[ऋषि- नाभानेदिष्ठ मानव । देवता- विश्वेदेवा । छन्द- जगती-अनुष्टुप्-प्रगाथ- गायत्री- त्रिष्टुप् ।]
9433
ये यज्ञेन दक्षिणया समक्ता इन्द्रस्य सख्यममृतत्वमानश ।
तेभ्यो भद्रमङ्गिरसो वो अस्तु प्रति गृभ्णीत मानवं सुमेधसः॥1॥
हे प्रभु तुम हो सखा हमारे सुधा - सदृश है तेरा साथ ।
कल्याण सभी का करना प्रभुवर करते रहना हमें सनाथ॥1॥
9434
य उदाजन्पितरो गोमयं वस्वृतेनाभिन्दन्परिवत्सरे वलम् ।
दीर्घायुत्वमङ्गिरसो वो अस्तु प्रति गृभ्णीत मानवं सुमेधसः॥2॥
अज्ञान - रूप इस अन्धकार को ज्ञान-आलोक से तुम्हीं मिटाना ।
दीर्घ - आयु मुझको देना प्रभु श्रध्दावानों के सँग मिलाना ॥2॥
9435
य ऋतेन सूर्यमारोहयन् दिव्यप्रथयन्पृथ्वीं मातरं वि ।
सुप्रजास्त्वमङ्गिरसो वो अस्तु प्रति गृभ्णीत मानवं सुमेधसः॥3॥
आदित्य-देव आलोक-प्रदाता भू-पर रवि-किरण बिखरती है ।
हम ऋषियों की सन्तानें हैं अब दुनियॉ जिसे निरखती है॥3॥
9436
अयं नाभा वदति वल्गु वो गृहे देवपुत्रा ऋषयस्तच्छृणोतन ।
सुब्रह्मण्यमङ्गिरसो वो अस्तु प्रति गृभ्णीत मानवं सुमेधसः॥4॥
हे प्रभु वाणी का वैभव देना मधुर वचन ही हम बोलें ।
श्रेष्ट-मनुज हमको बनना है निज को निकष-तुला में तौलें॥4॥
9437
विरुपास इदृषयस्त इद्गम्भीरवेपसः ।
ते अङ्गिरसः सूनवस्ते अग्नेः परि जज्ञिरे॥5॥
अग्नि-देव के विविध-रूप हैं जल थल नभ सब जगह समाए ।
प्रत्यक्ष और प्रच्छन्न रूप में प्रत्येक रूप में वे काम आए॥5॥
9438
ये अग्नेः परि जज्ञिरे विरुपासो दिवस्परि ।
नवग्वो नु दशग्वो अङ्गिरस्तमः सचा देवेषु मंहते॥6॥
अग्नि - देवता तेजस्वी हैं दिव्य-शक्ति है उनके पास ।
अपरा - परा सभी रूपों में रहते हैं वे ही आस-पास ॥6॥
9439
इन्द्रेण युजा निः सृजन्त वाघतो व्रजं गोमन्तमश्विनम् ।
सहस्त्रं मे ददतो अष्टकर्ण्य1: श्रयो देवेष्वक्रत ॥7॥
परमेश्वर यश - वैभव देना देते रहना तुम धन-धान ।
हम हवि-भाग तुम्हें देते हैं हमको गो-धन देना दान ॥7॥
9440
प्र नूनं जायतामयं मनुस्तोक्मेव रोहतु ।
यः सहस्त्रं शताश्वं सद्यो दानाय मंहते॥8॥
जो धन दान किया करते हैं जीवन सुख मय हो जाता है ।
क्लेश-कष्ट सब मिट जाता है जीना सार्थक हो जाता है॥8॥
9441
न तमश्नोति कश्चन दिव इव सान्वारभम् ।
सावर्ण्यस्य दक्षिणा वि सिन्धुरिव पप्रथे॥9॥
कर्म - योग का धर्म-ध्वजा है वह सूरज आलोक-प्रदाता ।
वह विश्राम नहीं करता है दुनियॉ भर में सुख बरसाता॥9॥
9442
उत दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा ।
यदुस्तुर्वश्च मामहे ॥10॥
घर में गो-रस भी आवश्यक है आओ पशु-धन का मान बढायें।
प्यार से इन पशुओं को पालें कभी तो हम सेवक बन जायें॥10॥
9443
सहस्त्रदा ग्रामणीर्मा रिषन्मनुः सूर्येणास्य यतमानैतु दक्षिणा ।
सावर्णेर्देवा: प्र तिरन्त्वायुर्यस्मिन्नश्रान्ता असनाम वाजम्॥11॥
आदित्य-देव को नमन करो आलस्य त्याग जीवन जी लेना ।
जीवन में कुछ रस घुल जाए अञ्जुरी भर अर्घ्य सूर्य को देना ॥11॥
9433
ये यज्ञेन दक्षिणया समक्ता इन्द्रस्य सख्यममृतत्वमानश ।
तेभ्यो भद्रमङ्गिरसो वो अस्तु प्रति गृभ्णीत मानवं सुमेधसः॥1॥
हे प्रभु तुम हो सखा हमारे सुधा - सदृश है तेरा साथ ।
कल्याण सभी का करना प्रभुवर करते रहना हमें सनाथ॥1॥
9434
य उदाजन्पितरो गोमयं वस्वृतेनाभिन्दन्परिवत्सरे वलम् ।
दीर्घायुत्वमङ्गिरसो वो अस्तु प्रति गृभ्णीत मानवं सुमेधसः॥2॥
अज्ञान - रूप इस अन्धकार को ज्ञान-आलोक से तुम्हीं मिटाना ।
दीर्घ - आयु मुझको देना प्रभु श्रध्दावानों के सँग मिलाना ॥2॥
9435
य ऋतेन सूर्यमारोहयन् दिव्यप्रथयन्पृथ्वीं मातरं वि ।
सुप्रजास्त्वमङ्गिरसो वो अस्तु प्रति गृभ्णीत मानवं सुमेधसः॥3॥
आदित्य-देव आलोक-प्रदाता भू-पर रवि-किरण बिखरती है ।
हम ऋषियों की सन्तानें हैं अब दुनियॉ जिसे निरखती है॥3॥
9436
अयं नाभा वदति वल्गु वो गृहे देवपुत्रा ऋषयस्तच्छृणोतन ।
सुब्रह्मण्यमङ्गिरसो वो अस्तु प्रति गृभ्णीत मानवं सुमेधसः॥4॥
हे प्रभु वाणी का वैभव देना मधुर वचन ही हम बोलें ।
श्रेष्ट-मनुज हमको बनना है निज को निकष-तुला में तौलें॥4॥
9437
विरुपास इदृषयस्त इद्गम्भीरवेपसः ।
ते अङ्गिरसः सूनवस्ते अग्नेः परि जज्ञिरे॥5॥
अग्नि-देव के विविध-रूप हैं जल थल नभ सब जगह समाए ।
प्रत्यक्ष और प्रच्छन्न रूप में प्रत्येक रूप में वे काम आए॥5॥
9438
ये अग्नेः परि जज्ञिरे विरुपासो दिवस्परि ।
नवग्वो नु दशग्वो अङ्गिरस्तमः सचा देवेषु मंहते॥6॥
अग्नि - देवता तेजस्वी हैं दिव्य-शक्ति है उनके पास ।
अपरा - परा सभी रूपों में रहते हैं वे ही आस-पास ॥6॥
9439
इन्द्रेण युजा निः सृजन्त वाघतो व्रजं गोमन्तमश्विनम् ।
सहस्त्रं मे ददतो अष्टकर्ण्य1: श्रयो देवेष्वक्रत ॥7॥
परमेश्वर यश - वैभव देना देते रहना तुम धन-धान ।
हम हवि-भाग तुम्हें देते हैं हमको गो-धन देना दान ॥7॥
9440
प्र नूनं जायतामयं मनुस्तोक्मेव रोहतु ।
यः सहस्त्रं शताश्वं सद्यो दानाय मंहते॥8॥
जो धन दान किया करते हैं जीवन सुख मय हो जाता है ।
क्लेश-कष्ट सब मिट जाता है जीना सार्थक हो जाता है॥8॥
9441
न तमश्नोति कश्चन दिव इव सान्वारभम् ।
सावर्ण्यस्य दक्षिणा वि सिन्धुरिव पप्रथे॥9॥
कर्म - योग का धर्म-ध्वजा है वह सूरज आलोक-प्रदाता ।
वह विश्राम नहीं करता है दुनियॉ भर में सुख बरसाता॥9॥
9442
उत दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा ।
यदुस्तुर्वश्च मामहे ॥10॥
घर में गो-रस भी आवश्यक है आओ पशु-धन का मान बढायें।
प्यार से इन पशुओं को पालें कभी तो हम सेवक बन जायें॥10॥
9443
सहस्त्रदा ग्रामणीर्मा रिषन्मनुः सूर्येणास्य यतमानैतु दक्षिणा ।
सावर्णेर्देवा: प्र तिरन्त्वायुर्यस्मिन्नश्रान्ता असनाम वाजम्॥11॥
आदित्य-देव को नमन करो आलस्य त्याग जीवन जी लेना ।
जीवन में कुछ रस घुल जाए अञ्जुरी भर अर्घ्य सूर्य को देना ॥11॥
घर में गो-रस भी आवश्यक है आओ पशु-धन का मान बढायें।
ReplyDeleteप्यार से इन पशुओं को पालें कभी तो हम सेवक बन जायें॥10
गायों का सम्मान था इस देश में तब दूध दही की नदियाँ बहती थीं..