Monday, 6 January 2014

सूक्त - 69

[ऋषि- सुमित्र वाधय्श्व । देवता- अग्नि । छन्द- त्रिष्टुप्- जगती ।]

9532
भद्रा अग्नेर्वध्रय्श्वस्य संदृशो वामी प्रणीतिः सुरणा उपेतयः ।
यदीं सुमित्रा विशो अग्र इन्धते घृतेनाहुतो जरते दविद्युततः॥1॥

बँधी हुई आलोक-किरण से ज्योतित अग्नि-देव का दर्शन ।
मुझको मन-मोहक लगता है ऊष्मा से भर जाता तन-मन॥1॥

9533
घृतमग्नेर्वध्रयश्वस्य  वर्धनं  घृतमन्नं घृतम्वस्य मेदनम् ।
घृतेनाहुत उर्विया वि पप्रथे सूर्य इव रोचते सर्पिरासुतिः॥2॥

हविष्यान्न उनका भोजन है पर विश्व समूचा करता भोग ।
घृत आहुतियॉ दी जाती हैं हर मनुज यज्ञ से हो निरोग॥2॥

9534
यत्ते  मनुर्यदनीकं  सुमित्रः  समीधे  अग्ने  तदिदं  नवीयः ।
स रेवच्छोच स गिरो जुषस्व स वाजं दर्शि स इह श्रवो धा:॥3॥

अग्नि - देव  की  अद्भुत महिमा नित-नवीन है इनका रूप ।
हे अनल - देवता  हमें अन्न दो अग्नि-देव हैं जग  के भूप॥3॥

9535
यं  त्वा  पूर्वमिळितो  वध्रय्श्वः समीधे  अग्ने  स इदं जुषस्व ।
स नः स्तिपा उत भवा तनूपा दात्रं रक्षस्व यदिदं ते अस्मे॥4॥

हे  प्रभु  तुम्हीं  सुरक्षा  देना  हम  सब  तुम्हें  नमन  करते हैं ।
उत्तम-धन-सन्तति  देना  प्रभु अग्नि-देव जीवन गढते हैं॥4॥

9536
भवा द्युम्नी वाध्रय्श्वोत गोपा मा त्वा तारीदभिमातिर्जनानाम्।
शूर इव धृष्णुश्च्यवनः सुमित्रः प्र नु वोचं वाध्रय्श्वस्य नाम॥5॥

हे अग्नि-देव तुम रहो प्रतिष्ठित रिपु-दल को तुम मार भगाओ।
तुम  सब  पर  भारी  पडते  हो  आवाहन है तुम आ जाओ ॥5॥

9537
समज्रया   पर्वत्या3वसूनि   दासा   वृत्राण्यार्या   जिगेथ ।
शूर इव धृष्णुश्च्यवनो जनानां त्वमग्ने पृतनायूँरभि ष्या:॥6॥

तुम  ही  मेरे  शुभ-चिन्तक  हो  तुम ही  देते  हो  धन-धान ।  
तुम  सबकी  रक्षा  करते  हो  तुम शौर्य-धैर्य का देना दान॥6॥

9538
दीर्धतन्तुर्बृहदुकक्षायमग्निः सहस्त्रस्तरी: शतनीथ ऋभ्वा ।
द्युमान द्युमत्सु नृभिर्मृज्यमानः सुमित्रेषु दीदयो देवयत्सु॥7॥

पृथक-पृथक पथ पर  चलते  हो तुम महिमामय तेजस्वी हो ।
हे अग्निदेव आलोक-प्रदाता तुम्हीं शान्त तुम ओजस्वी हो॥7॥

9539
त्वे   धेनुः   सुदुधा   जातवेदोSसश्चतेव  समना   सबर्धुक् ।
त्वं  नृभिर्दक्षिणावद्भिरग्ने  सुमित्रेभिरिध्यसे देवयद्भिः ॥8॥

हे  अग्नि - देव  हे  परममित्र मुझको वाणी का वैभव देना ।
सबकी पीडा हर लेना प्रभु आत्मीय समझ अपना लेना॥8॥

9540
देवाश्चित्ते  अमृता  जातवेदो  महिमानं  वाध्रय्श्व  प्र वोचन् ।
यत्सम्पृच्छं मानुषीर्विश आयन्त्वं नृभिरजयस्त्वावृधेभिः॥9॥

तेरी  महिमा  सभी  मानते  तुम  ही सबकी रक्षा करते हो ।
शरण में आए हैं हम तुम्हारी तुम ही सबका दुख हरते हो॥9॥

9541
पितेव   पुत्रमबबिभरुपस्थे   त्वामग्ने   वध्रय्श्वः  सपर्यन् ।
जुषाणो अस्य समिधं यविष्ठोत पूर्वां अवनोर्व्राधतश्चित् ॥10॥

तुम  प्रतिदिन  मेरे  घर  आना  हम तेरा आवाहन करते हैं ।
रिपुओं से तुम मुझे बचाना पावन-पथ पर हम चलते हैं॥10॥

9542
शश्वदग्निर्वध्रय्श्वस्य   शत्रून्नृभिर्जिगाय   सुतसोमवद्भिः ।
समनं   चिददहश्चित्रभानोSव   व्राधन्तमभिनद्वृधश्चित्॥11॥

जब  भी  रण  में  तुम  जाते  हो  विजयी  होकर ही आते हो ।
अशुभ को तुम्हीं भस्म करते हो सबके मन को भाते हो॥11॥ 

9543
अयमग्निर्वध्रय्श्वसस्य वृत्रहा सनकात्प्रेध्दो नमसोपवाक्यः।
स नो अजार्मीरुत वा विजामीनभि तिष्ठ शर्धतो वाध्रय्श्व॥12॥

अग्नि - देव  हैं  पूज्य  हमारे  उनको  सभी  नमन  करते  हैं ।
जीवन - नैया  पार  लगाते  सबका  क्लेश  वही  हरते हैं॥12॥   




 

3 comments:

  1. अग्नेय देवाय हविषा विधेम! :-)

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  2. तप कर जीवन गढ़ना हमको

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  3. अग्नि - देव हैं पूज्य हमारे उनको सभी नमन करते हैं ।
    जीवन - नैया पार लगाते सबका क्लेश वही हरते हैं॥12॥
    अग्नि से ही जगत बना है

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