[ऋषि- अयास्य आङ्गिरस । देवता- बृहस्पति । छन्द- त्रिष्टुप् ।]
9520
उदप्रुतो न वयो रक्षमाणा वावदतो अभ्रियस्येव धोषा: ।
गिरिभ्रजो नोर्मयो मदन्तो बृहस्पतिमभ्य1र्का अनावन्॥1॥
कृषक फसल की रक्षा करने हेतु अलग सी ध्वनि करता है ।
वर्षा से पहले मेघ गरजता वैसे ही ज्ञानी स्तुति करता है॥1॥
9521
सं गोभिराङ्गिरसो नक्षमाणो भग इ इवेदर्यमणं निनाय ।
जने मित्रो न दम्पती अनक्ति बृहस्पते वाजयाशूँरिवाजौ॥2॥
सूर्यदेव आलोक-प्रदाता सन्ध्या-वेला चुप-चुप हो जाता ।
मित्र-समान ही पति-पत्नी को बडे-प्रेम से वही मिलाता॥2॥
9522
साध्वर्या अतिथिनीरषिरा: स्पार्हा: सुवर्णा अनवद्यरूपा: ।
बृहस्पतिःपर्वतेभ्यो वितूर्या निर्गा ऊपे यवमिव स्थिविभ्य:॥3॥
बृहस्पति गो-सेवा करते हैं गो-माता से बातें करते हैं ।
गऊ को कष्टों से वही बचाते गो-माता की पीडा हरते हैं॥3॥
9523
आप्रुषायन्मधुन ऋतस्य योनिमवक्षिपन्नर्क उल्कामिव द्यो: ।
बृहस्पतिरुध्दरन्नश्मनो गा भूम्या उद्नेव वि त्वचं बिभेद ॥4॥
पावस से पृथ्वी सिञ्चित होती बादल हमको जल देता है ।
जिससे अन्न-फूल-फल मिलता इतने में प्राणी जी लेता है॥4॥
9524
अप ज्योतिषा तमो अन्तरिक्षादुद्नः शीपालमिव वात आजत् ।
बृहस्पतिरनुमृश्या वलस्याभ्रमिव वात आ चक्र आ गा: ॥5॥
पवन - देव में अनुपम गति है जल से शैवाल हटा देते हैं ।
वे ही नभ से जल बरसाते आत्मीय समझ अपना लेते हैं॥5॥
9525
यदा वलस्य पीयतो जसुं भेद् बृहस्पतिरग्नितपोभिरर्कैः ।
दभ्दिर्न जिह्वा परिविष्टमाददाविर्निधींरकृणोदुस्त्रियाणाम् ॥6॥
जैसे भोजन को दॉत चबाते फिर रसना रस को पाती है ।
वैसे ही देव बृहस्पति को गौ अकस्मात् मिल जाती है ॥6॥
9526
बृहस्पतिरमत हि त्यदासां नाम स्वरीणां सदने गुहा यत् ।
आण्डेव भित्त्वा शकुनस्य गर्भमुदुस्त्रिया: पर्वतस्य त्मनाजत्॥7॥
दुष्टों ने गाय चुराई थी जब वह जोर - जोर से रँभाई ।
गुरु ने जाना फिर उसे छुडाया मुक्त हुई थी तब गौ-माई ॥7॥
9527
अश्नापिनध्दं मधु पर्यपश्यन्मत्स्यं न दीन उदनि क्षियन्तम् ।
निष्टज्जभार चमसं न वृक्षाद् बृहस्पतिर्विरवेणा विकृत्य॥8॥
गुफा में बँधक थीं सब गायें उन सबकी दयनीय-दशा थी ।
जल-बिन मछली जैसी वे सब भूखी-प्यासी तडप रही थीं॥8॥
9528
सोषामविन्दत्स स्व1: सो अग्निं सो अर्केण वि बबाधे तमांसि।
बृहस्पतिर्गोवपुषो वलस्य निर्मज्जानं न पर्वणो जभार ॥9॥
पवन - देवता और ऊषा का साथ बहुत ही सुन्दर है ।
आदित्य अनल और अनिल तीन वर्षा के माध्यम सुखकर हैं॥9॥
9529
हिमेव पर्णा मुषिता वनानि बृहस्पतिनाकृपयद्वलो गा: ।
अनानुकृत्यमपुनश्चकार यात्सूर्यामासा मिथ उच्चरातः॥10॥
हिम से कमल-पत्र गल जाता बदली ने जग में किया अँधेरा ।
बीती रात नया दिन आया रवि-किरणों ने आलोक बिखेरा॥10॥
9530
अभि श्यावं न कृशनेभिरश्वं नक्षत्रेभिः पितरो द्यामपिंशन् ।
रात्र्यां तमो अदधुर्ज्योतिरहन्बृहस्पतिर्भिनदद्रिं विदग्दा:॥11॥
निशा-काल की सुषमा अद्भुत नभ में चॉद-चमकता है ।
दिन-भर के श्रम से थका मनुज पुनर्नवा होकर उठता है ॥11॥
9531
इदमकर्म नमो अभ्रियाय यः पूर्वीरन्वानोनवीति ।
बृहस्पति: स हि गोभिः सो अश्वैः स वीरेभिःस नृभिर्नो वयो धात्॥12॥
मेघ - दामिनी की महिमा का यह है सुन्दर गौरव-गान ।
हे गुरुवर तुम हमें भी दे दो यश का वैभव धन और धान ॥12॥
9520
उदप्रुतो न वयो रक्षमाणा वावदतो अभ्रियस्येव धोषा: ।
गिरिभ्रजो नोर्मयो मदन्तो बृहस्पतिमभ्य1र्का अनावन्॥1॥
कृषक फसल की रक्षा करने हेतु अलग सी ध्वनि करता है ।
वर्षा से पहले मेघ गरजता वैसे ही ज्ञानी स्तुति करता है॥1॥
9521
सं गोभिराङ्गिरसो नक्षमाणो भग इ इवेदर्यमणं निनाय ।
जने मित्रो न दम्पती अनक्ति बृहस्पते वाजयाशूँरिवाजौ॥2॥
सूर्यदेव आलोक-प्रदाता सन्ध्या-वेला चुप-चुप हो जाता ।
मित्र-समान ही पति-पत्नी को बडे-प्रेम से वही मिलाता॥2॥
9522
साध्वर्या अतिथिनीरषिरा: स्पार्हा: सुवर्णा अनवद्यरूपा: ।
बृहस्पतिःपर्वतेभ्यो वितूर्या निर्गा ऊपे यवमिव स्थिविभ्य:॥3॥
बृहस्पति गो-सेवा करते हैं गो-माता से बातें करते हैं ।
गऊ को कष्टों से वही बचाते गो-माता की पीडा हरते हैं॥3॥
9523
आप्रुषायन्मधुन ऋतस्य योनिमवक्षिपन्नर्क उल्कामिव द्यो: ।
बृहस्पतिरुध्दरन्नश्मनो गा भूम्या उद्नेव वि त्वचं बिभेद ॥4॥
पावस से पृथ्वी सिञ्चित होती बादल हमको जल देता है ।
जिससे अन्न-फूल-फल मिलता इतने में प्राणी जी लेता है॥4॥
9524
अप ज्योतिषा तमो अन्तरिक्षादुद्नः शीपालमिव वात आजत् ।
बृहस्पतिरनुमृश्या वलस्याभ्रमिव वात आ चक्र आ गा: ॥5॥
पवन - देव में अनुपम गति है जल से शैवाल हटा देते हैं ।
वे ही नभ से जल बरसाते आत्मीय समझ अपना लेते हैं॥5॥
9525
यदा वलस्य पीयतो जसुं भेद् बृहस्पतिरग्नितपोभिरर्कैः ।
दभ्दिर्न जिह्वा परिविष्टमाददाविर्निधींरकृणोदुस्त्रियाणाम् ॥6॥
जैसे भोजन को दॉत चबाते फिर रसना रस को पाती है ।
वैसे ही देव बृहस्पति को गौ अकस्मात् मिल जाती है ॥6॥
9526
बृहस्पतिरमत हि त्यदासां नाम स्वरीणां सदने गुहा यत् ।
आण्डेव भित्त्वा शकुनस्य गर्भमुदुस्त्रिया: पर्वतस्य त्मनाजत्॥7॥
दुष्टों ने गाय चुराई थी जब वह जोर - जोर से रँभाई ।
गुरु ने जाना फिर उसे छुडाया मुक्त हुई थी तब गौ-माई ॥7॥
9527
अश्नापिनध्दं मधु पर्यपश्यन्मत्स्यं न दीन उदनि क्षियन्तम् ।
निष्टज्जभार चमसं न वृक्षाद् बृहस्पतिर्विरवेणा विकृत्य॥8॥
गुफा में बँधक थीं सब गायें उन सबकी दयनीय-दशा थी ।
जल-बिन मछली जैसी वे सब भूखी-प्यासी तडप रही थीं॥8॥
9528
सोषामविन्दत्स स्व1: सो अग्निं सो अर्केण वि बबाधे तमांसि।
बृहस्पतिर्गोवपुषो वलस्य निर्मज्जानं न पर्वणो जभार ॥9॥
पवन - देवता और ऊषा का साथ बहुत ही सुन्दर है ।
आदित्य अनल और अनिल तीन वर्षा के माध्यम सुखकर हैं॥9॥
9529
हिमेव पर्णा मुषिता वनानि बृहस्पतिनाकृपयद्वलो गा: ।
अनानुकृत्यमपुनश्चकार यात्सूर्यामासा मिथ उच्चरातः॥10॥
हिम से कमल-पत्र गल जाता बदली ने जग में किया अँधेरा ।
बीती रात नया दिन आया रवि-किरणों ने आलोक बिखेरा॥10॥
9530
अभि श्यावं न कृशनेभिरश्वं नक्षत्रेभिः पितरो द्यामपिंशन् ।
रात्र्यां तमो अदधुर्ज्योतिरहन्बृहस्पतिर्भिनदद्रिं विदग्दा:॥11॥
निशा-काल की सुषमा अद्भुत नभ में चॉद-चमकता है ।
दिन-भर के श्रम से थका मनुज पुनर्नवा होकर उठता है ॥11॥
9531
इदमकर्म नमो अभ्रियाय यः पूर्वीरन्वानोनवीति ।
बृहस्पति: स हि गोभिः सो अश्वैः स वीरेभिःस नृभिर्नो वयो धात्॥12॥
मेघ - दामिनी की महिमा का यह है सुन्दर गौरव-गान ।
हे गुरुवर तुम हमें भी दे दो यश का वैभव धन और धान ॥12॥
सृष्टि के विभिन्न पक्ष
ReplyDeleteनिशा-काल की सुषमा अद्भुत नभ में चॉद-चमकता है ।
ReplyDeleteदिन-भर के श्रम से थका मनुज पुनर्नवा होकर उठता है ॥11॥
बहुत सुंदर वर्णन !