Monday, 27 January 2014

सूक्त - 48

[ऋषि- इन्द्र वैकुण्ठ । देवता- इन्द्र वैकुण्ठ । छन्द- जगती-त्रिष्टुप् ।]

9290
अहं  भुवं  वसुनः पूर्व्यसस्पतिरहं  धनानि  सं जयामि शश्वतः ।
मां हवन्ते पितरं न ज ज्न्तवोSहं दाशुषे वि भजामि भोजनम्॥1॥

वह  ईश्वर  अनन्त  अद्भुत  है  वह  ही  शाश्वत  धन  देता  है ।
मातु-पिता  है  वही  हमारा  दानी  को  भोजन वह देता है॥1॥

9291
अहमिन्द्रो  रोधो  वक्षो  अथर्वणस्त्रिताय  गा  अजनयमहेरधि ।
अहं दस्युभ्यःपरि नृम्णमा ददे गोत्रा शिक्षन् दधीचे मातरिश्वने॥2॥

रिमझिम  बरसात  वही  देता  है  वह  सबकी  रक्षा  करता  है ।
वह  वाणी  का  वैभव  देता  जग  की  पीडा  वह  हरता  है ॥2॥

9292
मह्यं त्वष्टा वज्रमतक्षदायसं मयि देवासोSवृजन्नपि क्रतुम् ।
ममानीकं  सूर्यस्येव  दुष्टरं मामार्यन्ति कृतेन कर्त्वेन च॥3॥

प्रभु ओजस  से  सब ओजस्वी  वह  तेजस  धारण करता है ।
योगी जीवन अर्पित करता मनुज सुख-दुख पाता रहता है॥3॥

9293
अहमेतं गव्ययमश्व्यं पशुं पुरीसषिणं सायकेना हिरण्ययम् ।
पुरु सहस्त्रा नि शिशामि दाशुषे यन्मा सोमास उक्थिनो अमन्दिषुः॥4॥

वह  खुश  होकर  ज्ञानी-जन  को  यश-वैभव  का देता दान ।
वेद-ज्ञान  वह  सबको  देता  ऐसा  है  वह  दया-निधान ॥4॥

9294
अहमिन्द्रो न परा जिग्य इध्दनं न मृत्यवेSव तस्थे कदा चन ।
सोममिन्मा सुन्वन्तो याचता वसु न मे पूरवःसख्ये रिषाथन॥5॥

वह प्रभु सर्व-शक्ति का मालिक सब पर विजय प्राप्त करता है ।
मनो-कामना पूरी  करता  सखा-भाव  हम  पर  रखता है ॥5॥

9295
अहमेताञ्छाश्वसतो     द्वाद्वेद्रं     ये     वज्रं     युधयेSकृण्वत।
आह्वयमानॉ अव हन्मनाहनं दृळ्हा वदन्ननमस्युर्नमस्विनः॥6॥

वह  प्रभु  अद्भुत  बल-शाली  है  काम-क्रोध  से  वही  बचाता ।
दुष्टों पर वह अँकुश रखता है सज्जन को वह बली बनाता॥6॥

9296
अभी3दमेकमेका  अस्मि  निष्षाळभी  द्वा किमु त्रयः करन्ति ।
खले न पर्षान् प्रति हान्म भूरि किं मा निन्दन्ति शत्रवोSनिन्द्रा:॥7॥

सर्व - व्याप्त  है  वह  परमात्मा अति  अद्भुत  बल - शाली  है ।
सबल   नहीं  उस  जैसा  कोई  ऐश्वर्यवान  वैभवशाली  है ॥7॥

9297
अहं गुङ्गुभ्यो अतिथिग्वमिष्करमिषं न वृत्रतुरं विक्षु धारयम्।
यत्पर्णयघ्न  उत  वा करञ्जहे प्राहं महे वृत्रहत्ये अशुश्रवि॥8॥

ज्ञानी - जन  का  वह  रक्षक  है  पहुना   की  पूजा  करता  है ।
प्यारा - पुत्र  कृषक  है उसका जो दुनियॉ का पेट भरता है ॥8॥

9298
प्र  मे  नमी  साप्य  इषे  भुजे  भूद्गवामेषे सख्या कृणुत द्विता ।
दिद्युं  यदस्य समिथेषु मंहयमादिदेनं शंस्यमुक्थ्यं करम् ॥9॥

परमेश्वर  अपने  पुत्रों  पर  वरद - हस्त  अविरल  रखता  है ।
यश - वैभव  उनको  देता  है  अन्न-धान  से घर भरता है ॥9॥

9299
प्र  नेमस्मिन्ददृशे सोमो अन्तर्गोपा नेममाविरस्था कृणोति।
स तिग्मशृङ्गं वृषभं युयुत्सन् द्रुहस्तस्थौ बहुले बध्दो अन्तः॥10॥

आत्म-ज्ञान  प्रभु  ही  देता  है अज्ञान-तिमिर  हट जाता है ।
जो मनुज बीज जैसा बोता है वह वैसा ही फल पाता है॥10॥

9300
आदित्यानां वसूनां रुद्रियाणां देवो देवानां न मिनामि धाम।
ते मा भद्राय शवसे ततक्षुरपराजितमस्तृतमषाळ्हम् ॥11॥

हे  प्रभु  मुझे  समर्थ  बनाना  मुझ  पर  दया-दृष्टि  रखना ।
यश - वैभव मुझको देना प्रभु पथ-पाथेय तुम्हीं बनना॥11॥              

3 comments:

  1. प्रकृति हमारी पालक पोषक

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  2. वह खुश होकर ज्ञानी-जन को यश-वैभव का देता दान ।
    वेद-ज्ञान वह सबको देता ऐसा है वह दया-निधान ॥4॥
    वह पल पल हमारे साथ है...

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