[ऋषि- कृष्ण आङ्गिरस । देवता- इन्द्र । छन्द- जगती- त्रिष्टुप् ।]
9249
आ यात्विन्द्रः स्वपतिर्मदाय यो धर्मणा तूतुजानस्तुविष्मान् ।
प्रत्वक्षाणो अति विश्वा सहांस्यपारेण महता वृष्ण्येन ॥1॥
आदित्य - देव आलोकवान हैं वह ही बादल का स्वामी है ।
वह सबका बल हर लेता है कर्म-योग का अनुगामी है ॥1॥
9250
सुष्ठामा रथः सुयमा हरी ते मिम्यक्ष वज्रो नृपते गभस्तौ ।
शीभं राजन्त्सुपथा याह्यर्वाङ् वर्धाम ते पपुषो वृष्ण्यानि॥2॥
आदित्य - देव की आभा अद्भुत वे सत्पथ पर ही चलते हैं ।
हम हवि-भोग उन्हें देते हैं वे भाव से ग्रहण करते हैं ॥2॥
9251
एन्द्रवाहो नृपतिं वज्रबाहुमुग्रमुग्रासस्तविषास एनम् ।
प्रत्वक्षसं वृषभं सत्यशुष्ममेमस्मत्रा सधमादो वहन्तु॥3॥
रवि - रश्मियॉ शक्ति-शाली हैं रिपु-दल को नष्ट वही करती हैं।
मानव का पोषण करती हैं सज्जन के सँग-सँग रहती हैं॥3॥
9252
एवा पतिं द्रोणसाचं सचेतसमूर्जः स्कम्भं धरुण आ वृषायसे।
ओजःकृष्व सं गुभाय त्वे अप्यसो यथा केनिपानामिनो वृधे॥4॥
सूर्य - देव प्राणों के रक्षक तन - मन की भी रक्षा करते हैं ।
वह ओजस्वी हमें बनाते आत्मीय - सदृश वे ही लगते हैं॥4॥
9253
गमन्नस्मे वसून्या हि शंसिषं स्वाशिषं भरमा याहि सोमिनः।
त्वमीशिषे सास्मिन्ना सत्सि बर्हिष्यनाधृष्या तव पात्राणि धर्मणा॥5॥
धन - वैभव हमको देना प्रभु हम पर वरद-हस्त रखना ।
आओ कुश-आसन पर बैठो मित्र बना लो मुझको अपना॥5॥
9254
पृथक् प्रायन्प्रथमा देवहूतयोSकृण्वत श्रवस्यानि दुष्टरा ।
न ये शेकुर्यज्ञियां नावमारुहमीर्मैव ते न्यविशन्त केपयः॥6॥
यज्ञ - भावना की नौका पर जो जन आरूढ नहीं हो पाए ।
यश - वैभव से वञ्चित होकर दीन-दरिद्र हुए पछताए ॥6॥
9255
एवैवापागपरे सन्तु दूढ्योSश्वा येषां दुर्युज आयुयुज्रे ।
इत्था ये प्रागुपरे सन्ति दावने पुरूणि यत्र वयुनानि भोजना॥7॥
शुभ - चिन्तन के सरल मार्ग पर जो चलता वह सुख पाता है ।
पर-हित में ही अपना हित है यह चिन्तन मुझको भाता है॥7॥
9256
गिरीँरज्रान्रेजमानॉ अधारयद् द्यौः क्रन्ददन्तरिक्षाणि कोपयत्।
समीचीने धिषणे वि ष्कभायति वृष्णः पीत्वा मद उक्थानि शंसति॥8॥
पवनदेव में अद्भुत गति है बादल को छिन्न-भिन्न करता है ।
परिवेश पंथ पावन पाकर आकाश शब्द सुनता कहता है॥8॥
9257
इमं बिभर्मि सुकृतं ते अङ्कुशं येनारुजासि मघवञ्छफारुजः।
अस्मिन्त्सु ते सवने अस्त्वोक्यं सुत इष्टौ मघवन्बोध्याभगः॥9॥
हे परमेश्वर धन के स्वामी तुम दुष्टों पर अंकुश रखना ।
तुम आओ आकर बैठो तो आत्मीय मान लो मुझको अपना॥9॥
9258
गोभिष्टरेमामतिं दुरेवा यवेन क्षुधं पुरुहूत विश्राम ।
वयं राजभिः प्रथमा धनान्यस्माकेन वृजनेना जयेम॥10॥
सदा सुमति हो इस धरती पर सबको मिले अन्न और धान ।
प्रगति हेतु हम करें पराक्रम प्रतिदिन देखें नया बिहान॥10॥
9259
बृहस्पतिर्नः परि पातु पश्चादुतोत्तरस्मादधरादघायो: ।
इन्द्रः पुरस्तादुत मध्यतो नःसखा सखिभ्यो वरिवःकृणोतु॥11॥
दुष्टों से रक्षा करो हमारी रोग - शोक से हमें बचाओ ।
तुम ही मेरे परममित्र हो अपने जैसा ही मुझे बनाओ॥11॥
9249
आ यात्विन्द्रः स्वपतिर्मदाय यो धर्मणा तूतुजानस्तुविष्मान् ।
प्रत्वक्षाणो अति विश्वा सहांस्यपारेण महता वृष्ण्येन ॥1॥
आदित्य - देव आलोकवान हैं वह ही बादल का स्वामी है ।
वह सबका बल हर लेता है कर्म-योग का अनुगामी है ॥1॥
9250
सुष्ठामा रथः सुयमा हरी ते मिम्यक्ष वज्रो नृपते गभस्तौ ।
शीभं राजन्त्सुपथा याह्यर्वाङ् वर्धाम ते पपुषो वृष्ण्यानि॥2॥
आदित्य - देव की आभा अद्भुत वे सत्पथ पर ही चलते हैं ।
हम हवि-भोग उन्हें देते हैं वे भाव से ग्रहण करते हैं ॥2॥
9251
एन्द्रवाहो नृपतिं वज्रबाहुमुग्रमुग्रासस्तविषास एनम् ।
प्रत्वक्षसं वृषभं सत्यशुष्ममेमस्मत्रा सधमादो वहन्तु॥3॥
रवि - रश्मियॉ शक्ति-शाली हैं रिपु-दल को नष्ट वही करती हैं।
मानव का पोषण करती हैं सज्जन के सँग-सँग रहती हैं॥3॥
9252
एवा पतिं द्रोणसाचं सचेतसमूर्जः स्कम्भं धरुण आ वृषायसे।
ओजःकृष्व सं गुभाय त्वे अप्यसो यथा केनिपानामिनो वृधे॥4॥
सूर्य - देव प्राणों के रक्षक तन - मन की भी रक्षा करते हैं ।
वह ओजस्वी हमें बनाते आत्मीय - सदृश वे ही लगते हैं॥4॥
9253
गमन्नस्मे वसून्या हि शंसिषं स्वाशिषं भरमा याहि सोमिनः।
त्वमीशिषे सास्मिन्ना सत्सि बर्हिष्यनाधृष्या तव पात्राणि धर्मणा॥5॥
धन - वैभव हमको देना प्रभु हम पर वरद-हस्त रखना ।
आओ कुश-आसन पर बैठो मित्र बना लो मुझको अपना॥5॥
9254
पृथक् प्रायन्प्रथमा देवहूतयोSकृण्वत श्रवस्यानि दुष्टरा ।
न ये शेकुर्यज्ञियां नावमारुहमीर्मैव ते न्यविशन्त केपयः॥6॥
यज्ञ - भावना की नौका पर जो जन आरूढ नहीं हो पाए ।
यश - वैभव से वञ्चित होकर दीन-दरिद्र हुए पछताए ॥6॥
9255
एवैवापागपरे सन्तु दूढ्योSश्वा येषां दुर्युज आयुयुज्रे ।
इत्था ये प्रागुपरे सन्ति दावने पुरूणि यत्र वयुनानि भोजना॥7॥
शुभ - चिन्तन के सरल मार्ग पर जो चलता वह सुख पाता है ।
पर-हित में ही अपना हित है यह चिन्तन मुझको भाता है॥7॥
9256
गिरीँरज्रान्रेजमानॉ अधारयद् द्यौः क्रन्ददन्तरिक्षाणि कोपयत्।
समीचीने धिषणे वि ष्कभायति वृष्णः पीत्वा मद उक्थानि शंसति॥8॥
पवनदेव में अद्भुत गति है बादल को छिन्न-भिन्न करता है ।
परिवेश पंथ पावन पाकर आकाश शब्द सुनता कहता है॥8॥
9257
इमं बिभर्मि सुकृतं ते अङ्कुशं येनारुजासि मघवञ्छफारुजः।
अस्मिन्त्सु ते सवने अस्त्वोक्यं सुत इष्टौ मघवन्बोध्याभगः॥9॥
हे परमेश्वर धन के स्वामी तुम दुष्टों पर अंकुश रखना ।
तुम आओ आकर बैठो तो आत्मीय मान लो मुझको अपना॥9॥
9258
गोभिष्टरेमामतिं दुरेवा यवेन क्षुधं पुरुहूत विश्राम ।
वयं राजभिः प्रथमा धनान्यस्माकेन वृजनेना जयेम॥10॥
सदा सुमति हो इस धरती पर सबको मिले अन्न और धान ।
प्रगति हेतु हम करें पराक्रम प्रतिदिन देखें नया बिहान॥10॥
9259
बृहस्पतिर्नः परि पातु पश्चादुतोत्तरस्मादधरादघायो: ।
इन्द्रः पुरस्तादुत मध्यतो नःसखा सखिभ्यो वरिवःकृणोतु॥11॥
दुष्टों से रक्षा करो हमारी रोग - शोक से हमें बचाओ ।
तुम ही मेरे परममित्र हो अपने जैसा ही मुझे बनाओ॥11॥
यज्ञ करेंगे पूरित हमको
ReplyDeleteशुभ - चिन्तन के सरल मार्ग पर जो चलता वह सुख पाता है ।
ReplyDeleteपर-हित में ही अपना हित है यह चिन्तन मुझको भाता है॥7॥
लगता है बार बार ऋषि वही प्रार्थनाएं दोहराते हैं..जैसे जीवन लौट लौट कर आता है