[ऋषि- गौपायन । देवता- विश्वेदेवा । छन्द- गायत्री ।]
9366
मा प्र गां पथो अयं मा यज्ञादिन्द्र सोमिनः ।
मान्तः स्थुर्नो अरायतः ॥1॥
प्रभु पावन - पथ पर पहुँचाना पाप - पुण्य का पाठ - पढाना ।
संकल्प करें हम सत्कर्मों का दान की महिमा को समझाना॥1॥
9367
यो यज्ञस्य प्रसाधनस्तन्तुर्देवेष्वाततः ।
तमाहुतं नशीमहि ॥2॥
हे अग्निदेव तुम आ जाओ हवि - भोग तुम्हीं सबको देते हो ।
तुम सबकी रक्षा करते हो तुम सबका दुख हर लेते हो ॥2॥
9368
मनो न्वा हुवामहे नाराशंसेन सोमेन ।
पितृणां च मन्मभिः ॥3॥
पितर हमारे पूजनीय हैं उनके शुभ - विचार को ध र- कर ।
मन-देव का आवाहन करते हैं जगहित का आधार ग्रहण-कर॥3॥
9369
आ त एतु मनः पुनः क्रत्वे दक्षाय जीवसे ।
ज्योक् च सूर्यं दृशे ॥4॥
पुनीत कर्म में हम प्रवीण हों सौ - बरस सूर्य को देवें जल ।
मन मेरा तन के सँग रहे तब ही मिल सकता है शुभ - फल॥॥4॥
9370
पुनर्नः पितरो मनो ददातु दैव्यो जनः ।
जीवं व्रातं सचेमहि ॥5॥
पितर पूज्य हैं परम - मित्र हैं पथ - पाथेय वहीं मिलता है ।
तब सुख-मय जीवन जीते हैं तन-मन युग्म तभी खिलता है॥5॥
9371
वयं सोम व्रते तव मनस्तनूषु बिभ्रतः ।
प्रजावन्तः सचेमहि ॥6॥
हे सोमदेव तुम करो अनुग्रह कर्म-योग तुम ही सिखलाना ।
तन सँग मन को जोड लिए हैं पर-हित का वैभव दिखलाना॥6॥
9366
मा प्र गां पथो अयं मा यज्ञादिन्द्र सोमिनः ।
मान्तः स्थुर्नो अरायतः ॥1॥
प्रभु पावन - पथ पर पहुँचाना पाप - पुण्य का पाठ - पढाना ।
संकल्प करें हम सत्कर्मों का दान की महिमा को समझाना॥1॥
9367
यो यज्ञस्य प्रसाधनस्तन्तुर्देवेष्वाततः ।
तमाहुतं नशीमहि ॥2॥
हे अग्निदेव तुम आ जाओ हवि - भोग तुम्हीं सबको देते हो ।
तुम सबकी रक्षा करते हो तुम सबका दुख हर लेते हो ॥2॥
9368
मनो न्वा हुवामहे नाराशंसेन सोमेन ।
पितृणां च मन्मभिः ॥3॥
पितर हमारे पूजनीय हैं उनके शुभ - विचार को ध र- कर ।
मन-देव का आवाहन करते हैं जगहित का आधार ग्रहण-कर॥3॥
9369
आ त एतु मनः पुनः क्रत्वे दक्षाय जीवसे ।
ज्योक् च सूर्यं दृशे ॥4॥
पुनीत कर्म में हम प्रवीण हों सौ - बरस सूर्य को देवें जल ।
मन मेरा तन के सँग रहे तब ही मिल सकता है शुभ - फल॥॥4॥
9370
पुनर्नः पितरो मनो ददातु दैव्यो जनः ।
जीवं व्रातं सचेमहि ॥5॥
पितर पूज्य हैं परम - मित्र हैं पथ - पाथेय वहीं मिलता है ।
तब सुख-मय जीवन जीते हैं तन-मन युग्म तभी खिलता है॥5॥
9371
वयं सोम व्रते तव मनस्तनूषु बिभ्रतः ।
प्रजावन्तः सचेमहि ॥6॥
हे सोमदेव तुम करो अनुग्रह कर्म-योग तुम ही सिखलाना ।
तन सँग मन को जोड लिए हैं पर-हित का वैभव दिखलाना॥6॥
जीवन जीने की विधा व्यक्त करते शास्त्र
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