Monday, 13 January 2014

सूक्त - 62

[ऋषि- नाभानेदिष्ठ मानव । देवता- विश्वेदेवा । छन्द- जगती-अनुष्टुप्-प्रगाथ- गायत्री- त्रिष्टुप् ।]

9433
ये  यज्ञेन  दक्षिणया  समक्ता  इन्द्रस्य  सख्यममृतत्वमानश ।
तेभ्यो भद्रमङ्गिरसो वो अस्तु प्रति गृभ्णीत मानवं सुमेधसः॥1॥

हे  प्रभु  तुम  हो  सखा  हमारे  सुधा - सदृश  है  तेरा  साथ ।
कल्याण सभी का करना प्रभुवर करते रहना हमें सनाथ॥1॥

9434
य  उदाजन्पितरो  गोमयं  वस्वृतेनाभिन्दन्परिवत्सरे   वलम् ।
दीर्घायुत्वमङ्गिरसो वो अस्तु प्रति गृभ्णीत मानवं सुमेधसः॥2॥

अज्ञान - रूप इस अन्धकार को ज्ञान-आलोक से तुम्हीं मिटाना ।
दीर्घ - आयु  मुझको  देना  प्रभु  श्रध्दावानों के सँग मिलाना ॥2॥

9435
य   ऋतेन    सूर्यमारोहयन्    दिव्यप्रथयन्पृथ्वीं    मातरं    वि ।
सुप्रजास्त्वमङ्गिरसो वो अस्तु प्रति गृभ्णीत मानवं सुमेधसः॥3॥

आदित्य-देव आलोक-प्रदाता भू-पर रवि-किरण बिखरती है ।
हम ऋषियों की सन्तानें हैं अब दुनियॉ जिसे निरखती है॥3॥

9436
अयं  नाभा  वदति  वल्गु  वो  गृहे  देवपुत्रा ऋषयस्तच्छृणोतन ।
सुब्रह्मण्यमङ्गिरसो वो अस्तु प्रति गृभ्णीत मानवं सुमेधसः॥4॥

हे  प्रभु  वाणी  का  वैभव  देना  मधुर  वचन   ही   हम  बोलें ।
श्रेष्ट-मनुज हमको बनना है निज को निकष-तुला में तौलें॥4॥

9437
विरुपास        इदृषयस्त        इद्गम्भीरवेपसः ।
ते अङ्गिरसः सूनवस्ते अग्नेः परि जज्ञिरे॥5॥

अग्नि-देव के विविध-रूप हैं जल थल नभ सब जगह समाए ।
प्रत्यक्ष और प्रच्छन्न रूप में प्रत्येक रूप में वे काम आए॥5॥

9438
ये    अग्नेः    परि    जज्ञिरे     विरुपासो     दिवस्परि ।
नवग्वो नु दशग्वो अङ्गिरस्तमः सचा देवेषु मंहते॥6॥

अग्नि - देवता  तेजस्वी  हैं दिव्य-शक्ति है उनके पास ।
अपरा - परा  सभी रूपों में रहते हैं वे ही आस-पास ॥6॥

9439
इन्द्रेण युजा निः सृजन्त वाघतो व्रजं गोमन्तमश्विनम् ।
सहस्त्रं   मे   ददतो   अष्टकर्ण्य1:   श्रयो   देवेष्वक्रत ॥7॥

परमेश्वर  यश - वैभव  देना  देते  रहना  तुम धन-धान ।
हम हवि-भाग तुम्हें देते हैं हमको गो-धन देना दान ॥7॥

9440
प्र नूनं जायतामयं मनुस्तोक्मेव रोहतु ।
यः सहस्त्रं शताश्वं सद्यो दानाय मंहते॥8॥

जो  धन दान किया करते हैं जीवन सुख मय हो जाता  है ।
क्लेश-कष्ट सब मिट जाता है जीना सार्थक हो जाता है॥8॥

9441
न  तमश्नोति  कश्चन  दिव इव सान्वारभम् ।
सावर्ण्यस्य दक्षिणा वि सिन्धुरिव पप्रथे॥9॥

कर्म - योग  का धर्म-ध्वजा है वह सूरज आलोक-प्रदाता ।
वह विश्राम नहीं करता है दुनियॉ भर में सुख बरसाता॥9॥

9442
उत दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा ।
यदुस्तुर्वश्च                        मामहे ॥10॥

घर में गो-रस भी आवश्यक है आओ पशु-धन का मान बढायें।
प्यार से इन पशुओं को पालें कभी तो हम सेवक बन जायें॥10॥

9443
सहस्त्रदा ग्रामणीर्मा रिषन्मनुः सूर्येणास्य यतमानैतु दक्षिणा ।
सावर्णेर्देवा: प्र तिरन्त्वायुर्यस्मिन्नश्रान्ता असनाम वाजम्॥11॥

आदित्य-देव को नमन करो आलस्य त्याग जीवन जी लेना ।
जीवन में कुछ रस घुल जाए अञ्जुरी भर अर्घ्य सूर्य को देना ॥11॥        
 
 

1 comment:

  1. घर में गो-रस भी आवश्यक है आओ पशु-धन का मान बढायें।
    प्यार से इन पशुओं को पालें कभी तो हम सेवक बन जायें॥10

    गायों का सम्मान था इस देश में तब दूध दही की नदियाँ बहती थीं..

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