[ऋषि- इन्द्र वैकुण्ठ । देवता- इन्द्र वैकुण्ठ । छन्द- जगती-त्रिष्टुप् ।]
9290
अहं भुवं वसुनः पूर्व्यसस्पतिरहं धनानि सं जयामि शश्वतः ।
मां हवन्ते पितरं न ज ज्न्तवोSहं दाशुषे वि भजामि भोजनम्॥1॥
वह ईश्वर अनन्त अद्भुत है वह ही शाश्वत धन देता है ।
मातु-पिता है वही हमारा दानी को भोजन वह देता है॥1॥
9291
अहमिन्द्रो रोधो वक्षो अथर्वणस्त्रिताय गा अजनयमहेरधि ।
अहं दस्युभ्यःपरि नृम्णमा ददे गोत्रा शिक्षन् दधीचे मातरिश्वने॥2॥
रिमझिम बरसात वही देता है वह सबकी रक्षा करता है ।
वह वाणी का वैभव देता जग की पीडा वह हरता है ॥2॥
9292
मह्यं त्वष्टा वज्रमतक्षदायसं मयि देवासोSवृजन्नपि क्रतुम् ।
ममानीकं सूर्यस्येव दुष्टरं मामार्यन्ति कृतेन कर्त्वेन च॥3॥
प्रभु ओजस से सब ओजस्वी वह तेजस धारण करता है ।
योगी जीवन अर्पित करता मनुज सुख-दुख पाता रहता है॥3॥
9293
अहमेतं गव्ययमश्व्यं पशुं पुरीसषिणं सायकेना हिरण्ययम् ।
पुरु सहस्त्रा नि शिशामि दाशुषे यन्मा सोमास उक्थिनो अमन्दिषुः॥4॥
वह खुश होकर ज्ञानी-जन को यश-वैभव का देता दान ।
वेद-ज्ञान वह सबको देता ऐसा है वह दया-निधान ॥4॥
9294
अहमिन्द्रो न परा जिग्य इध्दनं न मृत्यवेSव तस्थे कदा चन ।
सोममिन्मा सुन्वन्तो याचता वसु न मे पूरवःसख्ये रिषाथन॥5॥
वह प्रभु सर्व-शक्ति का मालिक सब पर विजय प्राप्त करता है ।
मनो-कामना पूरी करता सखा-भाव हम पर रखता है ॥5॥
9295
अहमेताञ्छाश्वसतो द्वाद्वेद्रं ये वज्रं युधयेSकृण्वत।
आह्वयमानॉ अव हन्मनाहनं दृळ्हा वदन्ननमस्युर्नमस्विनः॥6॥
वह प्रभु अद्भुत बल-शाली है काम-क्रोध से वही बचाता ।
दुष्टों पर वह अँकुश रखता है सज्जन को वह बली बनाता॥6॥
9296
अभी3दमेकमेका अस्मि निष्षाळभी द्वा किमु त्रयः करन्ति ।
खले न पर्षान् प्रति हान्म भूरि किं मा निन्दन्ति शत्रवोSनिन्द्रा:॥7॥
सर्व - व्याप्त है वह परमात्मा अति अद्भुत बल - शाली है ।
सबल नहीं उस जैसा कोई ऐश्वर्यवान वैभवशाली है ॥7॥
9297
अहं गुङ्गुभ्यो अतिथिग्वमिष्करमिषं न वृत्रतुरं विक्षु धारयम्।
यत्पर्णयघ्न उत वा करञ्जहे प्राहं महे वृत्रहत्ये अशुश्रवि॥8॥
ज्ञानी - जन का वह रक्षक है पहुना की पूजा करता है ।
प्यारा - पुत्र कृषक है उसका जो दुनियॉ का पेट भरता है ॥8॥
9298
प्र मे नमी साप्य इषे भुजे भूद्गवामेषे सख्या कृणुत द्विता ।
दिद्युं यदस्य समिथेषु मंहयमादिदेनं शंस्यमुक्थ्यं करम् ॥9॥
परमेश्वर अपने पुत्रों पर वरद - हस्त अविरल रखता है ।
यश - वैभव उनको देता है अन्न-धान से घर भरता है ॥9॥
9299
प्र नेमस्मिन्ददृशे सोमो अन्तर्गोपा नेममाविरस्था कृणोति।
स तिग्मशृङ्गं वृषभं युयुत्सन् द्रुहस्तस्थौ बहुले बध्दो अन्तः॥10॥
आत्म-ज्ञान प्रभु ही देता है अज्ञान-तिमिर हट जाता है ।
जो मनुज बीज जैसा बोता है वह वैसा ही फल पाता है॥10॥
9300
आदित्यानां वसूनां रुद्रियाणां देवो देवानां न मिनामि धाम।
ते मा भद्राय शवसे ततक्षुरपराजितमस्तृतमषाळ्हम् ॥11॥
हे प्रभु मुझे समर्थ बनाना मुझ पर दया-दृष्टि रखना ।
यश - वैभव मुझको देना प्रभु पथ-पाथेय तुम्हीं बनना॥11॥
9290
अहं भुवं वसुनः पूर्व्यसस्पतिरहं धनानि सं जयामि शश्वतः ।
मां हवन्ते पितरं न ज ज्न्तवोSहं दाशुषे वि भजामि भोजनम्॥1॥
वह ईश्वर अनन्त अद्भुत है वह ही शाश्वत धन देता है ।
मातु-पिता है वही हमारा दानी को भोजन वह देता है॥1॥
9291
अहमिन्द्रो रोधो वक्षो अथर्वणस्त्रिताय गा अजनयमहेरधि ।
अहं दस्युभ्यःपरि नृम्णमा ददे गोत्रा शिक्षन् दधीचे मातरिश्वने॥2॥
रिमझिम बरसात वही देता है वह सबकी रक्षा करता है ।
वह वाणी का वैभव देता जग की पीडा वह हरता है ॥2॥
9292
मह्यं त्वष्टा वज्रमतक्षदायसं मयि देवासोSवृजन्नपि क्रतुम् ।
ममानीकं सूर्यस्येव दुष्टरं मामार्यन्ति कृतेन कर्त्वेन च॥3॥
प्रभु ओजस से सब ओजस्वी वह तेजस धारण करता है ।
योगी जीवन अर्पित करता मनुज सुख-दुख पाता रहता है॥3॥
9293
अहमेतं गव्ययमश्व्यं पशुं पुरीसषिणं सायकेना हिरण्ययम् ।
पुरु सहस्त्रा नि शिशामि दाशुषे यन्मा सोमास उक्थिनो अमन्दिषुः॥4॥
वह खुश होकर ज्ञानी-जन को यश-वैभव का देता दान ।
वेद-ज्ञान वह सबको देता ऐसा है वह दया-निधान ॥4॥
9294
अहमिन्द्रो न परा जिग्य इध्दनं न मृत्यवेSव तस्थे कदा चन ।
सोममिन्मा सुन्वन्तो याचता वसु न मे पूरवःसख्ये रिषाथन॥5॥
वह प्रभु सर्व-शक्ति का मालिक सब पर विजय प्राप्त करता है ।
मनो-कामना पूरी करता सखा-भाव हम पर रखता है ॥5॥
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अहमेताञ्छाश्वसतो द्वाद्वेद्रं ये वज्रं युधयेSकृण्वत।
आह्वयमानॉ अव हन्मनाहनं दृळ्हा वदन्ननमस्युर्नमस्विनः॥6॥
वह प्रभु अद्भुत बल-शाली है काम-क्रोध से वही बचाता ।
दुष्टों पर वह अँकुश रखता है सज्जन को वह बली बनाता॥6॥
9296
अभी3दमेकमेका अस्मि निष्षाळभी द्वा किमु त्रयः करन्ति ।
खले न पर्षान् प्रति हान्म भूरि किं मा निन्दन्ति शत्रवोSनिन्द्रा:॥7॥
सर्व - व्याप्त है वह परमात्मा अति अद्भुत बल - शाली है ।
सबल नहीं उस जैसा कोई ऐश्वर्यवान वैभवशाली है ॥7॥
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अहं गुङ्गुभ्यो अतिथिग्वमिष्करमिषं न वृत्रतुरं विक्षु धारयम्।
यत्पर्णयघ्न उत वा करञ्जहे प्राहं महे वृत्रहत्ये अशुश्रवि॥8॥
ज्ञानी - जन का वह रक्षक है पहुना की पूजा करता है ।
प्यारा - पुत्र कृषक है उसका जो दुनियॉ का पेट भरता है ॥8॥
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प्र मे नमी साप्य इषे भुजे भूद्गवामेषे सख्या कृणुत द्विता ।
दिद्युं यदस्य समिथेषु मंहयमादिदेनं शंस्यमुक्थ्यं करम् ॥9॥
परमेश्वर अपने पुत्रों पर वरद - हस्त अविरल रखता है ।
यश - वैभव उनको देता है अन्न-धान से घर भरता है ॥9॥
9299
प्र नेमस्मिन्ददृशे सोमो अन्तर्गोपा नेममाविरस्था कृणोति।
स तिग्मशृङ्गं वृषभं युयुत्सन् द्रुहस्तस्थौ बहुले बध्दो अन्तः॥10॥
आत्म-ज्ञान प्रभु ही देता है अज्ञान-तिमिर हट जाता है ।
जो मनुज बीज जैसा बोता है वह वैसा ही फल पाता है॥10॥
9300
आदित्यानां वसूनां रुद्रियाणां देवो देवानां न मिनामि धाम।
ते मा भद्राय शवसे ततक्षुरपराजितमस्तृतमषाळ्हम् ॥11॥
हे प्रभु मुझे समर्थ बनाना मुझ पर दया-दृष्टि रखना ।
यश - वैभव मुझको देना प्रभु पथ-पाथेय तुम्हीं बनना॥11॥
सुन्दर प्रस्तुति...
ReplyDelete•٠• गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ... •٠• के साथ ललित वाणी ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
प्रकृति हमारी पालक पोषक
ReplyDeleteवह खुश होकर ज्ञानी-जन को यश-वैभव का देता दान ।
ReplyDeleteवेद-ज्ञान वह सबको देता ऐसा है वह दया-निधान ॥4॥
वह पल पल हमारे साथ है...