[ऋषि- वसुकर्ण वासुक्र । देवता- विश्वेदेवा । छन्द- जगती- त्रिष्टुप् ।]
9493
देवान्हुवे बृहच्छ्रवसः स्वस्तये ज्योतिष्कृतो अध्वरस्य प्रचेतसः।
ये वावृधुः प्रतरं विश्ववेदस इन्द्रज्येष्ठासो अमृता ऋतावृधः ॥1॥
प्रचुर अन्न-जल ज्योति-सृजेता हे परम पिता तुम ही तो हो ।
जग - कल्याण हेतु हे प्रभुवर जीवन-पथ के पाथेय तुम्हीं हो॥1॥
9494
इन्द्रप्रसूता वरुणप्रशिष्टा ये सूर्यस्य ज्योतिषो भागमानशुः ।
मरुद्गणे वृजने मन्म धीमहि माघोने यज्ञं जनयन्त सूरयः॥2॥
कर्म - योग है मानुष - जीवन वरुण - देव जीना सिखलाते ।
पवन - देव परहित समझाते आदित्य-देव आलोक-बिछाते॥2॥
9495
इन्द्रो वसुभिः परि पातु नो गयमादित्यैरर्नो अदितिः शर्म यच्छतु ।
रुद्रो रुद्रेभिर्देवो मृळयाति नस्त्वष्टा नो ग्नाभिः सुविताय जिन्वतु॥3॥
हे रुद्र - देव सुख - सन्तति देना हे प्रभु सदा सुरक्षित रखना ।
शुभ - चिन्तन हो लक्ष्य हमारा सत्पथ पर हमको ले चलना॥3॥
9496
अदितिर्द्यावापृथिवी ऋतं महदिन्द्राविष्णू मरुतः स्वर्बृहत् ।
देवॉ आदित्यॉ अवसे हवामहे वसून् रुद्रान्त्सवितारं सुदंससम्॥4॥
अवनि अनल और अनिल यहॉ पर अपनी महिमा से ठहरे हैं ।
सूरज और गगन पानी भी पर - उपकारी रूप धरे हैं ॥4॥
9497
सरस्वान्धीभिर्वरुणो धृतव्रतः पूषा विष्णुर्महिमा वायुरश्विना ।
ब्रह्मकृतो अमृता विश्ववेदसः शर्म नो यंसन त्रिवरुथमंहसः॥5॥
कर्म - योग है गति का सूचक वरुण - देवता जल-दायक हैं ।
आदित्य-अनिल और अवनि सभी सुधा-सदृश फल-दायक हैं॥5॥
9498
वृषा यज्ञो वृषणः सन्तु यज्ञिया वृषणो देवा वृषणो हविष्कृतः।
वृषणा द्यावापृथिवी ऋतावरी वृषा पर्जन्यो वृषणो वृषस्तुभः॥6॥
हे विश्व - देव तुम पूजनीय हो मनो - कामना पूरी करना ।
हम हविष्यान्न अर्पित करते हैं पथ का पाथेय तुम्हीं बनना॥6॥
9499
अग्नीषोमा वृषणा वाजसातये पुरुप्रशस्ता वृषणा उप ब्रुवे ।
यावीजिरे वृषणो देवयज्यया ता नःशर्म त्रिवरूथं वि यंसतः॥7॥
हे सोम देव तुम अन्न हमें दो अभिलाषायें पूरी करना ।
प्रभु तुम हमें सुरक्षा देना सबके मन की पीडा हरना ॥7॥
9500
धृतव्रता: क्षत्रिया यज्ञनिष्कृतो बृहद्दिवा अध्वराणामभिश्रियः।
अग्निहोतार ऋतसापो अद्रुहोSपो असृजन्ननु वृत्रतूर्ये ॥8॥
हे प्रभु कर्म-धर्म में रुचि हो कर्मों का हो समुचित निर्वाह ।
प्रभु जी द्वेष-रहित जीवन हो पर-सेवा ही हो मेरी राह ॥8॥
9501
द्यावापृथिवी जनयन्नभि व्रताप ओषधीर्वनिनानि यज्ञिया ।
अन्तरिक्षं स्व1रा पप्रुरूतये वशं देवासस्तन्वी3 नि मामृजु॥9॥
हे विश्व-देव शुभ चिन्तन देना शुभ-कर्मों का देना अनुदान ।
सबके हित में मेरा हित हो देना सुन्दर समुचित-ज्ञान ॥9॥
9502
धर्तारो दिव ऋभवः सुहस्ता वातापर्जन्या महिषस्य तन्यतोः।
आप ओषधी: प्र तिरन्तु नो गिरो भगो रातिर्वाजिनो यन्तु मे हवम्॥10॥
पर्जन्य - देव तुम पूजनीय हो सदा हमारी रक्षा करना ।
हम हवि-भोग तुम्हें देते हैं तुम अन्न-धान देते रहना ॥10॥
9503
समुद्रः सिन्धू रजो अन्तरिक्षमज एकपात्तनयित्नुरर्णवः ।
अहिर्बुध्न्यः शृणवद्वचांसि मे विश्वे देवास उत सूरयो मम॥11॥
हे अन्तरिक्ष आदित्य अवनि हे मेघ-देव और मध्यम- बानी ।
हे विश्व-देव सागर-समेत सब तक पहुँचाओ मेरी ज़ुबानी॥11॥
9504
स्याम वो मनवो देववीतये प्राञ्चं नो यज्ञं प्र णयत साधुया ।
आदित्या रुद्रा वसवः सुदानव इमा ब्रह्म शस्यमानानि जिन्वत॥12॥
हम सभी सदा सत्कर्म करें हम सब हैं मनु की संतान ।
त्याग-सहित उपभोग करें हम हो परम्परा का परिज्ञान ॥12॥
9505
दैव्या होतारा प्रथमा पुरोहित ऋतस्य पन्थामन्वेमि साधुया ।
क्षेत्रस्य पतिं प्रतिवेशमीमहे विश्वान्देवॉ अमृतॉ अप्रयुच्छतः॥13॥
आदित्य अग्नि हैं श्रेष्ठ-पुरोहित देवों का करते हैं आवाहन ।
परमेश्वर से धन-धान मॉगते अर्पित करते हैं हविष्यान्न ॥13॥
9506
वसिष्ठासः पितृवद्वाचमक्रत देवॉ इळाना ऋषिवत् स्वस्तये ।
प्रीता इव ज्ञातयः काममेत्यास्मे देवासोSव धूनुता वसु ॥14॥
ऋषि ने पूजन-अर्चन करके सबके हित की बात कही है ।
हे प्रभु तुम ही परममित्र हो तुम वह करना जो बात सही है॥14॥
9507
देवान्वसिष्ठो अमृतान्ववन्दे ये विश्वा भुवनानि प्रतस्थुः ।
ते नो रासन्तामुरुगायमद्य यूयं पात स्वस्तिभिःसदा नः॥15॥
हे अद्वितीय हे अविनाशी जीवन बन जाए देव - समान ।
सदा सुरक्षा देना प्रभुवर देते रहना धन और धान ॥15॥
9493
देवान्हुवे बृहच्छ्रवसः स्वस्तये ज्योतिष्कृतो अध्वरस्य प्रचेतसः।
ये वावृधुः प्रतरं विश्ववेदस इन्द्रज्येष्ठासो अमृता ऋतावृधः ॥1॥
प्रचुर अन्न-जल ज्योति-सृजेता हे परम पिता तुम ही तो हो ।
जग - कल्याण हेतु हे प्रभुवर जीवन-पथ के पाथेय तुम्हीं हो॥1॥
9494
इन्द्रप्रसूता वरुणप्रशिष्टा ये सूर्यस्य ज्योतिषो भागमानशुः ।
मरुद्गणे वृजने मन्म धीमहि माघोने यज्ञं जनयन्त सूरयः॥2॥
कर्म - योग है मानुष - जीवन वरुण - देव जीना सिखलाते ।
पवन - देव परहित समझाते आदित्य-देव आलोक-बिछाते॥2॥
9495
इन्द्रो वसुभिः परि पातु नो गयमादित्यैरर्नो अदितिः शर्म यच्छतु ।
रुद्रो रुद्रेभिर्देवो मृळयाति नस्त्वष्टा नो ग्नाभिः सुविताय जिन्वतु॥3॥
हे रुद्र - देव सुख - सन्तति देना हे प्रभु सदा सुरक्षित रखना ।
शुभ - चिन्तन हो लक्ष्य हमारा सत्पथ पर हमको ले चलना॥3॥
9496
अदितिर्द्यावापृथिवी ऋतं महदिन्द्राविष्णू मरुतः स्वर्बृहत् ।
देवॉ आदित्यॉ अवसे हवामहे वसून् रुद्रान्त्सवितारं सुदंससम्॥4॥
अवनि अनल और अनिल यहॉ पर अपनी महिमा से ठहरे हैं ।
सूरज और गगन पानी भी पर - उपकारी रूप धरे हैं ॥4॥
9497
सरस्वान्धीभिर्वरुणो धृतव्रतः पूषा विष्णुर्महिमा वायुरश्विना ।
ब्रह्मकृतो अमृता विश्ववेदसः शर्म नो यंसन त्रिवरुथमंहसः॥5॥
कर्म - योग है गति का सूचक वरुण - देवता जल-दायक हैं ।
आदित्य-अनिल और अवनि सभी सुधा-सदृश फल-दायक हैं॥5॥
9498
वृषा यज्ञो वृषणः सन्तु यज्ञिया वृषणो देवा वृषणो हविष्कृतः।
वृषणा द्यावापृथिवी ऋतावरी वृषा पर्जन्यो वृषणो वृषस्तुभः॥6॥
हे विश्व - देव तुम पूजनीय हो मनो - कामना पूरी करना ।
हम हविष्यान्न अर्पित करते हैं पथ का पाथेय तुम्हीं बनना॥6॥
9499
अग्नीषोमा वृषणा वाजसातये पुरुप्रशस्ता वृषणा उप ब्रुवे ।
यावीजिरे वृषणो देवयज्यया ता नःशर्म त्रिवरूथं वि यंसतः॥7॥
हे सोम देव तुम अन्न हमें दो अभिलाषायें पूरी करना ।
प्रभु तुम हमें सुरक्षा देना सबके मन की पीडा हरना ॥7॥
9500
धृतव्रता: क्षत्रिया यज्ञनिष्कृतो बृहद्दिवा अध्वराणामभिश्रियः।
अग्निहोतार ऋतसापो अद्रुहोSपो असृजन्ननु वृत्रतूर्ये ॥8॥
हे प्रभु कर्म-धर्म में रुचि हो कर्मों का हो समुचित निर्वाह ।
प्रभु जी द्वेष-रहित जीवन हो पर-सेवा ही हो मेरी राह ॥8॥
9501
द्यावापृथिवी जनयन्नभि व्रताप ओषधीर्वनिनानि यज्ञिया ।
अन्तरिक्षं स्व1रा पप्रुरूतये वशं देवासस्तन्वी3 नि मामृजु॥9॥
हे विश्व-देव शुभ चिन्तन देना शुभ-कर्मों का देना अनुदान ।
सबके हित में मेरा हित हो देना सुन्दर समुचित-ज्ञान ॥9॥
9502
धर्तारो दिव ऋभवः सुहस्ता वातापर्जन्या महिषस्य तन्यतोः।
आप ओषधी: प्र तिरन्तु नो गिरो भगो रातिर्वाजिनो यन्तु मे हवम्॥10॥
पर्जन्य - देव तुम पूजनीय हो सदा हमारी रक्षा करना ।
हम हवि-भोग तुम्हें देते हैं तुम अन्न-धान देते रहना ॥10॥
9503
समुद्रः सिन्धू रजो अन्तरिक्षमज एकपात्तनयित्नुरर्णवः ।
अहिर्बुध्न्यः शृणवद्वचांसि मे विश्वे देवास उत सूरयो मम॥11॥
हे अन्तरिक्ष आदित्य अवनि हे मेघ-देव और मध्यम- बानी ।
हे विश्व-देव सागर-समेत सब तक पहुँचाओ मेरी ज़ुबानी॥11॥
9504
स्याम वो मनवो देववीतये प्राञ्चं नो यज्ञं प्र णयत साधुया ।
आदित्या रुद्रा वसवः सुदानव इमा ब्रह्म शस्यमानानि जिन्वत॥12॥
हम सभी सदा सत्कर्म करें हम सब हैं मनु की संतान ।
त्याग-सहित उपभोग करें हम हो परम्परा का परिज्ञान ॥12॥
9505
दैव्या होतारा प्रथमा पुरोहित ऋतस्य पन्थामन्वेमि साधुया ।
क्षेत्रस्य पतिं प्रतिवेशमीमहे विश्वान्देवॉ अमृतॉ अप्रयुच्छतः॥13॥
आदित्य अग्नि हैं श्रेष्ठ-पुरोहित देवों का करते हैं आवाहन ।
परमेश्वर से धन-धान मॉगते अर्पित करते हैं हविष्यान्न ॥13॥
9506
वसिष्ठासः पितृवद्वाचमक्रत देवॉ इळाना ऋषिवत् स्वस्तये ।
प्रीता इव ज्ञातयः काममेत्यास्मे देवासोSव धूनुता वसु ॥14॥
ऋषि ने पूजन-अर्चन करके सबके हित की बात कही है ।
हे प्रभु तुम ही परममित्र हो तुम वह करना जो बात सही है॥14॥
9507
देवान्वसिष्ठो अमृतान्ववन्दे ये विश्वा भुवनानि प्रतस्थुः ।
ते नो रासन्तामुरुगायमद्य यूयं पात स्वस्तिभिःसदा नः॥15॥
हे अद्वितीय हे अविनाशी जीवन बन जाए देव - समान ।
सदा सुरक्षा देना प्रभुवर देते रहना धन और धान ॥15॥
No comments:
Post a Comment