[ऋषि- इन्द्र वैकुण्ठ । देवता- -इन्द्र वैकुण्ठ । छन्द- जगती-त्रिष्टुप् ।]
9301
अहं दां गृणते पूर्व्यं वस्वहं ब्रह्म कृणवं मह्यं वर्धनम् ।
अहं भुवं यजमानस्य चोदितायज्वनःसाक्षि विश्वस्मिन्भरे॥1॥
वह प्रभु ही सद् - गति देता है चार - वेद का देता ज्ञान ।
सत् - पथ का प्रेरक परमेश्वर ऋतम्भरा का देता दान ॥1॥
9302
मां धुरिन्द्रं नाम देवता दिव्यश्च ग्मश्चापां च जन्तवः ।
अहं हरी वृषणा विव्रता रघू अहं वज्रं शवसे धृष्ण्वा ददे ॥2॥
हे पूजनीय हे परमेश्वर तुम हो प्रभु अतुलित बल - शाली ।
हमें समर्थ बना दो भगवन बन जायें हम प्रतिभा-शाली ॥2॥
9303
अहमत्कं कवये शिश्नथं हथैरहं कुत्समावमाभिरूतिभिः ।
अहं शुष्णस्य श्नथिता वधर्यमं न यो रर आर्यं नाम दस्यवे॥3॥
प्रभु ज्ञानी के परम - मित्र हैं वे सबकी रक्षा करते हैं ।
शुभ-चिन्तन वे ही देते हैं वे आत्मीय मुझे लगते हैं ॥3॥
9304
अहं पितेव वेतसूँरभिष्टये तुग्रं कुत्साय स्मदिभं च रन्धयम् ।
अहं भुवं यजमानस्य राजनि प्र यद्भरे तुजये न प्रियाधृषे॥4॥
परमेश्वर हैं पिता हमारे अप - यश से हमें बचाते हैं ।
सुख - साधन हमको देते हैं सत - पथ पर पहुँचाते हैं ॥4॥
9305
अहं रन्धयं मृगयं श्रुतर्वणे यन्माजिहीत वयुना चनानुषक् ।
अहं वेशं नम्रमायवेSकरमहं सव्याय पड्गृभिमरन्धयम्॥5॥
वेद- मार्ग में जो चलता है उसको समाधि का सुख देते हैं ।
प्रभु ही आत्म-ज्ञान देते हैं सबकी विपदा हर लेते हैं ॥5॥
9306
अहं स यो नववास्त्वं बृहद्रथं सं वृत्रेव दासं वृत्रहारुजम् ।
यद्वर्धयन्तं प्रथयन्तमानुषग्दूरे पारे रजसो रोचनाकरम् ॥6॥
दुष्ट - दमन अति आवश्यक है हे प्रभु तुम ही रक्षा करना ।
अन्न- धान तुम ही देना प्रभु वरद-हस्त हम पर रखना ॥6॥
9307
अहं सूर्यस्य परि याम्याशुभिः प्रैतशेभिर्वहमान ओजसा ।
यन्मा सावो मनुष आह निर्णिज ऋधक्कृषे दासं कृत्व्यं हथैः॥7॥
तुम्हीं हमारे शुभ - चिन्तक हो सन्मार्ग तुम्हीं अब दिखलाना ।
पर - हित में यह जीवन बीते कर्म - योग तुम ही सिखलाना॥7॥
9308
अहं सप्तहा नहुषो नहुष्टरः प्राश्रावयं शवसा तुर्वशं यदुम् ।
अहं न्य1न्यं सहसा सहस्करं नव व्राधतो नवतिं च वक्षयम्॥8॥
सत्पथ - गामी जन को तुम ही यश - वैभव देकर जाते हो ।
सज्जन को तुम्हीं समर्थ बनाते आत्मीय मान अपनाते हो॥8॥
9309
अहं सप्त स्त्रवतो धारयं वृषा द्रवित्न्वः पृथिव्यां सीरा अधि ।
अहमर्णांसि वि तिरामि सुक्रतुर्युधा विदं मनवे गातुमिष्टये॥9॥
तुम सबको अभीष्ट फल देते हर नर-तन में तुम रहते हो ।
तुम ही सबकी रक्षा करते दुष्टों को दण्डित करते हो ॥9॥
9310
अहं तदासु धारयं यदासु न देवश्चन त्वष्टादधारयद्रुशत् ।
स्पार्हं गवामूधःसु वक्षणास्वा मधोर्मधु श्वात्र्यं सोममाशिरम्॥10॥
गो - रस उज्ज्वल अमृत - सम है भाग्य-वान इसको पीता है ।
सोम- गो-रस संपृक्त कर पियें तो मनुज सौ-बरस जीता है ॥10॥
9311
एवा देवॉ इन्द्रो विव्ये नृन् प्र च्यौत्नेन मघवा सत्यराधा: ।
विश्वेत्ता ते हरिवः शचीवोSभि तुरासः स्वयशो गृणन्ति॥11॥
प्रभु के अति-आत्मीय हम सभी दिव्य - गुणों का वही निधान।
वह तेजस्वी ओजस्वी है ऋत्विक् करते उसका गुण-गान॥11॥
9301
अहं दां गृणते पूर्व्यं वस्वहं ब्रह्म कृणवं मह्यं वर्धनम् ।
अहं भुवं यजमानस्य चोदितायज्वनःसाक्षि विश्वस्मिन्भरे॥1॥
वह प्रभु ही सद् - गति देता है चार - वेद का देता ज्ञान ।
सत् - पथ का प्रेरक परमेश्वर ऋतम्भरा का देता दान ॥1॥
9302
मां धुरिन्द्रं नाम देवता दिव्यश्च ग्मश्चापां च जन्तवः ।
अहं हरी वृषणा विव्रता रघू अहं वज्रं शवसे धृष्ण्वा ददे ॥2॥
हे पूजनीय हे परमेश्वर तुम हो प्रभु अतुलित बल - शाली ।
हमें समर्थ बना दो भगवन बन जायें हम प्रतिभा-शाली ॥2॥
9303
अहमत्कं कवये शिश्नथं हथैरहं कुत्समावमाभिरूतिभिः ।
अहं शुष्णस्य श्नथिता वधर्यमं न यो रर आर्यं नाम दस्यवे॥3॥
प्रभु ज्ञानी के परम - मित्र हैं वे सबकी रक्षा करते हैं ।
शुभ-चिन्तन वे ही देते हैं वे आत्मीय मुझे लगते हैं ॥3॥
9304
अहं पितेव वेतसूँरभिष्टये तुग्रं कुत्साय स्मदिभं च रन्धयम् ।
अहं भुवं यजमानस्य राजनि प्र यद्भरे तुजये न प्रियाधृषे॥4॥
परमेश्वर हैं पिता हमारे अप - यश से हमें बचाते हैं ।
सुख - साधन हमको देते हैं सत - पथ पर पहुँचाते हैं ॥4॥
9305
अहं रन्धयं मृगयं श्रुतर्वणे यन्माजिहीत वयुना चनानुषक् ।
अहं वेशं नम्रमायवेSकरमहं सव्याय पड्गृभिमरन्धयम्॥5॥
वेद- मार्ग में जो चलता है उसको समाधि का सुख देते हैं ।
प्रभु ही आत्म-ज्ञान देते हैं सबकी विपदा हर लेते हैं ॥5॥
9306
अहं स यो नववास्त्वं बृहद्रथं सं वृत्रेव दासं वृत्रहारुजम् ।
यद्वर्धयन्तं प्रथयन्तमानुषग्दूरे पारे रजसो रोचनाकरम् ॥6॥
दुष्ट - दमन अति आवश्यक है हे प्रभु तुम ही रक्षा करना ।
अन्न- धान तुम ही देना प्रभु वरद-हस्त हम पर रखना ॥6॥
9307
अहं सूर्यस्य परि याम्याशुभिः प्रैतशेभिर्वहमान ओजसा ।
यन्मा सावो मनुष आह निर्णिज ऋधक्कृषे दासं कृत्व्यं हथैः॥7॥
तुम्हीं हमारे शुभ - चिन्तक हो सन्मार्ग तुम्हीं अब दिखलाना ।
पर - हित में यह जीवन बीते कर्म - योग तुम ही सिखलाना॥7॥
9308
अहं सप्तहा नहुषो नहुष्टरः प्राश्रावयं शवसा तुर्वशं यदुम् ।
अहं न्य1न्यं सहसा सहस्करं नव व्राधतो नवतिं च वक्षयम्॥8॥
सत्पथ - गामी जन को तुम ही यश - वैभव देकर जाते हो ।
सज्जन को तुम्हीं समर्थ बनाते आत्मीय मान अपनाते हो॥8॥
9309
अहं सप्त स्त्रवतो धारयं वृषा द्रवित्न्वः पृथिव्यां सीरा अधि ।
अहमर्णांसि वि तिरामि सुक्रतुर्युधा विदं मनवे गातुमिष्टये॥9॥
तुम सबको अभीष्ट फल देते हर नर-तन में तुम रहते हो ।
तुम ही सबकी रक्षा करते दुष्टों को दण्डित करते हो ॥9॥
9310
अहं तदासु धारयं यदासु न देवश्चन त्वष्टादधारयद्रुशत् ।
स्पार्हं गवामूधःसु वक्षणास्वा मधोर्मधु श्वात्र्यं सोममाशिरम्॥10॥
गो - रस उज्ज्वल अमृत - सम है भाग्य-वान इसको पीता है ।
सोम- गो-रस संपृक्त कर पियें तो मनुज सौ-बरस जीता है ॥10॥
9311
एवा देवॉ इन्द्रो विव्ये नृन् प्र च्यौत्नेन मघवा सत्यराधा: ।
विश्वेत्ता ते हरिवः शचीवोSभि तुरासः स्वयशो गृणन्ति॥11॥
प्रभु के अति-आत्मीय हम सभी दिव्य - गुणों का वही निधान।
वह तेजस्वी ओजस्वी है ऋत्विक् करते उसका गुण-गान॥11॥
बहुत सुन्दर अनुवाद
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