Friday, 31 January 2014

सूक्त - 44

[ऋषि- कृष्ण आङ्गिरस । देवता- इन्द्र । छन्द- जगती- त्रिष्टुप् ।]

9249
आ यात्विन्द्रः स्वपतिर्मदाय यो धर्मणा तूतुजानस्तुविष्मान् ।
प्रत्वक्षाणो  अति  विश्वा  सहांस्यपारेण  महता  वृष्ण्येन ॥1॥

आदित्य - देव  आलोकवान  हैं  वह  ही  बादल का स्वामी है ।
वह  सबका  बल  हर  लेता  है कर्म-योग का अनुगामी है ॥1॥

9250
सुष्ठामा   रथः सुयमा हरी  ते मिम्यक्ष वज्रो नृपते गभस्तौ ।
शीभं राजन्त्सुपथा याह्यर्वाङ् वर्धाम ते पपुषो वृष्ण्यानि॥2॥

आदित्य - देव  की आभा अद्भुत  वे सत्पथ पर ही चलते हैं ।
हम  हवि-भोग  उन्हें  देते  हैं  वे  भाव से ग्रहण करते हैं ॥2॥

9251
एन्द्रवाहो    नृपतिं    वज्रबाहुमुग्रमुग्रासस्तविषास   एनम् ।
प्रत्वक्षसं  वृषभं  सत्यशुष्ममेमस्मत्रा  सधमादो वहन्तु॥3॥

रवि - रश्मियॉ शक्ति-शाली हैं रिपु-दल को नष्ट वही करती हैं।
मानव  का पोषण करती हैं सज्जन के सँग-सँग रहती हैं॥3॥

9252
एवा  पतिं  द्रोणसाचं  सचेतसमूर्जः स्कम्भं  धरुण आ  वृषायसे।
ओजःकृष्व सं गुभाय त्वे अप्यसो यथा केनिपानामिनो वृधे॥4॥

सूर्य - देव  प्राणों  के  रक्षक  तन - मन  की  भी  रक्षा  करते  हैं ।
वह  ओजस्वी  हमें  बनाते आत्मीय - सदृश  वे  ही लगते हैं॥4॥

9253
गमन्नस्मे वसून्या हि शंसिषं स्वाशिषं भरमा याहि सोमिनः।
त्वमीशिषे सास्मिन्ना सत्सि बर्हिष्यनाधृष्या तव पात्राणि धर्मणा॥5॥

धन - वैभव  हमको  देना  प्रभु  हम  पर  वरद-हस्त रखना ।
आओ कुश-आसन पर बैठो मित्र बना लो मुझको अपना॥5॥

9254
पृथक्  प्रायन्प्रथमा  देवहूतयोSकृण्वत  श्रवस्यानि  दुष्टरा ।
न ये शेकुर्यज्ञियां नावमारुहमीर्मैव ते न्यविशन्त केपयः॥6॥

यज्ञ - भावना  की  नौका  पर  जो जन आरूढ नहीं हो पाए ।
यश - वैभव  से  वञ्चित होकर दीन-दरिद्र हुए पछताए ॥6॥

9255
एवैवापागपरे   सन्तु   दूढ्योSश्वा   येषां   दुर्युज   आयुयुज्रे ।
इत्था ये प्रागुपरे सन्ति दावने पुरूणि यत्र वयुनानि भोजना॥7॥

शुभ - चिन्तन के सरल मार्ग पर जो चलता वह सुख पाता है ।
पर-हित में ही अपना हित है यह चिन्तन मुझको भाता है॥7॥

9256
गिरीँरज्रान्रेजमानॉ  अधारयद्  द्यौः  क्रन्ददन्तरिक्षाणि  कोपयत्।
समीचीने धिषणे वि ष्कभायति वृष्णः पीत्वा मद उक्थानि शंसति॥8॥

पवनदेव में अद्भुत गति है बादल को छिन्न-भिन्न करता है ।
परिवेश  पंथ पावन पाकर आकाश शब्द सुनता कहता है॥8॥

9257
इमं  बिभर्मि  सुकृतं  ते  अङ्कुशं  येनारुजासि मघवञ्छफारुजः।
अस्मिन्त्सु ते सवने अस्त्वोक्यं सुत इष्टौ मघवन्बोध्याभगः॥9॥

हे  परमेश्वर  धन  के  स्वामी  तुम  दुष्टों  पर  अंकुश  रखना ।
तुम आओ आकर बैठो तो आत्मीय मान लो मुझको अपना॥9॥

9258
गोभिष्टरेमामतिं   दुरेवा   यवेन   क्षुधं   पुरुहूत   विश्राम ।
वयं राजभिः प्रथमा धनान्यस्माकेन वृजनेना जयेम॥10॥

सदा सुमति हो इस धरती पर सबको मिले अन्न और धान ।
प्रगति हेतु हम करें पराक्रम प्रतिदिन देखें नया बिहान॥10॥

9259
बृहस्पतिर्नः  परि  पातु  पश्चादुतोत्तरस्मादधरादघायो: ।
इन्द्रः पुरस्तादुत मध्यतो नःसखा सखिभ्यो वरिवःकृणोतु॥11॥

दुष्टों  से  रक्षा करो  हमारी  रोग - शोक  से  हमें  बचाओ ।
तुम ही मेरे परममित्र हो अपने जैसा ही मुझे बनाओ॥11॥   
          

Thursday, 30 January 2014

सूक्त - 45

[ऋषि- वत्सप्रि भालन्दन । देवता- अग्नि । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

9260
दिवस्परि प्रथमं जज्ञे अग्निरस्मद् द्वितीयं परि जातवेदा:।
तृतीयमप्सु नृमणा अजस्त्रमिन्धान एनं जरते स्वाधीः॥1॥

अग्नि - देव  के तीन रूप हैं अति-मोहक आदित्य-रूप है ।
पृथ्वी पर पार्थिव पावक है नभ में वह विद्युत अनूप है॥1॥

9261
विद्मा  ते  अग्ने  त्रेधा  त्रयाणि विद्मा ते धाम विभृता पुरुत्रा ।
विद्मा ते नाम परमं गुहा यद्विद्मा तमुत्सं यत आजगन्थ॥2॥

अग्नि - देव  के  तीन  रूप  की  जिज्ञासा  हरदम  रहती  है ।
भिन्न-भिन्न मौसम के कारण विविध रूप धरती धरती है॥2॥

9262
समुद्रे त्वा नृमणा  अप्स्व1न्तर्नृचक्षा ईधे दिवो अग्न ऊधन् ।
तृतीये त्वा रजसि तस्थिवांसमपामुपस्थे महिषा अवर्धन्॥3॥

सागर  में तुम बडवानल हो आकाश में तुम आदित्य देव हो ।
मेघों  में  तुम  ही  विद्युत  हो  तुम अद्भुत आराध्य देव हो॥3॥

9263
अक्रन्ददग्निः स्तनयन्निव  द्यौः क्षामा  रेरिहद्वीरुधः समञ्जन्।
सद्यो जज्ञानो वि हीमिध्दो अख्यदा रोदसी भानुना भात्यन्तः॥4॥

आलोक - प्रदाता  तुम  हो  भगवन हम सब तेरी महिमा गाते हैं ।
मेघ - सदृश  है  स्वर  समीर  का  तुमसे  पौधे अँकुर  पाते हैं ॥4॥

9264
श्रीणामुदारो  धरुणो  रयीणां मनीषिणां प्रार्पणः सोमगोपा: ।
वसुः सूनुः सहसो अप्सु राजा वि भात्यग्र उषसामिधानः॥5॥

तुम  यश - वैभव  के  स्वामी  हो तुम औषधियों के रक्षक हो ।
हे अग्निदेव तुम महाबली हो तुम ही तो हवि के वाहक हो॥5॥

9265
विश्वस्य  केतुर्भुवनस्य  गर्भ आ रोदसी अपृणाज्जायमानः ।
वीळुं चिदद्रिमभिनत्परायञ्जना यदग्निमयजन्त पञ्च॥6॥

अग्नि - देवता  तमस मिटाते आलोक-मशाल लिए चलते हैं ।
रिमझिम बरसात वही देते हैं हम सब उनकी पूजा करते हैं॥6॥

9266
उशिक्पावको अरतिः सुमेधा मर्तेष्वग्निरमृतो नि धायि ।
इर्यति धूममरुषं भरिभ्रदुच्छुक्रेण शोचिषा द्यामिनक्षन् ॥7॥

अग्नि - देवता  तेजस्वी  हैं  सबको  देते  हैं  हविष्यान्न ।
प्राण - प्रकाश  वही  देते  हैं  हमको देते हैं अन्न-धान ॥7॥

9267
दृशानो  रुक्म  उर्विया  व्यद्यौद्दुर्मर्षमायुः श्रिये  रुचानः ।
अग्निरमृतो अभवद्वयोभिर्यदेनं  द्यौर्जनययत्सुरेता: ॥8॥

आदित्य-देव अति अद्भुत हैं वे सबको उपलब्ध सहज हैं ।
सुधा-सदृश  हैं सूर्य-देवता सूर्य-किरण काश्मीरज है ॥8॥

9268
यस्ते   अद्य   कृणवद्भद्रशोचेSपूपं   देव   घृतवन्तमग्ने ।
प्र तं नय प्रतरं वस्यो अच्छाभि सुम्नं देवभक्तं  यविष्ठ ॥9॥

अग्नि-देव की अद्भुत गरिमा हम उनका आवाहन करते हैं।
सुख  सौभाग्य  वही  देते हैं वे ही सबकी पीडा हरते हैं ॥9॥

9269
आ  तं  भज  सौश्रवसेष्वग्न  उक्थउक्थ  आ  भज  शस्यमाने ।
प्रियःसूर्ये प्रियो अग्ना भवात्युज्जातेन भिनददुज्जनित्वैः॥10॥

तुम  ही  सत्पथ  पर  ले  जाते  हवि-भोग सभी को पहुँचाते हो ।
तुम पूजनीय तुम ही प्रणम्य हो सब देकर भी सकुचाते हो॥10॥

9270
त्वामग्ने  यजमाना  अनु  द्यून्विश्वा  वसु  दधिरे  वार्याणि ।
त्वया सह द्रविणमिच्छमाना व्रजं गोमन्तमुशिजो वि वव्रुः॥11॥

बडे  प्रेम  से  आहुति  देते  हम  सब  तेरी  पूजा  करते  हैं ।
उनका अभीष्ट तुम पूरा करते जो सत्पथ पर चलते हैं ॥11॥

9271
अस्ताव्यग्निर्नरां  सुशेवो  वैश्वानर  ऋषिभिः सोमगोपा: ।
अद्वेषे द्यावापृथिवी हुवेम देवा धत्त रयिमस्मे सुवीरम्॥12॥

जगती  को  सुख  देने  वाला  सबकी  ऑखों  का तारा है ।
पूजनीय पावक प्रणम्य है हम सबका वही सहारा है ॥12॥   
 

  

Wednesday, 29 January 2014

सूक्त - 46

[ऋषि- वत्सप्रि भालन्दन । देवता- अग्नि । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

9272
प्र   होता    जातो  महान्नभोविन्नृषद्वा   सीददपामुपस्थे ।
दधिर्यो धायि स ते वयांसि यन्ता वसूनि विधते तनूपा:॥1॥

मनुज - देह  नभ-बादल भी है अग्नि-देव का सुखद बसेरा ।
धन  और  धान्  वही देते हैं जल थल नभ सबमें है डेरा॥1॥

9273
इमं  विधन्तो  अपां  सधस्थे  पशुं  न  नष्टं  पदैरनु  ग्मन् ।
गुहा चतन्तमुशिजो नमोभिरिच्छन्तो धीरा भृगवोSविन्दन्॥2॥

जैसे  पशु  के  पद - चिन्हों  के  पीछे  जाकर  उसको  पाते  हैं ।
वैसे  ही  ज्ञानी  अग्नि-तत्व  का  अन्वेषण  करने  जाते  हैं॥2॥

9274
इमं  त्रितो  भूर्यविन्ददिच्छन्वैभूवसो   मूर्धन्यघ्न्याया: ।
स शेवृधो जात आ हर्म्येषु नाभिर्युवा भवति रोचनस्य॥3॥

अग्नि - देव अति तेजस्वी हैं विद्वत् - जन उनको  पाते हैं ।
वे सबको सुख-सन्तति देते आत्मीय मान अपनाते हैं॥3॥

9275
मन्द्रं होतारमुशिजो नमोभिः प्राञ्चं यज्ञं नेतारमध्वराणाम्।
विशामकृण्वन्नरतिं  पावकं  हव्यवाहं  दधतो  मानुषेषु ॥4॥

सुख - दायक हवि - वाहक  वह  हैं सत्पथ  पर  पहुँचाते  हैं ।
वह पूजनीय वह ही प्रणम्य है हम उनकी महिमा गाते हैं॥4॥

9276
प्र   भूर्जयन्तं   महां   विपोधां  मूरा   अमूरं  पुरां  दर्माणम् ।
नयन्तो  गर्भं  वनां धियं धुर्हिरिश्मश्रुं  नार्वाणं धनर्चम् ॥5॥

धरा  अग्नि  का  पावन  डेरा  ज्ञानी  जन करते हैं ध्यान ।
रिमझिम बरसात वही देते इनका भोजन है हविष्यान्न॥5॥

9277
नि पस्त्यासु त्रित: स्तभूयनन्परिवीतो योनौ सीददन्तः ।
अतः सङ्गृभ्या विशां दमूना विधर्मणायन्त्रैरीयते नृन् ॥6॥

अग्नि - देवता  हवि - वाहक  हैं सबको  देते हैं हवि-भाग ।
बेरोक - टोक  आते- जाते  हैं गाते हैं मेघ-मल्हार राग ॥6॥

9278
अस्याजरासो दमामरित्रा अर्चध्दूमासो अग्नयः पावका: ।
श्वितीचयः श्वात्रासो भुरण्यवो वनर्षदो वायवो न सोमा:॥7॥

अग्नि - देव आरोग्य  बॉटते  तन  को  नीरोग  बनाते  हैं ।
हवि - सुवास  को  फैलाते  हैं जन-जन तक पहुँचाते हैं॥7॥

9279
प्र जिह्वया भरते वेपो अग्निः प्र वयुनानि चेतसा पृथिव्या: ।
तमावयः शुचयन्तं पावकं मन्द्रं होतारं दधिरे यजिष्ठम्॥8॥

जलती आग अग्नि  का मुख है वे हवि-वहन कर्म करते हैं ।
पावक  पावन  प्रभु  प्रणम्य हैं वे जग की पीडा हरते हैं ॥8॥

9280
द्यावा यमग्निं पृथिवी जनिष्टामापस्त्वष्टा भृगवो यं सहोभिः।
ईळेन्यं  प्रथमं   मातरिश्वा   देवास्ततक्षुर्मनवे   यजत्रम् ॥9॥

अग्नि - देव  की  महिमा  अद्भुत  अशुभ को वही जलाते हैं ।
सबको आरोग्य  वही  देते  है पावन-पथ पर पहुँचाते हैं ॥9॥

9281
यं  त्वा  देवा  दधिरे  हव्यवाहं  पुरुस्पृहो मानुषासो यजत्रम् ।
स यामन्नग्ने स्तुवते वयो धा:प्र देवयन्यशस:सं हि पूर्वीः॥10॥

सुख-वैभव  के अभिलाषी-जन  अग्नि-देव  का  धरते  ध्यान ।
हम पर दया-दृष्टि रखना प्रभु हमको देना आलोक महान ॥10॥                

Tuesday, 28 January 2014

सूक्त - 47

[ऋषि- सप्तगु आङ्गिरस । देवता- इन्द्र वैकुण्ठ । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

9282
जग़ृभ्मा  ते  दक्षिणमिन्द्र  हस्तं  वसूयवो वसुपते वसूनाम् ।
विद्मा हि त्वा गोपतिं शूर गोनामस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिं दा:॥1॥

हे  परम - मित्र  हे  परमेश्वर  तुम  हमें  बना  दो बलशाली ।
तुम  हो अद्भुत अनन्त अच्युत हमें बना दो वैभवशाली ॥1॥

9283
स्वायुधं  स्ववसं  सुनीथं  चतुः  समुद्रं  धरुणं  रयीणाम् ।
चर्कृत्यं  शंस्यं  भूरिवारमस्मभ्यं  चित्रं  वृषणं रयिं दा: ॥2॥

उत्तम आयुध  के  तुम  स्वामी हो ऐश्वर्यवान वैभवशाली हो।
मुझे समर्थ बना दो भगवन तुम अतुलित बलशाली हो ॥2॥

9284
सुब्रह्माणं   देववन्तं   बृहन्तमुरुं   गभीरं   पृथुबुध्नमिन्द्र ।
श्रुतऋषिमुग्रमभिमातिषाहमस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिं दा:॥3॥

वेद - ऋचायें  हमें  सुनाओ  श्रेष्ठ - गुणों  का  दे  दो  दान ।
सर्व-शक्ति के स्वामी हो तुम सुख-सन्तति का दो वरदान॥3॥

9285
सनद्वाजं    विप्रवीरं    तरुत्रं    धनस्पृतं    शूशुवांसं    सुदक्षम् । 
दस्युहनं  पूर्भिदमिन्द्र  सत्यमस्मभ्यं  चित्रं वृषणं रयिं दा:॥4॥

संकल्प-मात्र  से  ही  प्रभु  तुम तो परिणाम प्राप्त कर सकते हो ।
धीर-वीर सन्तति यश-धन भी तुम क्षण-भर में दे सकते हो॥4॥

9286
अश्वावन्तं   रथिनं   वीरवन्तं  सहस्त्रिणं  शतिनं  वाजमिन्द्र ।
भद्रव्रातं  विप्रवीरं  स्वर्षामस्मभ्यं  चित्रं   वृषणं  रयिं  दा: ॥5॥

शूर - वीर  सन्तति  दो  भगवन  तुम  तो  प्रभु अन्तर्यामी हो ।
नि:स्वार्थ भाव से चले निरंतर सत्पथ का जो अनुगामी हो॥5॥

9287
प्र   सप्तगुमृतधीतिं   सुमेधां   बृहस्पतिं  मतिरच्छा  जिगाति ।
य आङ्गिरसो  नमसोपसद्योSस्मभ्यं  चित्रं वृषणं रयिं दा:॥6॥

तुम वरेण्य तुम ही प्रणम्य हो नीति-नियम के तुम धारक हो ।
सुख-सन्तति तुम ही देना प्रभु तुम ही जगती के पालक हो॥6॥

9288
वनीवानो  मम  दूतास  इन्द्रं  स्तोमाश्चरन्ति  सुमतीरियाना: ।
हृदिस्पृशो मनसा वच्यमाना अस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिं दा:॥7॥

हे  प्रभु  मन  में  तुम्हीं  बसे  हो  तुम्हें  नमन  है  बारम्बार ।
यश - वैभव  हमको  देना  प्रभु  तेरी  महिमा  है अपरम्पार ॥7॥

9289
यत्त्वा  यामि  दध्दि  तन्न  इन्द्रं  बृहन्तं क्षयमसमं जनानाम् ।
अभि तद् द्यावापृथिवी गृणीतामस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिं दा:॥8॥

मनो - कामना  पूरी  करना  अति - सुन्दर  हो  मेरा  घर - बार ।
हे  प्रभु  पावन  पूज्य  तुम्हीं हो पर-हित हो घर का आधार ॥8॥     

Monday, 27 January 2014

सूक्त - 48

[ऋषि- इन्द्र वैकुण्ठ । देवता- इन्द्र वैकुण्ठ । छन्द- जगती-त्रिष्टुप् ।]

9290
अहं  भुवं  वसुनः पूर्व्यसस्पतिरहं  धनानि  सं जयामि शश्वतः ।
मां हवन्ते पितरं न ज ज्न्तवोSहं दाशुषे वि भजामि भोजनम्॥1॥

वह  ईश्वर  अनन्त  अद्भुत  है  वह  ही  शाश्वत  धन  देता  है ।
मातु-पिता  है  वही  हमारा  दानी  को  भोजन वह देता है॥1॥

9291
अहमिन्द्रो  रोधो  वक्षो  अथर्वणस्त्रिताय  गा  अजनयमहेरधि ।
अहं दस्युभ्यःपरि नृम्णमा ददे गोत्रा शिक्षन् दधीचे मातरिश्वने॥2॥

रिमझिम  बरसात  वही  देता  है  वह  सबकी  रक्षा  करता  है ।
वह  वाणी  का  वैभव  देता  जग  की  पीडा  वह  हरता  है ॥2॥

9292
मह्यं त्वष्टा वज्रमतक्षदायसं मयि देवासोSवृजन्नपि क्रतुम् ।
ममानीकं  सूर्यस्येव  दुष्टरं मामार्यन्ति कृतेन कर्त्वेन च॥3॥

प्रभु ओजस  से  सब ओजस्वी  वह  तेजस  धारण करता है ।
योगी जीवन अर्पित करता मनुज सुख-दुख पाता रहता है॥3॥

9293
अहमेतं गव्ययमश्व्यं पशुं पुरीसषिणं सायकेना हिरण्ययम् ।
पुरु सहस्त्रा नि शिशामि दाशुषे यन्मा सोमास उक्थिनो अमन्दिषुः॥4॥

वह  खुश  होकर  ज्ञानी-जन  को  यश-वैभव  का देता दान ।
वेद-ज्ञान  वह  सबको  देता  ऐसा  है  वह  दया-निधान ॥4॥

9294
अहमिन्द्रो न परा जिग्य इध्दनं न मृत्यवेSव तस्थे कदा चन ।
सोममिन्मा सुन्वन्तो याचता वसु न मे पूरवःसख्ये रिषाथन॥5॥

वह प्रभु सर्व-शक्ति का मालिक सब पर विजय प्राप्त करता है ।
मनो-कामना पूरी  करता  सखा-भाव  हम  पर  रखता है ॥5॥

9295
अहमेताञ्छाश्वसतो     द्वाद्वेद्रं     ये     वज्रं     युधयेSकृण्वत।
आह्वयमानॉ अव हन्मनाहनं दृळ्हा वदन्ननमस्युर्नमस्विनः॥6॥

वह  प्रभु  अद्भुत  बल-शाली  है  काम-क्रोध  से  वही  बचाता ।
दुष्टों पर वह अँकुश रखता है सज्जन को वह बली बनाता॥6॥

9296
अभी3दमेकमेका  अस्मि  निष्षाळभी  द्वा किमु त्रयः करन्ति ।
खले न पर्षान् प्रति हान्म भूरि किं मा निन्दन्ति शत्रवोSनिन्द्रा:॥7॥

सर्व - व्याप्त  है  वह  परमात्मा अति  अद्भुत  बल - शाली  है ।
सबल   नहीं  उस  जैसा  कोई  ऐश्वर्यवान  वैभवशाली  है ॥7॥

9297
अहं गुङ्गुभ्यो अतिथिग्वमिष्करमिषं न वृत्रतुरं विक्षु धारयम्।
यत्पर्णयघ्न  उत  वा करञ्जहे प्राहं महे वृत्रहत्ये अशुश्रवि॥8॥

ज्ञानी - जन  का  वह  रक्षक  है  पहुना   की  पूजा  करता  है ।
प्यारा - पुत्र  कृषक  है उसका जो दुनियॉ का पेट भरता है ॥8॥

9298
प्र  मे  नमी  साप्य  इषे  भुजे  भूद्गवामेषे सख्या कृणुत द्विता ।
दिद्युं  यदस्य समिथेषु मंहयमादिदेनं शंस्यमुक्थ्यं करम् ॥9॥

परमेश्वर  अपने  पुत्रों  पर  वरद - हस्त  अविरल  रखता  है ।
यश - वैभव  उनको  देता  है  अन्न-धान  से घर भरता है ॥9॥

9299
प्र  नेमस्मिन्ददृशे सोमो अन्तर्गोपा नेममाविरस्था कृणोति।
स तिग्मशृङ्गं वृषभं युयुत्सन् द्रुहस्तस्थौ बहुले बध्दो अन्तः॥10॥

आत्म-ज्ञान  प्रभु  ही  देता  है अज्ञान-तिमिर  हट जाता है ।
जो मनुज बीज जैसा बोता है वह वैसा ही फल पाता है॥10॥

9300
आदित्यानां वसूनां रुद्रियाणां देवो देवानां न मिनामि धाम।
ते मा भद्राय शवसे ततक्षुरपराजितमस्तृतमषाळ्हम् ॥11॥

हे  प्रभु  मुझे  समर्थ  बनाना  मुझ  पर  दया-दृष्टि  रखना ।
यश - वैभव मुझको देना प्रभु पथ-पाथेय तुम्हीं बनना॥11॥              

Sunday, 26 January 2014

सूक्त 49

[ऋषि- इन्द्र वैकुण्ठ । देवता- -इन्द्र वैकुण्ठ । छन्द- जगती-त्रिष्टुप् ।]

9301
अहं  दां  गृणते  पूर्व्यं  वस्वहं  ब्रह्म  कृणवं  मह्यं  वर्धनम् ।
अहं भुवं यजमानस्य चोदितायज्वनःसाक्षि विश्वस्मिन्भरे॥1॥

वह  प्रभु  ही  सद् - गति  देता  है  चार - वेद का देता ज्ञान ।
सत् - पथ  का  प्रेरक परमेश्वर ऋतम्भरा का देता दान ॥1॥

9302
मां  धुरिन्द्रं  नाम  देवता  दिव्यश्च  ग्मश्चापां  च  जन्तवः ।
अहं  हरी  वृषणा विव्रता रघू अहं वज्रं शवसे धृष्ण्वा ददे ॥2॥

हे  पूजनीय  हे  परमेश्वर तुम हो प्रभु अतुलित बल - शाली ।
हमें समर्थ बना दो भगवन बन जायें हम प्रतिभा-शाली ॥2॥

9303
अहमत्कं  कवये  शिश्नथं  हथैरहं  कुत्समावमाभिरूतिभिः ।
अहं शुष्णस्य श्नथिता वधर्यमं न यो रर आर्यं नाम दस्यवे॥3॥

प्रभु  ज्ञानी  के  परम - मित्र  हैं  वे  सबकी  रक्षा  करते  हैं ।
शुभ-चिन्तन  वे  ही  देते  हैं  वे आत्मीय  मुझे लगते हैं ॥3॥

9304
अहं पितेव वेतसूँरभिष्टये तुग्रं कुत्साय स्मदिभं च रन्धयम् ।
अहं भुवं यजमानस्य राजनि प्र यद्भरे तुजये न प्रियाधृषे॥4॥

परमेश्वर  हैं  पिता  हमारे  अप - यश  से  हमें  बचाते  हैं ।
सुख - साधन  हमको  देते  हैं  सत - पथ  पर पहुँचाते हैं ॥4॥

9305
अहं रन्धयं मृगयं श्रुतर्वणे यन्माजिहीत वयुना चनानुषक् ।
अहं वेशं नम्रमायवेSकरमहं सव्याय पड्गृभिमरन्धयम्॥5॥

वेद- मार्ग  में  जो  चलता है उसको समाधि का सुख देते हैं ।
प्रभु  ही आत्म-ज्ञान देते  हैं सबकी  विपदा  हर  लेते  हैं ॥5॥

9306
अहं  स  यो  नववास्त्वं  बृहद्रथं  सं  वृत्रेव दासं वृत्रहारुजम् ।
यद्वर्धयन्तं प्रथयन्तमानुषग्दूरे पारे रजसो रोचनाकरम् ॥6॥

दुष्ट - दमन अति आवश्यक  है  हे  प्रभु तुम ही रक्षा करना ।
अन्न- धान तुम ही देना प्रभु वरद-हस्त हम पर रखना ॥6॥

9307
अहं  सूर्यस्य  परि  याम्याशुभिः प्रैतशेभिर्वहमान  ओजसा ।
यन्मा सावो मनुष आह निर्णिज ऋधक्कृषे दासं कृत्व्यं हथैः॥7॥

तुम्हीं हमारे शुभ - चिन्तक हो सन्मार्ग तुम्हीं अब दिखलाना ।
पर - हित में यह जीवन बीते कर्म - योग तुम ही सिखलाना॥7॥

9308
अहं  सप्तहा  नहुषो  नहुष्टरः  प्राश्रावयं  शवसा  तुर्वशं  यदुम् ।
अहं न्य1न्यं सहसा सहस्करं नव व्राधतो नवतिं च वक्षयम्॥8॥

सत्पथ - गामी  जन  को  तुम  ही  यश - वैभव देकर जाते हो ।
सज्जन को तुम्हीं समर्थ बनाते आत्मीय मान अपनाते हो॥8॥

9309
अहं  सप्त  स्त्रवतो  धारयं  वृषा  द्रवित्न्वः पृथिव्यां सीरा अधि ।
अहमर्णांसि वि तिरामि सुक्रतुर्युधा विदं मनवे गातुमिष्टये॥9॥

तुम  सबको  अभीष्ट  फल  देते  हर  नर-तन में तुम रहते हो ।
तुम  ही  सबकी  रक्षा  करते  दुष्टों  को  दण्डित  करते  हो ॥9॥

9310
अहं  तदासु  धारयं  यदासु  न  देवश्चन  त्वष्टादधारयद्रुशत् ।
स्पार्हं गवामूधःसु वक्षणास्वा मधोर्मधु श्वात्र्यं सोममाशिरम्॥10॥

गो - रस  उज्ज्वल अमृत - सम  है  भाग्य-वान इसको पीता है ।
सोम- गो-रस संपृक्त कर पियें तो मनुज सौ-बरस जीता है ॥10॥

9311
एवा  देवॉ  इन्द्रो  विव्ये  नृन्  प्र  च्यौत्नेन  मघवा  सत्यराधा: ।
विश्वेत्ता  ते  हरिवः शचीवोSभि  तुरासः स्वयशो गृणन्ति॥11॥

प्रभु के अति-आत्मीय हम सभी दिव्य - गुणों का वही निधान।
वह तेजस्वी ओजस्वी है ऋत्विक् करते उसका गुण-गान॥11॥       
  

Saturday, 25 January 2014

सूक्त - 50

[ऋषि- इन्द्र वैकुण्ठ । देवता- इन्द्र वैकुण्ठ । छन्द- जगती-अभिसारिणी-त्रिष्टुप् ।]

9312
प्र  वो  महे  मन्दमानायान्धसोSर्चा  विश्वानराय  विश्वाभुवे ।
इन्द्रस्य यस्य सुमखं सहो महि श्रवो नृम्णं च रोदसी सपर्यत्॥1॥

हे मनुज अन्न - धन देने वाले उस परमेश्वर का पूजन कर ।
अद्वितीय  अद्भुत  है  वह  प्रभु  कृतज्ञता  से  अर्चन कर ॥1॥

9313
सो  चिन्नु  सख्या  नर्य  इनः स्तुतश्चर्कृत्य  इन्द्रो  मावते  नरे ।
विश्वासु धूर्षु वाजकृत्येषु सत्पते वृत्रे वाप्स्व1भि शूर मन्दसे॥2॥

हे  परमेश्वर  हे  परम - मित्र  तुम  ही  मेरे  शुभ - चिन्तक  हो ।
रिमझिम बरसात तुम्हीं देते हो सज्जन के तुम ही रक्षक हो॥2॥

9314
के  ते  नर  इन्द्र  ये  त  इषे  ये  ते  सुम्नं  सधन्य1मियक्षान् ।
के  ते वाजायासुर्याय हिन्विरे के अप्सु स्वासूर्वरासु पौंस्ये ॥3॥ 

सुख - सम्पत्ति  तुम्हीं  देते  हो  तुम  ही  मेरे  अपने लगते हो ।
तुम  ही अपने साधक-जन को सत्पथ पर प्रेरित करते हो ॥3॥

9315
भुवस्त्वमिन्द्र  ब्रह्मणा  महान्भुवो  विश्वेषु  सवनेषु  यज्ञियः ।
भुवो नृँश्च्यौत्नो विश्वस्मिन्भरे ज्येष्ठश्च मन्त्रो विश्वचरर्षणे ॥4॥

कर्म - योग  हमको प्यारा है स्तुत्य तुम्हीं नमनीय तुम्हीं हो ।
शुभ-चिन्तन तुम ही देना प्रभु पूजनीय मननीय तुम्हीं हो॥4॥

9316
अवा नु कं ज्यायान् यज्ञवनसो महीं त ओमात्रां कृष्टयो विदुः।
असो  नु  कमजरो  वर्धाश्च  विश्वेदेता  सवना तूतुमा कृषे ॥5॥

हे  परमेश्वर  हे अद्वितीय  निश्चय  ही  तुम अजर - अमर  हो ।
यश - वैभव तुम ही देते हो सबके लिए तुम्हीं सुखकर हो ॥5॥

9317
एता विश्वा सवना तूतुमा कृषे स्वयं सूनो सहसो यानि दधिषे।
वराय  ते  पात्रं  धर्मणे  तना  यज्ञो  मन्त्रो  ब्रह्मोद्यतं वचः ॥6॥

सोम - यज्ञ  के  धारक तुम हो धन का सदुपयोग सिखलाते ।          
यज्ञ-मन्त्र हैं तुम्हें समर्पित वाक्-वैभव तुम ही बन जाते ॥6॥

9318
ये  ते  विप्र  ब्रह्मकृतः सुते  सचा  वसूनां  च  वसुनश्च  दावने ।
प्र ते सुम्नस्य मनसा पथा भुवन्मदे सुतस्य सोम्यस्यान्धसः॥7॥

यश - वैभव  के  अधिकारी  जन  श्रध्दा  से  पूजन  करते  हैं ।
सबके  पथ-प्रेरक  प्रभु  वह  ही सबकी विपदा भी हरते हैं ॥7॥     

Friday, 24 January 2014

सूक्त - 51

[ऋषि- देवगण । देवता- अग्नि सौचीक । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

9319
महत्तदुल्बं     स्थविरं     तदासीद्येनाविष्टितः    प्रविवेशिथापः ।
विश्वा  अपश्यद्बहुधा  ते  अग्ने  जातवेदस्तन्वो  देव  एकः॥1॥

अग्नि - देव का वह वितान भी अति-विशाल और सुखकर था।
जिससे घिर-कर वे खडे हुए थे देदीप्यमान और सुन्दर था॥1॥

9320
को  मा  ददर्श  कतमः  स देवो यो मे तन्वो बहुधा पर्यपश्यत् ।
क्वाह  मित्रावरुणा  क्षियन्त्यग्नेर्विश्वा: समिधो देवयानीः॥2॥

हे  देव  कौन  थे  जिसने  मेरा  विविध - रूप  पहचान  लिया ।
हे मित्र वरुण अब तुम्हीं कहो क्या सत्पथ को जान लिया॥2॥

9321
ऐच्छाम  त्वा   बहुधा   जातवेदः  प्रविष्टमग्ने   अप्स्वोषधीषु ।
तं त्वा यमो अचिकेच्चित्रभानो दशान्तरुष्यादतिरोचमानम्॥3॥

हे  अग्नि- देव  जल औषधि  के रस में भी तो तुम विद्यमान हो ।
परम-पूज्य तुम ही प्रणम्य हो अति-तेजस्वी कान्तिमान हो॥3॥

9322
होत्रादहं   वरुण   बिभ्यदायं   नेदेव   मा  युनजन्नत्र   देवा: ।
तस्य  मे  तन्वो  बहुधा निविष्टा एतमर्थं न चिकेताहमग्निः ॥4॥

हे  वरुण - देव  मैं  यजन-कर्म  से  डरकर  जल  में  रहता  हूँ ।
हवि-वहन-कर्म स्वीकार नहीं है अपनी बात तुमसे कहता  हूँ॥4॥

9323
एहि     मनुर्देवयुर्यज्ञकामोSरङ्कृत्या      तमसि    क्षेष्यग्ने ।
सुगान्पथः  कृणुहि  देवयानान्वह  हव्यानि  सुमनस्यमानः ॥5॥

हे  अग्नि - देव  तुमसे  विनती  है तुम हवि - वाहक  बन  जाओ ।
तुम तेजस्वी हो तमस मिटाओ सत के पथ को सरल बनाओ॥5॥

9324
अग्नेः     पूर्वे     भ्रातरो    अर्थमेतं     रथीवाध्वानमन्वावरीवुः ।
तस्माद्भिया  वरुण  दूरमायं  गौरो  न क्षेप्नोरविजे  ज्याया: ॥6॥

रथी  लक्ष्य  तक  पहुँचाता  है  हे अग्नि-देव  दायित्व निभाओ ।
गत  की चिन्ता छोडो प्रभुवर हवि-वाहक बनकर आ  जाओ॥6॥

9325
कुर्मस्त  आयुरजरं  यदग्ने  यथा  युक्तो  जातवेदो  न  रिष्या: ।
अथा वहासि सुमनस्यमानो भागं देवेभ्यो हविषः सुजात॥॥7॥

हे  अग्नि - देव  तुम  अमर  रहोगे  हम  सब  देते  हैं  वरदान ।
अनल अनश्वर हुए आज से सबको  देना  अब  हविष्यान्न॥7॥

9326
प्रयाजान्मे अनुयाजॉश्च केवलानूर्जस्वन्तं हविषो दत्त भागम् ।
घृतं  चापां  पुरुषं  चौषधीनामग्नेश्च  दीर्घमायुरस्तु  देवा: ॥8॥

हवि - भाग  सभी  को  पहुँचाऊँगा  पर मुझे तृप्त करते रहना ।
जल  का घृत का औषधि का भी सार-तत्व अर्पित  करना॥8॥

9327
तव प्रयाजा अनुयाजाश्च केवल ऊर्जस्वन्तो हविषःसन्तु भागा:।
तवाग्ने  यज्ञो3यमस्तु  सर्वस्तुभ्यं नमन्तां प्रदिशश्चतस्त्रः ॥9॥

हे  अग्नि - देव  सब  सार-तत्व  हम  तुम्हें  ही अर्पित करते हैं ।
सभी  यज्ञ  है  तुम्हें  समर्पित  प्रभु प्रणम्य से हम कहते हैं ॥9॥             

Thursday, 23 January 2014

सूक्त - 52

[ऋषि- अग्नि सौचीक । देवता- देव-गण । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

9328
विश्वे देवा: शास्तन मा यथेह होता वृतो मनवै यन्निषद्य ।
प्र मे ब्रूत भागधेयं यथा वो येन पथा हव्यमा वो वहानि॥1॥

अग्नि-देव हमसे कहते हैं तुमने हवि-वाहक मुझे बनाया ।
किस पथ से मैं हवि ले जाऊँ मैं पावक यही पूछने आया॥1॥

9329
अहं होता न्यसीदं यजीयान् विश्वे देवा मरुतो मा जुनन्ति ।
अहरहरश्विनाध्वर्यवं वां ब्रह्मा समिद्भवति साहुतिर्वाम् ॥2॥

मैं निज दायित्व निभाने आया हविष्यान्न पहुँचाने आया ।
तुमसे मुझे प्रेरणा मिलती मैं सुख-कर सोमाहुति पाया ॥2॥

9330
अयं यो होता किरु स यमस्य कमप्यूहे यत्समञ्जन्ति देवा:।
अहरहर्जायते   मासिमास्यथा   देवा   दधिरे  हव्यवाहम् ॥3॥

यज्ञ - कुण्ड  में  जब  हवि  जाता वह देवों को मिल जाता है ।
आदित्य- देव आलोक बॉटते चँदा रवि से तेजस पाता है ॥3॥

9331
मां  देवा  दधिरे  हव्यवाहमपम्लुक्तं  बहु  कृच्छ्रा  चरन्तम् ।
अग्निर्विद्वान्यज्ञं नःकल्पयाति पञ्चयामं त्रिवृतं सप्ततन्तुम्॥4॥

कठिन  जगह  में  मैं  रहता हूँ फिर भी मैं हवि का वाहक हूँ ।
सभी  जगह  मैं  विद्यमान  हूँ मैं धर्म-ध्वज का धारक हूँ ॥4॥

9332
आ  वो  यक्ष्यमृतत्वं  सुवीरं  यथा  वो  देवा  वरिवः कराणि ।
आ बाह्वोर्वज्रमिन्द्रस्य धेयामथेमा विश्वा: पृतना जयाति॥5॥

मैं पुण्य कर्म का अवसर देता अतःमैं अजर-अमर बन जाऊँ।
सूरज  को  सहयोग  कर सकूँ मैं नभ-जल बनकर आऊँ ॥5॥

9333
त्रीणि  शता  त्री  सहस्त्राण्यग्निं  त्रिंशच्च देवा नव चासपर्यन् ।
औक्षन्घृतैरस्तृणन्बर्हिरस्मा  आदिध्दोतारं  न्यसादयन्त॥6॥

देव - शक्तियॉ  अग्नि - देव  की  परिचर्या  करती  रहती  हैं ।
कुश-आसन पर उन्हें बिठातीं घृत-अभिषेक किया करती हैं॥6॥    

Wednesday, 22 January 2014

सूक्त - 53

[ऋषि- देवगण । देवता- अग्नि- सौचीक । छन्द- त्रिष्टुप्-जगती ।]

9334
यमैच्छाम  मनसा  सो3यमागाद्यज्ञस्य विद्वान्परुषश्चिकित्वान् ।
स नो यक्षद्देवताता यजीयान्नि हि षत्सदन्तरः पूर्वो अस्मत्॥1॥

हे  अग्नि - देव  तुम  आ  जाओ  हम  तेरा  आवाहन  करते  हैं ।
तुम  पूजनीय  तुम  ही  प्रणम्य  हो  हम वेद-ऋचायें पढते हैं॥1॥

9335
अराधि होता निषदा यजीयानभि प्रयांसि सुधितानि हि ख्यत् ।
यजामहै   यज्ञियान्हन्त   देवॉ  ईळामहा  ईडयॉ  आज्येन ॥2॥

ऊषा - काल  में  सबके  मन  में  श्रध्दा  का  भाव  चरम पर है ।
अग्नि - देवता  हवि - वाहक  हैं  मंत्रोच्चारण का अवसर है॥2॥

9336
साध्वीमकर्देववीतिं  नो  अद्य  यज्ञस्य  जिह्वामविदाम  गुह्याम् ।
स    आयुरागात्सुरभिर्वसानो   भद्रामकर्देवहूतिं   नो   अद्य ॥3॥

यज्ञ  त्याग  का  ही  प्रतीक  है  श्रेष्ठ - कर्म  से  अभिहित  है ।
सबको हवि-भाग दिया जाता है सबसे बडा पुण्य पर-हित है॥3॥

9337
तदद्य   वाचः  प्रथमं   मसीय   येनासुरॉ   अभि   देवॉ   असाम ।
ऊर्जाद   उत  यज्ञियासः  पञ्च  जना  मम  होत्रं  जुषध्वम् ॥4॥

हे  देव  यज्ञ  स्वीकार  करो  हम  जग - हित  हेतु यज्ञ करते हैं ।
इसके  अधिकारी  सभी  वर्ण  हैं  सस्वर  वेद-ऋचा  पढते हैं॥4॥

9338
पञ्च  जना  मम  होत्रं  जुषन्ता  गोजाता  उत  ये  यज्ञियासः ।
पृथिवी नः पार्थिवात्पात्वंहसोSन्तरिक्षं दिव्यात्पात्वस्मान्॥5॥

हे  वाणी  शुभ-वाचन  करना  हे  मन तुम शुभ-चिन्तन करना ।
यज्ञ - कर्म  अति-आवश्यक है हे प्रभु दया-दृष्टि तुम रखना ॥5॥

9339
तन्तुं तन्वन्रजसो भानुमन्विहि ज्योतिष्मतःपथो रक्ष धिया कृतान्।
अनुल्बणं  वयत  जोगुवामपो  मनुर्भव  जनया  दैव्यं  जनम् ॥6॥

हे  अग्नि - देव  सूरज  को  देखो  तुम  भी  वैसे  ही बन जाओ ।
कर्म-योग की अद्भुत महिमा तुम इस जगती को समझाओ॥6॥

9340
अक्षानहो  नह्यतनोत  सोम्या  इष्कृणुध्वं  रशना ओत  पिंशत ।
अष्टावन्धुरं वहताभितो रथं येन देवासो अनयन्नभि प्रियम्॥7॥

इन्द्रिय  को  अँकुश  में  रखो  मन - लगाम  रख  लो कस-कर ।
देह - रूप  इस  दश - रथ से ही अब अपना उद्देश्य प्राप्त कर ॥7॥

9341
अश्मन्वती  रीयते  सं  रभध्वमुत्तिष्ठत  प्र  तरता  सखायः ।
अत्रा जहाम ये असन्नशेवा:शिवान्वयमुत्तरेमाभि वाजान्॥8॥

यह  दुनियॉ - नदिया  दुष्कर  है  इसको  उद्यम  से पार करो ।
दुख - दायी को यहीं छोड दो हित-कारी को स्वीकार करो ॥8॥

9342
त्वष्टा माया वेदपसामपस्तमो बिभ्रत्पात्रा देवपानानि शन्तमा।
शिशीते नूनं परशुं स्वायसं येन वृश्चादेतशो ब्रह्मणस्पतिः ॥9॥

इस  दुनियॉ  को  रचने  वाला  कलाकार  ही  परमेश्वर  है ।
ज्ञानी कर्म-मार्ग में चलकर कैवल्य प्राप्त करता है सुखकर॥9॥

9343
सतो नूनं कवयः सं शिशीत वाशीभिर्याभिरमृताय तक्षथ ।
विद्वांसः पदा गुह्यानि कर्तन येन देवासो अमृतत्वमानशुः॥10॥

हे मन तू पावन-पथ पर चल अमरत्व-प्राप्ति की चेष्टा कर ।
अगम-अगोचर से मिल-कर निज-जीवन को सार्थक कर॥10॥

9344
गर्भे योषामदधुर्वत्समासन्यपीच्येन मनसोत जिह्वया ।
स विश्वाहा सुमना योग्या अभि सिषासनिवर्नते कार इज्जितिम्॥11॥

पेट में पलते शिशु जैसा ही मन-वाणी में मधुर-वचन धर ।
उपासना से पा सकता है जीवन-रण में मन से जुत-कर॥11॥  

Tuesday, 21 January 2014

सूक्त - 54

[ऋषि- बृहदुक्थ वामदेव । देवता- इन्द्र । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

9345
तां  सु  ते कीर्तिं मघवन्महित्वा यत्त्वा भीते रोदसी अह्वेयेताम् ।
प्रावो  देवॉ आतिरो दासमोजः प्रजायै त्वस्यै यदशिक्ष इन्द्र॥1॥

हे  परम-पूज्य  पावन  प्रभुवर  तुम ही हो अतुलित बल-धामी ।
तुम दिव्य-भाव की रक्षा करते तुम ही हो जगती के स्वामी॥1॥

9346
यदचरस्तन्वा    वावृधानो    बलानीन्द्र    प्रबुवाणो    जनेषु ।
मायेत्सा  ते यानि युध्दान्याहुर्नाद्य शत्रुं ननु पुरा विवित्से।॥2॥

सर्व - व्याप्त  है  वह  परमात्मा  वेद - ऋचायें  वह  गाता  है ।
अजात - शत्रु  है सचमुच वह तो माया-वितान भरमाता है ॥2॥

9347
क  उ  नु  ते  महिमनः  समस्यास्मत्पूर्व  ऋषयोSन्तमापुः ।
यन्मातरं  च  पितरं  च साकमजनयथा स्तन्व1: स्वाया: ॥3॥

अपरम्पार  है  तेरी  महिमा  नहीं  है  तुम  सा  कोई  दूजा ।
हम  सब  तुम्हें  नमन  करते  हैं  जग  करता है तेरी पूजा ॥3॥

9348
चत्वारि   ते   असुर्याणि   नामादाभ्यानि   महिषस्य   सन्ति ।
त्वमङ्ग तानि विश्वानि वित्से येभिःकर्माणि मघवञ्चकर्थ॥4॥

हे   पूजनीय   हे  परमेश्वर   तुम   सर्जक   पालक   पोषक   हो ।
जरा  -रहित  हो  निज-स्वरूप  हो  दुष्टों के तुम संहारक हो ॥4॥

9349
त्वं  विश्वा  दधिषे  केवलानि  यान्याविर्या  च  गुहा  वसूनि ।
काममिन्मे मघवन्मा वि तारीस्त्वमाज्ञाता त्वमिन्द्रासि दाता॥5॥

साधारण  और  गूढ - रहस्यों  दोनों  में  ही  तुम  प्रवीण  हो ।
मेरा  अभीष्ट  दे  देना  प्रभुवर तुम ही दाता चिर-नवीन हो ॥5॥

9350
यो अदधाज्ज्योतिषि ज्योतिरन्तर्यो असृजन्मधुना सं मधूनि ।
अध  प्रियं  शूषमिन्द्राय  मन्म  ब्रह्मकृतो  बृहदुक्थादवाचि ॥6॥

सभी  ज्योति  की  शिखा  तुम्हीं हो परमेश्वर पावन हो सरबस ।
तुम  जल  से जल निर्मित करते भर देते हो औषधि में रस॥6॥     

Monday, 20 January 2014

सूक्त - 55

[ऋषि- बृहदुक्थ वामदेव । देवता- इन्द्र । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

9351
दूरे  तन्नाम  गुह्यं  पराचैर्यत्त्वा  भीते  अह्वयेतां  वयोधै ।
उदस्तभ्ना:पृथिवीं द्यामभीके भ्रातुःपुत्रान्मघवन्तित्विषाणः॥1॥

परमेश्वर  पावन  रहस्य  है  विरले  ही  उन्हें  जानते  हैं ।
वह प्रभु ही सबका आश्रय है ज्ञानी उनको पहचानते हैं॥1॥

9352
महत्तन्नाम  गुह्यं  पुरुस्पृग्येन  भूतं  जनयो  येन  भव्यम् ।
प्रत्नं जातं ज्योतिर्यदस्य प्रियं प्रिया: समविशन्त पञ्च॥2॥

हे  परमेश्वर  हे  परम - मित्र  तुझमें  अद्भुत  आकर्षण  है ।
गत-आगत के तुम्हीं सृजेता तुम्हें कोटिशः अभिवादन है॥2॥

9353
आ  रोदसी  अपृणादोत  मध्यं  पञ्च  देवॉ  ऋतुशः सप्तसप्त ।
चतुस्त्रिंशता  पुरुधा  वि चष्टे सरूपेण  ज्योतिषा विव्रतेन ॥3॥

परमेश्वर  ने  ही  पञ्च भूत  उनचास  पवन  को  रूप  दिया ।
चौतीस देव सम तेजस्वी प्रभु ने विभिन्न अवतार लिया ॥3॥

9354
यदुष  औच्छः प्रथमा  विभानामजनयो  येन  पुष्टस्य पुष्टम् ।
यते जामित्वमवरं परस्या महन्महत्या असुरत्वमेकम् ॥4॥

सूरज  के  आने  के  पहले  मुस्काती  हुई  ऊषा  आती  है ।
ऊर्ध्व - लोक - वसिनी ऊषा ही जग को भैरवी सुनाती है ॥4॥

9355
विधुं  दद्राणं  समने  बहूनां  युवानं  सन्तं  पलितो  जगार ।
देवस्य  पश्य  काव्यं  महित्वाद्या ममार स ह्यः समान ॥5॥

कर्म - योग  में  निपुण मनुज भी एक दिन बूढा हो जाता है ।
जो कल जिंदा था आज मरा कल फिर नव-जीवन पाता है॥5॥

9356
शाक्मना  शाको  अरुणः सुपर्ण आ यो महः शूरः सदाननीळः ।
यच्चिकेत सत्यमित्तन्न मोघं वसु स्पार्हमुत जेतोत दाता ॥6॥
 
वह  परमेश्वर  महाबली  है  तेजस्वी  है  सर्व - व्याप्त  है ।
सत्य - रूप  है  वह  परमात्मा ज्ञानी को वह सहज प्राप्त है ॥6॥

9357
ऐभिर्ददे  वृष्ण्या  पौंस्यानि  येभिरौक्षद्वृत्रहत्याय  व्रजी ।
ये कर्मणः क्रियमाणस्य मह्न ऋतेकर्ममुदजायन्त देवा:॥7॥
   
परमेश्वर  की  महिमा  अद्भुत  पृथ्वी  पर  होती  बरसात ।
बादल  नभ से जल बरसाते पल में खिलता है पात-पात॥7॥

9358
युजा कर्माणि जनयन्विश्वौजा अशस्तिहा विश्वमनास्तुराषाट्।
पीत्वी सोमस्य दिव आ वृधानः शूरो निर्युधाधमद्दसस्यून्॥8॥

हे  परमेश्वर  तुम ही प्रणम्य हो सत्पथ पर तुम ही ले चलना ।
पावन  प्रज्ञा  पायें  प्रभु-वर  जगती  की  तुम  रक्षा करना ॥8॥    

Sunday, 19 January 2014

सूक्त - 56

[ऋषि- बृहदुक्थ वामदेव । देवता- विश्वेदेवा । छन्द- त्रिष्टुप्- जगती ।]

9359
इदं  त  एकं  पर  ऊ  त  एकं  तृतीयेन  ज्योतिषा  सं  विशस्व ।
संवेशने   तन्व1  श्चारुरेधि   प्रियो   देवानां  परमे   जनित्रे ॥1॥

हे मनुज जगत है एक ज्योति और जीवात्मा भी एक ज्योति है।
परमेश्वर ही सबका पालक है वह प्रभु ही तो दिव्य-शक्ति है ॥1॥

9360
तनूष्टे  वाजितन्वं1  नयन्ती  वाममस्मभ्यं  धातु शर्म तुभ्यम् ।
अह्रुतो महो धरुणाय देवान्दिवीव ज्योतिः स्वमा मिमीया: ॥2॥

तन   तेरा  निर्जीव  हो   गया   अब   तुम्हें  दूसरा   देह   मिले ।
इस घटना से हम भी कुछ सीखें परम-प्राप्ति का फूल खिले ॥2॥

9361
वाज्यसि  वाजिनेना  सुवेनीः सुवितः स्तोमं सुवितो दिवं गा: ।
सुवितो धर्म प्रथमानु सत्या सुवितो देवान्सुवितोSनु पत्म॥3॥

हे  आत्मा  तुम  महाबली  हो  सत्पथ  पर  ही  तुम  चलना ।
दिव्य-गुणों  को  धारण  करना  स्वर्ग-लोक में तुम रहना ॥3॥

9362
महिम्न   एषां   पितरश्चनेशिरे   देवा   देवेष्वदधुरपि   क्रतुम् ।
समविव्यचुरुत  यान्यत्विषुरैषां  तनूषु  नि  विविशुः पुनः ॥4॥

पितर     हमारे     पूजनीय    हैं    वे    अद्भुत    बलशाली    हैं ।
देव - स्वरूप  कर्म  हैं  उनके  वे  अतिशय  प्रभावशाली  हैं ॥4॥

9363
सहोभिर्विश्वं  परि  चक्रमू  रजः पूर्वा धामान्यमिता मिमाना: ।
तनूषु विश्वा भुवना नि येमिरे प्रासारयन्त पुरुध प्रजा अनु॥5॥

अतुलित  बल  धारे  पितर  हमारे  अन्य लोक में भी जाते हैं ।
जन कल्याण हेतु अर्पित हैं आत्मीय समझ वे अपनाते हैं॥5॥

9364
द्विधा  सूनवोSसुरं  स्वर्विदमास्थापयन्त  तृतीयेन  कर्मणा ।
स्वां प्रजां पितरः पित्र्यं सह आवरेष्वदधुस्तन्तुमाततम् ॥6॥

पितरों  ने  परम्परा गढ - कर सन्तानों को सद्भाव दिया है ।
संस्कारों  के  बीज रोप-कर हम पर यह उपकार किया है ॥6॥

9365
नावा न क्षोदः प्रदिशः पृथिव्या: स्वस्तिभिरति दुर्गाणि विश्वा।
स्वां    प्रजां     बृहदुक्थो     महित्वावरेष्वदधादा     परेषु ॥7॥

नौका में बैठा हुआ व्यक्ति तो जब चाहे जल में जा सकता है ।
वैसे  ही  ईश्वर  का  बेटा  जो  चाहे  वह  सब पा सकता है ॥7॥      
 

Saturday, 18 January 2014

सूक्त - 57

[ऋषि- गौपायन । देवता- विश्वेदेवा । छन्द- गायत्री ।]

9366
मा प्र गां पथो अयं मा यज्ञादिन्द्र सोमिनः ।
मान्तः स्थुर्नो अरायतः ॥1॥

प्रभु  पावन - पथ  पर पहुँचाना पाप - पुण्य  का  पाठ - पढाना ।
संकल्प करें हम सत्कर्मों का दान की महिमा को समझाना॥1॥

9367
यो यज्ञस्य प्रसाधनस्तन्तुर्देवेष्वाततः ।
तमाहुतं नशीमहि ॥2॥

हे अग्निदेव तुम आ जाओ हवि - भोग  तुम्हीं  सबको  देते  हो ।
तुम  सबकी  रक्षा  करते  हो  तुम  सबका  दुख  हर लेते हो ॥2॥

9368
मनो न्वा हुवामहे नाराशंसेन सोमेन ।
पितृणां च मन्मभिः ॥3॥

पितर  हमारे  पूजनीय  हैं  उनके  शुभ - विचार  को  ध र- कर ।
मन-देव का आवाहन करते हैं जगहित का आधार ग्रहण-कर॥3॥

9369
आ त एतु मनः पुनः क्रत्वे दक्षाय जीवसे ।
ज्योक् च सूर्यं दृशे ॥4॥

पुनीत  कर्म  में  हम  प्रवीण  हों  सौ - बरस  सूर्य  को  देवें  जल ।
मन मेरा तन के सँग रहे तब ही मिल सकता है शुभ - फल॥॥4॥

9370
पुनर्नः पितरो मनो ददातु दैव्यो जनः ।
जीवं व्रातं सचेमहि ॥5॥

पितर  पूज्य  हैं  परम - मित्र  हैं  पथ - पाथेय  वहीं  मिलता  है ।
तब सुख-मय जीवन जीते हैं तन-मन युग्म तभी खिलता है॥5॥

9371
वयं सोम व्रते तव मनस्तनूषु बिभ्रतः ।
प्रजावन्तः सचेमहि ॥6॥

हे  सोमदेव  तुम  करो  अनुग्रह  कर्म-योग  तुम  ही सिखलाना ।
तन  सँग मन को जोड लिए हैं पर-हित का वैभव दिखलाना॥6॥    

Friday, 17 January 2014

सूक्त - 58

[ऋषि- गौपायन । देवता- मन आवर्तन । छन्द- अनुष्टुप् ।]

9372
यत्ते यमं वैवस्वतं मनो जगाम दूरकम् ।
तत्त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे॥1॥

वैद बीमार से यह कहता है ठीक हो तुम कुछ नही हुआ  है ।
यम से वापस ला सकता हूँ तुम्हें निराशा ने छू लिया है॥1॥

9373
यत्ते दिवं यत्पृथिवीं मनो जगाम दूरकम् ।
तत्त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे॥2॥

इसी धरा पर ही खुश रहो तुम कहीं और नहीं जा सकते हो ।
तुम्हें स्वस्थ तन-मन देता हूँ मुझे बताओ क्या कहते हो॥2॥

9374
यत्ते भूमिं चतुर्भृष्टिं मनो जगाम दूरकम्।
तत्त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे॥॥3॥

तुम आशा का दामन पकडो खुश होकर जीवन जीना है ।
रोग तुम्हारा हरिण हो गया सुख का अब अमृत पीना है॥3॥

9375
यत्ते चतस्त्रः प्रदिशो मनो जगाम दूरकम् ।
तत्त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे ॥4॥

उल्टा-पुल्टा मत सोचो तुम तुम बिल्कुल बीमार नहीं हो ।
पुनर्नवा औषधि देता हूँ अब तो तुम एकदम सही हो ॥4॥

9376
यत्ते समुद्रमर्णवं मनो जगाम दूरकम् ।
तत्त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे॥5॥

दुःचिन्ता से बाहर निकलो मन को समझाकर वापस लाओ।
जीवन में लालित्य चाहिए आओ सुख-सागर में नहाओ॥5॥

9377
यत्ते मरीचिः प्रवतो मनो जगाम दूरकम्।
तत्त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे ॥6॥

मानव-तन का मोल समझना खुद पर सदा भरोसा करना ।
बहुत दिनों तक यहॉ है रहना गिर कर भी है हमें संभलना॥6॥

9378
यत्ते अपो यदोषदधीर्मनो जगाम दूरकम् ।
तत्त आ वर्तमामसीह क्षयाय जीवसे ॥7॥

आओ आशा का ऑचल पकडें मानव-जीवन का रस पी लें ।
कर्म-भूमि यह तुम्हें बुलाती आओ सुख से जीवन जी लें॥7॥

9379
यत्ते सूर्यं यदुषसं मनो जगाम दूरकम् ।
तत्त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे॥8॥

अपनी महिमा को पहचानो अपने मन का अवसाद मिटाओ ।
यह जीवन कितना सुन्दर है जियो और जीना सिखलाओ॥8॥

9380
यत्ते पर्वतान्बृहतो मनो जगाम दूरकम् ।
तत्त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे॥9॥

माथे पर चिन्ता की सलवट यह मानव की पहचान नहीं है ।
तुम्हें बहुत दिन तक जीना है हँस कर देखो खुशी यहीं है॥9॥

9381
यत्ते विश्वमिदं जगन्मनो जगाम दूरकम् ।
तत्त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे॥10॥

मन  को  निराश  मत  होने  दो  कितना सुन्दर है यह जीवन ।
विविध-विधा के फूल खिलेंगे श्रम से सींचो अपना उपवन॥10॥

9382
यत्ते परा: परावतो मनो जगाम दूरकम् ।
तत्त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे॥11॥

मन  को  कहीं  भटकने  न  दो  जहॉ भी हो वापस आ जाओ ।
सौ बरस जियोगे धरती पर मन में यह विश्वास जगाओ॥11॥

9383
यत्ते भूतं च भव्यं च मनो जगाम दूरकम् ।
 तत्त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे॥12॥

गत-आगत में मत भरमाओ वर्तमान की महिमा जानो ।
कल को किसने देखा है आज जिन्दगी को पहचानो॥12॥
   

Thursday, 16 January 2014

सूक्त - 59

[ऋषि- गौपायन । देवता- द्यावा-पृथिवी । छन्द- त्रिष्टुप-पंक्ति ।]

9384
प्र  तार्यायुः  प्रतरं  नवीयः  स्थातारेव  क्रतुमता  रथस्य ।
अश्व च्यवान उत्तवीत्यर्थं परातरं सु निरृतिर्जिहीताम्॥1॥

सही  सारथी  यदि मिल  जाए यात्रा हो जाती है सुखकर ।
मानव  दीर्घ आयु  पाता  है मृत्यु दूर जाती है द्रुततर॥1॥

9385
सामन्नु  राये  निधिमन्न्वन्नं  करामहे  सु  पुरुध  श्रवांसि ।
ता नो विश्वानि जरिता ममत्तु परातरं सु निरृतिर्जिहीताम्॥2॥

हम उत्तम धन की प्राप्ति-हेतु उपक्रम दिन-रात किया करते हैं।
साम - गान के सँग-सँग सबको हवि-भाग दिया करते हैं ॥2॥

9386
अभी   ष्व1र्यः  पौंस्यैर्भवेम   द्यौर्न   भूमिं   गिरयो   नाज्रान् ।
ता नो विश्वानि जरिता चिकेत परातरं सु निरृतिर्जिहीताम्॥3॥

आदित्य - देव - आलोक - प्रदाता  हवा  निरन्तर  बहती  है ।
हम  आत्मा  का परिचय पा लें जिससे मृत्यु दूर रहती  है ॥3॥

9387
मो षु णः सोम मृत्यवे परा दा: पश्येम नु सूर्यमुच्चरन्तम् ।
द्युभिर्हितो जरिमा सू नो अस्तु परातरं सु निरृतिर्जिहीताम्॥4॥

प्रभु  हम  प्रतिदिन  सूरज  देखें  बुढापा  भी सुखकर हो जाए ।
जीवन  में  लालित्य  सदा  हो  मृत्यु  देर  से  ही अपनाए ॥4॥

9388
असुनीते  मनो  अस्मासु धारय जीवातवे सु प्र तिरा न आयुः ।
रारन्धि  नः सूर्यस्य  सन्दृशि  घृतेन  त्वं  तन्वं वर्धयस्य ॥5॥

दीर्घ  आयु  हमको  देना  प्रभु  ध्यान  सदा  तुम  मेरा  रखना ।
मुझे  सुरक्षा  देना  भगवन  तन - मन  परिपोषित करना ॥5॥

9389
असुनीते  पुनरस्मासु  चक्षुः  पुनः  प्राणमिह  नो धेहि भोगम् ।
ज्योक्  पश्येम  सूर्यमुच्चरन्तमनुमते  मृळया  नःस्वस्ति॥6॥

पुनः  प्राण  ऊर्जा  दो  प्रभुवर  नेत्र - ज्योति  मेरी  बढ  जाए ।
सदा सुरक्षित रहे मनुज यदि वह आत्मा का परिचय पाए॥6॥

9390
पुनर्नो   असुं   पृथिवी   ददातु   पुनर्द्यौर्देवी   पुनरन्तरिक्षम् ।
पुनर्नः  सोमस्तन्वं  ददातु  पुनः  पूषा पथ्यां3 या स्वस्तिः॥7॥

पुनर्नवा  प्रभु  हमें  बना  दो  तन  मन  आत्म  ब्रह्म बल देना ।
हे  सोम  समर्थ बना दो तुम आत्मीय समझ अपना लेना॥7॥

9391
शं रोदसी सुबन्धवे यह्वी ऋतस्य मातरा ।
भरतामप यद्रपो द्यौः पृथिवि क्षमा रपो मो षु ते किं चनाममत्॥॥8॥

परमेश्वर  सबका  अपना  है  वह  ही  तो  है  पिता  हमारा ।
दोष-शोक वह हर लेता है प्रभु ही पालक पोषक प्यारा ॥8॥

9392
अव द्वके अव त्रिका दिवश्चरन्ति भेषजा।क्षमा चरिष्ण्वेककं भरतामप
यद्रपो  द्यौः  पृथिवि  क्षमा  रपो  मो  षु  ते  किं  चनाममत् ॥9॥

क्षमा  स्वरूप  धरा  जननी  है  दोषों  को  सदा  क्षमा करती है ।
भूल से यदि कोई भूल हो जाए अपनाती है अपनी लगती है॥9॥

9393
समिन्द्रेरय गामनड्वाहं य आवहदुशीनराण्या अनः। भरतामप
यद्रपो  द्यौः  पृथिवि  क्षमा  रपो  मो  षु  ते किं चनाममत् ॥10॥

सूर्य - रश्मियॉ  औषधियॉ  हैं  सञ्जीवनी  बनकर  आती  हैं ।
प्रतिदिन हमको नव-जीवन देकर अद्भुत ऊर्जा से नहलाती हैं॥10॥
        
  




 

Wednesday, 15 January 2014

सूक्त - 60

[ऋषि- गौपायन । देवता- जीव । छन्द- अनुष्टुप् - गायत्री - पंक्ति ।]

9394
आ जनं त्वेषसन्दृशं माहीनानामुपस्तुतम् ।
अगन्म बिभ्रतो नमः॥1॥

 यह  इन्द्रिय  ही  मानव  तन  में  विनम्र-भाव  से  रहती  है ।
उसके माध्यम से यह काया जीवन भर सुख से चलती है॥1॥

9395
असमातिं नितोशनं त्वेषं निययिनं रथम् ।
भजेरथस्य सत्पतिम् ॥2॥

इन्द्रियॉ  मनोरथ  पूरा  करती  अपने  में  डूबी  रहती  हैं ।
पर आत्मा है पृथक सर्वदा ये उस तक नहीं पहुँचती हैं॥2॥

9396
यो हनानॉमहिषॉ इवातितस्थौ पवीरवान्।
उतापवीरवान्युधा ॥3॥

सदा  हारता  आया  मन  से  हे  प्रभु  तुम्हीं  दिलाओ  जीत ।
करो अनुग्रह मुझ पर भगवन आत्मिक-बल का गाऊँ गीत॥3॥

9397
यस्येक्ष्वाकुरुप व्रते रेवान्मराय्येधते ।
दिवीव पञ्च कृष्टयः ॥4॥

प्रभु मैं भी आत्मा को जानूँ कर्म-योग मुझको सिखलाओ ।
आत्मा ही तो परमात्मा है इस रहस्य को तुम समझाओ॥4॥

9398
इन्द्र क्षत्रासमातिषु रथप्रोष्ठेषु धारय ।
दिवीव सूर्यं दृशे ॥5॥

तन  से  जुडी  इन्द्रियॉ  एवम्  मति  से  दूर  जो  रहती  है ।
उस दिव्य-शक्ति से मिलवाओ दुनियॉ जिसे आत्मा कहती है॥5॥

9399
अगस्त्यस्य नद्भ्यः सप्ती युनक्षि रोहिता ।
पणीन्न्यक्रमीरभि विश्वान्राजन्नराधसः॥6॥

इन्द्रिय पर अँकुश रख पाए ऐसी मति मुझको दो प्रभुवर ।
कीचड में भी कमल बन सकूँ ऐसी जुगत बताओ नटवर॥6॥

9400
अयं  मातायं  पितायं  जीवातुरागमत् ।
इदं तव प्रसर्पणं सुबन्धवेहि निरिहि॥7॥

प्राण ही मातु - पिता  है  मेरा  सर्वस्व  इसी  को  में  मानूँ ।
मैं तुमसे कभी मिला ही नहीं आत्मा तुमको कैसे जानूँ॥7॥

9401
यथा युगं वरत्रया नह्यन्ति धरुणाय कम् ।
एवा दाधारं ते मनो जीवातवे न मृत्यवेSथो अरिष्टतातये॥8॥

यदि प्राण की रक्षा करनी हो तो आत्मा से इसको मिलवा दो।
इससे  प्राण  की उम्र बढेगी आत्मा से परिचय करवा दो ॥8॥

9402
यथेयं पृथिवी मही दाधारेमान्वनस्पतीन् ।
एवा दाधारं ते मनो जीवातये न मृत्यवेSथो अरिष्टतातये॥9॥

तन  में  इन्द्रिय  मन आत्मा है विविध मार्ग में यह चलता है ।
मन से यदि आत्मा जुड जाए तो अद्वितीय पौरुष पलता है॥9॥

9403
यमादहं वैवस्वतात्सुबन्धोर्मन आभरम् ।
जीवातवे न मृत्यवेSथो अरिष्टतातये॥10॥

मृत्युलोक  में  सब  मरते  हैं  कोई  अमर  नहीं हो सकता ।
पर जीवन स्थिर हो जाए सब कुछ संभव हो सकता है॥10॥

9404
न्य1ग्वातोSव  वाति  न्यक्तपति  सूर्यः ।
नीचीनमघ्न्या दुहे न्यग्भवतु ते रपः॥11॥

यह जीव पवन सम फिरता है रवि-किरण रोग-कण ले जाए ।
गौ-माता का आशीष मिले तो मेरा रोग-शोक मिट जाए॥11॥

9405
अयं  मे  हस्तो  भगवानयं  मे  भगवत्तरः ।
अयं मे विश्वभेषजोSयं शिवाभिमर्शनः॥12॥

मेरे  ये  दोनों  हाथ  ब्रह्म  है  ईश्वर  से  भी  यह  उत्तम  है ।
इसी हाथ में हर औषधि है यह हितकर मंगल अनुपम है॥12॥   
       

Tuesday, 14 January 2014

सूक्त - 61

[ऋषि- नाभानेदिष्ठ मानव । देवता- विश्वेदेवा । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

9406
इदमित्था   रौद्रं   गूर्तवचा   ब्रह्म   क्रत्वा   शच्यामन्तराजौ ।
क्राणा यदस्य पितरा मंहनेष्ठा:पर्षत्पक्थे अहन्ना सप्त होतृन्॥1॥

वेद - ऋचाओं  का  अभ्यासी  वेद - ज्ञान  का मर्म समझता ।
कर्म और वाणी में धर-कर मातु-पिता सम निज को गढता ॥1॥

9407
स  इद्दानाय  दभ्याय  वन्वञ्च्यवानः  सूदैरमिमीत  वेदिम् ।
तूर्ययाणो  गूर्तवचस्तमः  क्षोदो  न  रेत इतऊति सिञ्चत्॥2॥

वेद - पुरुष  ज्ञानी  होता  है  वह  करता  है  प्रतिदिन  दान ।
धरा  बन गई यज्ञ-वेदिका हवि भोग मिले सबको समान॥2॥

9408
मनो  न  येषु  हवनेषु  तिग्मं  विप्रः  शच्या  वनुथो  द्रवन्ता ।
आ  यः शर्याभिस्तुविनृम्णो अस्याश्रीणीतादिशं गभस्तौ॥3॥

मन  की  गति  से  देव  पधारे  सूर्य - सोम  पाते  हवि- भाग ।
हवि-भोग सभी को मिलता है और मिलता है राग-विराग॥3॥

9409
कृष्णा   यद्गोष्वरुणीषु   सीदद्दियो   नपाताश्विना   हुवे   वाम् ।
वीतं  मे  यज्ञमा  गतं  मे  अन्नं  ववन्वांसा नेषमस्मृतध्रू ॥4॥

ऊषा - काल  में   हम   करते   हैं   अपने   देवों  का  आवाहन ।
प्रभु  इच्छा  से  प्रेरित  होकर  अर्पित करते हैं हविष्यान्न ॥4॥

9410
प्रथिष्ट   यस्य   वीरकर्ममिष्णदनुष्ठितं   नु   नर्यो   अपौहत् ।
पुनस्तदा   वृहति   यत्कनाया   दुहितरा   अनुभृतमनर्वा ॥5॥

देवताओं  में  दिव्य - शक्ति  है  प्रभु  तुम  देना  दिव्य - ज्ञान ।
कहीं भटक न जाऊँ भगवन सखी मिल जाए ऊषा समान॥5॥

9411
मध्या यत्कर्त्वमभवदभीके कामं कृण्वाने पितरि युवत्याम् ।
मनानग्रेतो जहतुर्वियन्ता सानौ निषिक्तं सुकृतस्य योनौ॥6॥

आदित्य-देव आलोक - प्रदाता रवि-किरणों का लेकर वितान।
अरुणाभा आई आज अवनि पर कोयल करती मधुमय-गान॥6॥

9412
पिता यस्त्वां दुहितरमधिष्कन्क्ष्मया रेतःसञ्जग्मानो नि सिञ्चत्।
स्वाध्योSजनयन्ब्रह्म  देवा  वास्तोष्पतिं  व्रतपां  निरतक्षन् ॥7॥

सूरज  के  प्रकाश  को  अब  हम विविध - विधा में करते भोग ।
सौर-शक्ति अब अति जनप्रिय है इसके हैं अतिशय उपयोग॥7॥

9413
स   ईं  वृषा  न  फेनमस्यदाजौ  स्मदा   परैदप   दभ्रचेता: ।
सरत्पदा न दक्षिणा परावृङ् न ता नु मे पृशन्यो  जगृभ्रे ॥8॥

यह  जीवन  भी  यज्ञ - रूप है त्याग-सहित ही हो उपभोग ।
दान  बहुत  ही  आवश्यक  है  खतरनाक है केवल भोग ॥8॥

9414
मक्षू  न  वह्नि: प्रजाया  उपब्दिरग्निं  न  नग्न  उप सीददूधः।
सनितेध्मं  सनितोत  वाजं स धर्ता जज्ञे सहसा यवीयुत्॥9॥

जलती आग  डरा  देती  है  पर  जब  विधिवत उपयोग करें ।
तब जीवन-रक्षक बन जाता है अनियंत्रित-बल से सदा डरें॥9॥

9415
मक्षू कनाया: सख्यं नवग्वा ऋतं वदन्त ऋतयुक्तिमग्मन् ।
द्विबर्हसो य उप गोपमागुरदक्षिणासो अच्युता दुदुक्षन् ॥10॥

अग्निदेव की अद्भुत गति है भिन्न-भिन्न हैं उसके रूप ।
प्राण-वायु से छटा निखरती अग्नि-देव हैं जग के भूप ॥10॥

9416
मक्षू कनाया: सख्यं नवीयो राधो न रेत ऋतमित्तुरण्यन् ।
शुचि यत्ते रेक्ण आयजन्त सबर्दुघाया: पय उस्त्रियाया:॥11॥

अग्नि देव  देते  धन-दौलत अग्नि-देव  पावस  लाते  हैं ।
सलिल-सुधा वे  ही  देते  हैं झर-झर पानी  बरसाते  हैं ॥11॥

9417
पश्वा  यत्पश्चा  वियुता  बुधन्तेति  ब्रवीति  वक्तरी रराणः ।
वसोर्वसुत्वा  कारवोSनेहा  विश्वं विवेष्टि  द्रविणमुप क्षु॥12॥

पशुधन भी अति आवश्यक है बिन पशु-धन ऑगन सूना है।
जिस  घर में गौ रँभाती है उस घर का सुख भी दूना है ॥12॥

9418
तदिन्न्वस्य परिषद्वानो अग्मन्पुरु सदन्तो नार्षदं बिभित्सन्।
वि शुष्णस्य संग्रथितमनर्वा विदत्पुरुप्रजातस्य गुहा यत्॥13॥

मानुष-तन में प्राण बली है पर अति-विचित्र आत्मा की आख्या।
ब्रह्म-स्वरूपा है यह आत्मा अति अद्भुत है इसकी व्याख्या ॥13॥

9419
भर्गो  ह  नामोत  यस्य  देवा: स्व1र्ण  ये  त्रिषधस्थे  निषेदुः ।
अग्निर्ह नामोत जातवेदा: श्रुधी नो होतरृतस्य होताध्रुक् ॥14॥

अग्नि - देव  के  कई  नाम  हैं  जल  थल  नभ  है इसका गेह ।
पावक  अनल  जातवेदस  है हर रूप में देते सबको स्नेह ॥14॥

9420
उत  त्या  मे  रौद्रावर्चिमन्ता  नासत्याविन्द्र  गूर्तये  यजध्यै ।
मनुष्वद्वृक्तबहिर्षे  रराणा  मन्दू  हितप्रयसा  विक्षु  यज्यू ॥15॥

हे  अश्विनीकुमार  प्रभु  आओ  हम  प्रेम  से  तुम्हें  बुलाते  हैं ।
बडे  यशस्वी  हो  तुम  दोनों  तुमको  पाकर हम हर्षाते हैं॥15॥

9421
अयं  स्तुतो  राजा  वन्दि  वेधा  अपश्च  विप्रस्तरति  स्वसेतुः ।
स  कक्षीवन्तं  रेजयत्सो अग्निं नेमिं न चक्रमर्वतो  रघुद्रु॥16॥

यह  समीर  है  सबका  साधक  नभ - धरती के मध्य सेतु-सम।        
मेघों  को  उद्वेलित  करता है जल-वर्षा का करता उपक्रम ॥16॥

9422
स     द्विबन्धुर्वैतरणो     यष्टा    सबर्धुं    धेनुमस्वं    दुहध्यै ।
सं   यन्मित्रावरुणा   वृञ्ज  उक्थैर्ज्येष्ठेभिरर्यमणं  वरूथैः ॥17॥
 
अग्नि - देव  आकाश  अवनि  में  समान  भाव  से  ही रहते हैं ।
अपने मुख के माध्यम से सबको हवि-भाग दिया करते हैं॥17॥

9423
तद्बन्धुः  सूरिर्दिवि  ते  धियंधा  नाभानेदिष्ठो रपति प्र वेनन् ।
सा नो नाभिः परमास्य वा घाहं तत्पश्चा कतिथश्चिदास॥18॥

आदित्य - देव  अति  अद्भुत  हैं  यह  सौर-शक्ति हितकारी है ।
हम सब सौर-ऊर्जा अपनायें आज भी अन्वेषण जारी है ॥18॥

9424
इयं  मे  नाभिरिह  मे  सधस्थमिमे  मे  देवा अयमस्मि सर्वः ।
द्विजा  अह   प्रथमजा  ऋतस्येदं  दधेनुरदुहज्जायमाना ॥19॥

परमेश्वर  ही  पिता  हमारे  वह  ही  मेरा  चिर - परिचित  है ।
वाक्-वैभव भी दिया है उसने उसका प्यार अपरिमित  है॥19॥

9425
अधासु   मन्द्रो   अरतिर्विभावाव   स्यति   द्विवर्तनिर्वनेषाट् ।
ऊर्ध्वा  यच्छ्रेणिर्न  शिशूर्दन्मक्षू  स्थिरं शेवृधं सूत माता ॥20॥

अग्नि  देव  अति  आनंदित  हैं  कहीं  भी  जाकर  रह  लेते  हैं ।
पावक  पावन  पूजनीय  हैं  वे  हम  सबको  सुख देते हैं ॥॥20॥

9426
अधा  गाव  उपमातिं  कनाया अनु श्वान्तस्य कस्य चित्परेयुः ।
श्रुधि त्वं सुद्रविणो नस्त्वं याळाश्वघ्नस्य वावृधे सूनृताभिः॥21॥

मंत्रोच्चारण  से  बल  बढता  वाणी  ओजस्वी  हो  जाती  है ।
हे अग्नि-देव तुम ही प्रणम्य हो दुनियॉ तुमसे ऊर्जा पाती है॥21॥

9427
अध  त्वमिन्द्र  विध्दय1  स्मान्महो  राये  नृपते  वज्रबाहुः ।
रक्षा च नो मघोनः पाहि सूरीननेहसस्ते हरिवो अभिष्टौ ॥22॥

हे  परमेश्वर  हे  बलशाली  तुम  हमको  यश - वैभव  देना ।
सदा  हमारी  रक्षा  करना  तुम  सबकी  पीडा  हर लेना ॥22॥

9428
अध   यद्राजाना   गविष्टौ   सरत्सरण्युः   कारवे   जरण्युः ।
विप्रः  प्रेष्ठः  स  ह्येषां  बभूव  परा  च  वक्षदुत पर्षदेनान् ॥23॥

प्रभु  पावन  पथ  पर  पहुँचायें  निज दायित्व निभाना जानें ।
हम अपनी प्रतिभा पहचानें सम्पूर्ण जगत को अपना मानें॥23॥

9429
अधा  न्यस्व  जेन्यस्य  पुष्टौ  वृथा  रेभन्त  ईमहे  तदू  नु ।
सरण्युरस्य   सूनुरश्वो   विप्रश्चासि    श्रवसश्च   सातौ ॥24॥

हे  वरुण  देव  तुम  ही  वरेण्य  हो मनोकामना पूरी करना ।
तुम हो सुख-स्वरूप हे प्रभुवर हमें अन्न-धन देते रहना॥24॥

9430
युवोर्यदि  सख्यायास्मे  शर्धाय  स्तोमं  जुजुषे  नमस्वान् ।
विश्वत्र यस्मिन्ना गिरः समीचीः पूर्वीव गातुर्दाशत्सूनृतायै॥25॥

मित्र - वरुण  की  सुन्दर  जोडी  परस्पर  पूरक  लगते  हैं ।
परिचित पथ पावन हो जैसे वैसे ही सुखकर लगते हैं ॥25॥

9431
स   गृणानो   अद्भिर्देववानिति   सुबन्धुर्नमसा   सूक्तैः ।
वर्धदुक्थैर्वचोभिरा हि नूनं व्यध्वैति पयस उस्त्रियाया:॥26॥

पानी  प्राणी  की  प्यास  बुझाता  सबको  शीतल करता है ।
वैसे  ही  पृथ्वी  पर  पानी  पावन  पद  गाते  बहता है ॥26॥

9432
त  ऊ  षु  णो  महो  यजत्रा  भूत  देवास  ऊतये  सजोषा: ।
ये वाजॉ अनयता वियन्तो ये स्था निचेतारो अमूरा:॥27॥
 
संघ -शक्ति में अद्भुत बल है विद्वद्जन का हो निज वितान ।
सभी सुरक्षित रहें धरा पर उदित हो रहा नवा- बिहान॥27॥