Sunday 16 February 2014

सूक्त -28

[ऋषिका- इन्द्रस्नुषा । देवता- वसुक्र ऐन्द्र । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

9073
विश्वो  ह्य1न्यो  अरिराजगाम  ममेदह  श्वशुरो  ना  जगाम ।
जक्षीयाध्दाना उत सोमं पपीयात्स्वाशितः पुनरस्तं जगायात्॥1॥

जो आगन्तुक की सेवा करता सुख का बीज वही बोता है ।
अतिथि पूज्य है सदा हमारा पहुना देव-सदृश होता है॥1॥

9074
स रोरुवद्वृषभस्तिग्मशृङ्गो वर्ष्मन्तस्थौ वरिमन्ना पृथिव्या: ।
विश्वेष्वेनं  वृजनेषु  पामि  यो  मे  कुक्षी  सुतसोमः पृणाति॥2॥

अपना  आयुध  लेकर  चलता  जो  हम  सबका  रखवाला  है ।
दूर  भी  है अत्यन्त  निकट है वह मन-मोहन मुरली वाला॥2॥

9075
अद्रिणा ते मन्दिन इन्द्र तूयान्त्सुन्वन्ति सोमान्पिबसि त्वमेषाम्।
पचन्ति  ते  वृषभॉ  अत्सि  तेषां  पृक्षेण  यन्मघवन्हूयमानः ॥3॥

सोम - लता  को  भली - भॉति  वे  वैद्य - राज  पहचानते  हैं ।
उसका  प्रभाव  है  सुधा - सदृश  यह बात वैद्य ही जानते हैं ॥3॥

9076
इदं  सु  मे  जरितरा  चिकिध्दि  प्रतीपं  शापं  नद्यो  वहन्ति ।
लोपाशः सिंहं प्रत्यञ्चमत्सा:कोष्टा वराहं निरतक्त कक्षात्॥4॥

आषधियॉ  हैं  दिव्य  इसी  से  जर्जर - काया  बल  पाती  है ।
इन  औषधियों  के  सेवन  से  बूढी   काया खिल जाती है ॥4॥

9077
कथा  त  एतदहमा  चिकेतं गृत्सस्य पाकस्तवसो मनीषाम्।
त्वं  नो विद्वॉ ऋतुथा वि वोचो यमर्धं ते मघवन्क्षेम्या धूः॥5॥

अति  समर्थ  है  वह  परमेश्वर  ज्ञानी  भी  पार  नहीं पाते हैं ।
आर्त्त - नाद  सुन - कर  पर  वे  ही  दौडे-दौडे आ जाते  हैं ॥5॥

9078
एवा  हि  मां  तवसं  वर्धयन्ति  दिवश्चिन्मे  बृहत  उत्तरा  धूः ।
पुरु सहस्त्रा नि शिशामि साकमशत्रुं हि मा जनिता जजान॥6॥

वह  अनादि  अद्भुत  अनन्त  है  नहीं  है  कोई  परिभाषा ।
पर जाने क्यों प्यारा लगता है मिलने की होती अभिलाषा॥6॥

9079
एवा  हि  मां  तवसं  जज्ञुरुग्रं  कर्मन्कर्मन्वृषणमिन्द्र  देवा: ।
वधीं  वृत्रं  वज्रेण  मन्दसानोSप  व्रजं  महिना  दाषुषे  वम्॥7॥

भले  ही  हो  वह  बहुत  बडा  पर  सखा - सरीखा  लगता  है ।
वह बिल्कुल गैर नहीं लगता अपना-पन साफ झलकता है॥7॥

9080
देवास  आयन्परशूँरबिभ्रन्वना  वृश्चन्तो  अभि विङ्भिरायन् ।
नि   सुद्रवं1  दधतो  वक्षणासु  यत्रा  कृपीटमनु  तद्दहन्ति॥8॥

सत्पथ  पर  आओ  करो  भरोसा  पाओगे  तुम  उत्तम  फल ।
कर्मानुरूप  तुम  फल  पाओगे आज नहीं तो निश्चय कल॥8॥

9081
शशः   क्षुरं    प्रत्यञ्चं    जगाराद्रिं   लोगेन   व्यभेदमारात् ।
बृहन्तं  चिदृहते  रन्धयानि  वयद्वत्सो  वृषभं  शूशुवानः॥9॥

वह  ईश्वर  अद्भुत  अनुपम  है  करता  सदा  निराला  खेल ।
असंभव  संभव  हो  जाता  है  दुष्टों  को कर देता है फेल॥9॥

9082
सुपर्ण  इत्था  नखमा  सिषायावरुध्दः  परिपदं  न  सिंहः ।
निरुध्दश्चिन्महिषस्तर्ष्यावान्गोधा तस्मा अयथं कर्षदेतत्॥10॥

सोच - मात्र  से  क्षण - भर  में  ही  सभी  समस्या हल होती है ।
उसकी  बानी  बहुत  मधुर  है  बीज  प्रेम  का  वह बोती है॥10॥

9083
तेभ्यो  गोधा  अयथं  कर्षदेतद्ये  ब्रह्मणः  प्रतिपीयन्त्यन्नैः ।
सिम उक्ष्णोSवसृष्टॉ अदन्ति स्वयं बलानि तन्वःशृणाना:॥11॥

रिरु-दल से तुम मुझे बचाना आत्मीय मान-कर अपना लेना ।
भूल से यदि कोई भूल हो जाए तो तुम मुझे क्षमा कर देना॥11॥

9084
एते  शमीभिः सुशमी अभूवन्ये हिन्विरे तन्व1: सोम उक्थैः ।
नृवद्वदन्नुप नो माहि वाजान्दिवि श्रवो दधिषे नाम वीरः॥12॥

यज्ञ - भाव  से  इस तन - मन का भली-भॉति पोषण होता है ।
निज  दायित्व निभाता है सत्कर्म- बीज फिर से बोता है॥12॥                   

1 comment:

  1. नहीं कहीं कुछ व्यर्थ जगत में।

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