Tuesday 7 January 2014

सूक्त - 68

[ऋषि- अयास्य आङ्गिरस । देवता- बृहस्पति । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

9520
उदप्रुतो  न  वयो  रक्षमाणा  वावदतो  अभ्रियस्येव  धोषा: ।
गिरिभ्रजो नोर्मयो मदन्तो बृहस्पतिमभ्य1र्का अनावन्॥1॥

कृषक फसल की रक्षा करने हेतु अलग सी ध्वनि करता है ।
वर्षा से पहले मेघ गरजता वैसे ही ज्ञानी स्तुति करता है॥1॥

9521
सं गोभिराङ्गिरसो नक्षमाणो भग इ इवेदर्यमणं निनाय ।
जने मित्रो न दम्पती अनक्ति बृहस्पते वाजयाशूँरिवाजौ॥2॥

सूर्यदेव आलोक-प्रदाता सन्ध्या-वेला चुप-चुप हो जाता ।
मित्र-समान ही पति-पत्नी को बडे-प्रेम से वही मिलाता॥2॥

9522
साध्वर्या  अतिथिनीरषिरा:  स्पार्हा:  सुवर्णा  अनवद्यरूपा: ।
बृहस्पतिःपर्वतेभ्यो वितूर्या निर्गा ऊपे यवमिव स्थिविभ्य:॥3॥

बृहस्पति  गो-सेवा  करते  हैं  गो-माता  से  बातें  करते  हैं ।
गऊ  को  कष्टों  से  वही बचाते गो-माता की पीडा हरते हैं॥3॥

9523
आप्रुषायन्मधुन ऋतस्य योनिमवक्षिपन्नर्क उल्कामिव द्यो: ।
बृहस्पतिरुध्दरन्नश्मनो गा भूम्या उद्नेव वि त्वचं बिभेद ॥4॥

पावस  से  पृथ्वी  सिञ्चित  होती  बादल हमको जल देता है ।
जिससे अन्न-फूल-फल मिलता इतने में प्राणी जी लेता है॥4॥

9524
अप ज्योतिषा तमो अन्तरिक्षादुद्नः शीपालमिव वात आजत् ।
बृहस्पतिरनुमृश्या  वलस्याभ्रमिव  वात आ चक्र आ गा: ॥5॥

पवन - देव  में  अनुपम  गति  है  जल  से शैवाल हटा देते हैं ।
वे  ही  नभ से जल बरसाते आत्मीय समझ अपना लेते हैं॥5॥

9525
यदा  वलस्य  पीयतो  जसुं  भेद्  बृहस्पतिरग्नितपोभिरर्कैः ।
दभ्दिर्न  जिह्वा परिविष्टमाददाविर्निधींरकृणोदुस्त्रियाणाम् ॥6॥

जैसे  भोजन  को  दॉत  चबाते  फिर  रसना  रस  को पाती है ।
वैसे  ही  देव  बृहस्पति  को  गौ  अकस्मात् मिल जाती है ॥6॥

9526
बृहस्पतिरमत  हि  त्यदासां  नाम  स्वरीणां  सदने गुहा यत् ।
आण्डेव भित्त्वा शकुनस्य गर्भमुदुस्त्रिया: पर्वतस्य त्मनाजत्॥7॥

दुष्टों   ने   गाय   चुराई   थी  जब  वह  जोर - जोर  से  रँभाई ।
गुरु  ने  जाना  फिर उसे छुडाया मुक्त हुई थी तब गौ-माई ॥7॥

9527
अश्नापिनध्दं मधु पर्यपश्यन्मत्स्यं न दीन उदनि क्षियन्तम् ।
निष्टज्जभार  चमसं  न वृक्षाद् बृहस्पतिर्विरवेणा विकृत्य॥8॥

गुफा  में  बँधक  थीं  सब  गायें उन  सबकी दयनीय-दशा थी ।
जल-बिन  मछली जैसी वे सब भूखी-प्यासी तडप रही थीं॥8॥

9528
सोषामविन्दत्स स्व1: सो अग्निं सो अर्केण वि बबाधे तमांसि।
बृहस्पतिर्गोवपुषो  वलस्य  निर्मज्जानं  न  पर्वणो  जभार ॥9॥

पवन  -  देवता   और   ऊषा   का   साथ   बहुत  ही  सुन्दर   है ।
आदित्य अनल और अनिल तीन वर्षा के माध्यम सुखकर हैं॥9॥

9529
हिमेव  पर्णा  मुषिता  वनानि  बृहस्पतिनाकृपयद्वलो  गा: ।
अनानुकृत्यमपुनश्चकार यात्सूर्यामासा मिथ उच्चरातः॥10॥

हिम से कमल-पत्र गल जाता बदली ने जग में  किया अँधेरा ।
बीती रात नया दिन आया रवि-किरणों ने आलोक बिखेरा॥10॥

9530
अभि श्यावं न कृशनेभिरश्वं नक्षत्रेभिः पितरो द्यामपिंशन् ।
रात्र्यां तमो अदधुर्ज्योतिरहन्बृहस्पतिर्भिनदद्रिं विदग्दा:॥11॥

निशा-काल  की  सुषमा  अद्भुत   नभ में  चॉद-चमकता  है ।
दिन-भर के श्रम से थका मनुज पुनर्नवा होकर उठता है ॥11॥

9531
इदमकर्म    नमो    अभ्रियाय    यः   पूर्वीरन्वानोनवीति ।
बृहस्पति: स हि गोभिः सो अश्वैः स वीरेभिःस नृभिर्नो वयो धात्॥12॥

मेघ - दामिनी  की  महिमा  का  यह  है  सुन्दर  गौरव-गान ।
हे गुरुवर तुम हमें भी दे दो यश का वैभव धन और धान ॥12॥                  

2 comments:

  1. सृष्टि के विभिन्न पक्ष

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  2. निशा-काल की सुषमा अद्भुत नभ में चॉद-चमकता है ।
    दिन-भर के श्रम से थका मनुज पुनर्नवा होकर उठता है ॥11॥
    बहुत सुंदर वर्णन !

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