्तौ मो षु प्र सेधीर्मुहुरिन्ममन्धि ।
आपश्चिदस्य वि नशन्त्यर्थं सूरश्च  मर्क उपरो बभूवान्॥20॥

प्राण - अपान  वृषभ - द्वय  जैसे  देह- हेतु अत्यावश्यक  हैं ।
इन्हें  जोड-कर  रखें  देह में ध्येय-पूर्ति के ये साधक हैं॥20॥

9069
अयं  यो  वज्रः  पुरुधा  विवृत्तोSवः  सूर्यस्य  बृहतः  पुरीषात् ।
श्रव इदेना परो अन्यदस्ति तदव्यथी जरिमाणस्तरन्ति॥21॥

हे  प्रभु  कष्ट - निवारण  करना  समाधान  तुम  देते  रहना ।
यश-वैभव तुम देना प्रभुवर सत्पथ पर तुम ही ले चलना॥21॥

9070
वृक्षेवृक्षे  नियता  मीमयद्गौस्ततो  वयः  प्र  पतान् पूरुषादः ।
अथेदं विश्वं भुवनं भयात इन्द्राय सुन्वदृषये च शिक्षत्॥22॥

नित-नवीन है न्याय-पालिका अत्यन्त निपुण है न्यायाधीश।
हर घडी न्याय करता फिरता है वह है मन-मोहन जगदीश॥22॥

9071
देवानां  माने  प्रथमा  अतिष्ठन्कृन्तत्रादेषामुपरा  उदायन् ।
त्रयस्तपन्ति  पृथिवीमनूपा  द्वा  बृबूकं  वहतः पुरीषम्॥23॥

अवनि और अम्बर-वैभव का अन्वेषण होता रहे निरन्तर ।
रचना अति विचित्र है उसकी आओ जानें उसे परख-कर॥23॥

9072
सा  ते  जीवातुरुत  तस्य विध्दि मा स्मैतादृगप गूहः समर्ये ।
आविःस्वःकृणुते गूहते बुसं स पादुरस्य निर्णिजो न मुच्यते॥24॥

आदित्य - देव आलोक-प्रदाता कई किस्म के कौतुक करता ।
सूर्य-रश्मियों को लेकर वह इधर-उधर अठखेली करता ॥24॥
     
                





    

3 comments:

  1. अति - विचित्र है जग की रचना कौन इसे किसको समझाए ।
    मन हो जाता मगन कभी और कभी अचानक चुप हो जाए॥5॥

    प्रकृति और सृष्टि एक रहस्य है...

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  2. बहुत सारगर्भित और रोचक अनुवाद...

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