[ऋषि- बृहदुक्थ वामदेव । देवता- इन्द्र । छन्द- त्रिष्टुप् ।]
9351
दूरे तन्नाम गुह्यं पराचैर्यत्त्वा भीते अह्वयेतां वयोधै ।
उदस्तभ्ना:पृथिवीं द्यामभीके भ्रातुःपुत्रान्मघवन्तित्विषाणः॥1॥
परमेश्वर पावन रहस्य है विरले ही उन्हें जानते हैं ।
वह प्रभु ही सबका आश्रय है ज्ञानी उनको पहचानते हैं॥1॥
9352
महत्तन्नाम गुह्यं पुरुस्पृग्येन भूतं जनयो येन भव्यम् ।
प्रत्नं जातं ज्योतिर्यदस्य प्रियं प्रिया: समविशन्त पञ्च॥2॥
हे परमेश्वर हे परम - मित्र तुझमें अद्भुत आकर्षण है ।
गत-आगत के तुम्हीं सृजेता तुम्हें कोटिशः अभिवादन है॥2॥
9353
आ रोदसी अपृणादोत मध्यं पञ्च देवॉ ऋतुशः सप्तसप्त ।
चतुस्त्रिंशता पुरुधा वि चष्टे सरूपेण ज्योतिषा विव्रतेन ॥3॥
परमेश्वर ने ही पञ्च भूत उनचास पवन को रूप दिया ।
चौतीस देव सम तेजस्वी प्रभु ने विभिन्न अवतार लिया ॥3॥
9354
यदुष औच्छः प्रथमा विभानामजनयो येन पुष्टस्य पुष्टम् ।
यते जामित्वमवरं परस्या महन्महत्या असुरत्वमेकम् ॥4॥
सूरज के आने के पहले मुस्काती हुई ऊषा आती है ।
ऊर्ध्व - लोक - वसिनी ऊषा ही जग को भैरवी सुनाती है ॥4॥
9355
विधुं दद्राणं समने बहूनां युवानं सन्तं पलितो जगार ।
देवस्य पश्य काव्यं महित्वाद्या ममार स ह्यः समान ॥5॥
कर्म - योग में निपुण मनुज भी एक दिन बूढा हो जाता है ।
जो कल जिंदा था आज मरा कल फिर नव-जीवन पाता है॥5॥
9356
शाक्मना शाको अरुणः सुपर्ण आ यो महः शूरः सदाननीळः ।
यच्चिकेत सत्यमित्तन्न मोघं वसु स्पार्हमुत जेतोत दाता ॥6॥
वह परमेश्वर महाबली है तेजस्वी है सर्व - व्याप्त है ।
सत्य - रूप है वह परमात्मा ज्ञानी को वह सहज प्राप्त है ॥6॥
9357
ऐभिर्ददे वृष्ण्या पौंस्यानि येभिरौक्षद्वृत्रहत्याय व्रजी ।
ये कर्मणः क्रियमाणस्य मह्न ऋतेकर्ममुदजायन्त देवा:॥7॥
परमेश्वर की महिमा अद्भुत पृथ्वी पर होती बरसात ।
बादल नभ से जल बरसाते पल में खिलता है पात-पात॥7॥
9358
युजा कर्माणि जनयन्विश्वौजा अशस्तिहा विश्वमनास्तुराषाट्।
पीत्वी सोमस्य दिव आ वृधानः शूरो निर्युधाधमद्दसस्यून्॥8॥
हे परमेश्वर तुम ही प्रणम्य हो सत्पथ पर तुम ही ले चलना ।
पावन प्रज्ञा पायें प्रभु-वर जगती की तुम रक्षा करना ॥8॥
9351
दूरे तन्नाम गुह्यं पराचैर्यत्त्वा भीते अह्वयेतां वयोधै ।
उदस्तभ्ना:पृथिवीं द्यामभीके भ्रातुःपुत्रान्मघवन्तित्विषाणः॥1॥
परमेश्वर पावन रहस्य है विरले ही उन्हें जानते हैं ।
वह प्रभु ही सबका आश्रय है ज्ञानी उनको पहचानते हैं॥1॥
9352
महत्तन्नाम गुह्यं पुरुस्पृग्येन भूतं जनयो येन भव्यम् ।
प्रत्नं जातं ज्योतिर्यदस्य प्रियं प्रिया: समविशन्त पञ्च॥2॥
हे परमेश्वर हे परम - मित्र तुझमें अद्भुत आकर्षण है ।
गत-आगत के तुम्हीं सृजेता तुम्हें कोटिशः अभिवादन है॥2॥
9353
आ रोदसी अपृणादोत मध्यं पञ्च देवॉ ऋतुशः सप्तसप्त ।
चतुस्त्रिंशता पुरुधा वि चष्टे सरूपेण ज्योतिषा विव्रतेन ॥3॥
परमेश्वर ने ही पञ्च भूत उनचास पवन को रूप दिया ।
चौतीस देव सम तेजस्वी प्रभु ने विभिन्न अवतार लिया ॥3॥
9354
यदुष औच्छः प्रथमा विभानामजनयो येन पुष्टस्य पुष्टम् ।
यते जामित्वमवरं परस्या महन्महत्या असुरत्वमेकम् ॥4॥
सूरज के आने के पहले मुस्काती हुई ऊषा आती है ।
ऊर्ध्व - लोक - वसिनी ऊषा ही जग को भैरवी सुनाती है ॥4॥
9355
विधुं दद्राणं समने बहूनां युवानं सन्तं पलितो जगार ।
देवस्य पश्य काव्यं महित्वाद्या ममार स ह्यः समान ॥5॥
कर्म - योग में निपुण मनुज भी एक दिन बूढा हो जाता है ।
जो कल जिंदा था आज मरा कल फिर नव-जीवन पाता है॥5॥
9356
शाक्मना शाको अरुणः सुपर्ण आ यो महः शूरः सदाननीळः ।
यच्चिकेत सत्यमित्तन्न मोघं वसु स्पार्हमुत जेतोत दाता ॥6॥
वह परमेश्वर महाबली है तेजस्वी है सर्व - व्याप्त है ।
सत्य - रूप है वह परमात्मा ज्ञानी को वह सहज प्राप्त है ॥6॥
9357
ऐभिर्ददे वृष्ण्या पौंस्यानि येभिरौक्षद्वृत्रहत्याय व्रजी ।
ये कर्मणः क्रियमाणस्य मह्न ऋतेकर्ममुदजायन्त देवा:॥7॥
परमेश्वर की महिमा अद्भुत पृथ्वी पर होती बरसात ।
बादल नभ से जल बरसाते पल में खिलता है पात-पात॥7॥
9358
युजा कर्माणि जनयन्विश्वौजा अशस्तिहा विश्वमनास्तुराषाट्।
पीत्वी सोमस्य दिव आ वृधानः शूरो निर्युधाधमद्दसस्यून्॥8॥
हे परमेश्वर तुम ही प्रणम्य हो सत्पथ पर तुम ही ले चलना ।
पावन प्रज्ञा पायें प्रभु-वर जगती की तुम रक्षा करना ॥8॥
सुन्दर भावानुवाद
ReplyDeleteश्लोकों का अनुपम दोहाकारण...
ReplyDeleteआप्त वचन!
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