Saturday, 18 January 2014

सूक्त - 57

[ऋषि- गौपायन । देवता- विश्वेदेवा । छन्द- गायत्री ।]

9366
मा प्र गां पथो अयं मा यज्ञादिन्द्र सोमिनः ।
मान्तः स्थुर्नो अरायतः ॥1॥

प्रभु  पावन - पथ  पर पहुँचाना पाप - पुण्य  का  पाठ - पढाना ।
संकल्प करें हम सत्कर्मों का दान की महिमा को समझाना॥1॥

9367
यो यज्ञस्य प्रसाधनस्तन्तुर्देवेष्वाततः ।
तमाहुतं नशीमहि ॥2॥

हे अग्निदेव तुम आ जाओ हवि - भोग  तुम्हीं  सबको  देते  हो ।
तुम  सबकी  रक्षा  करते  हो  तुम  सबका  दुख  हर लेते हो ॥2॥

9368
मनो न्वा हुवामहे नाराशंसेन सोमेन ।
पितृणां च मन्मभिः ॥3॥

पितर  हमारे  पूजनीय  हैं  उनके  शुभ - विचार  को  ध र- कर ।
मन-देव का आवाहन करते हैं जगहित का आधार ग्रहण-कर॥3॥

9369
आ त एतु मनः पुनः क्रत्वे दक्षाय जीवसे ।
ज्योक् च सूर्यं दृशे ॥4॥

पुनीत  कर्म  में  हम  प्रवीण  हों  सौ - बरस  सूर्य  को  देवें  जल ।
मन मेरा तन के सँग रहे तब ही मिल सकता है शुभ - फल॥॥4॥

9370
पुनर्नः पितरो मनो ददातु दैव्यो जनः ।
जीवं व्रातं सचेमहि ॥5॥

पितर  पूज्य  हैं  परम - मित्र  हैं  पथ - पाथेय  वहीं  मिलता  है ।
तब सुख-मय जीवन जीते हैं तन-मन युग्म तभी खिलता है॥5॥

9371
वयं सोम व्रते तव मनस्तनूषु बिभ्रतः ।
प्रजावन्तः सचेमहि ॥6॥

हे  सोमदेव  तुम  करो  अनुग्रह  कर्म-योग  तुम  ही सिखलाना ।
तन  सँग मन को जोड लिए हैं पर-हित का वैभव दिखलाना॥6॥    

1 comment:

  1. जीवन जीने की विधा व्यक्त करते शास्त्र

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