[ऋषि- सुमित्र वाध्रय्श्व । देवता- आप्रीसूक्त । छन्द- त्रिष्टुप् ।]
9544
इमां मे अग्ने समिधं जुषस्वेळस्पदे प्रति हर्या घृताचीम् ।
वर्ष्मन्पृथिव्या:सुदिनत्वे अह्नामूर्ध्वो भव सुक्रतो देवयज्या॥1॥
हे अग्नि - देव उत्तर - वेदी पर सब समिधायें स्वीकार करो ।
हर दिन सुखकर हो हम सबका यश-धन हमें प्रदान करो॥1॥
9545
आ देवानामग्रयावेह यातु नराशंसो विश्वरूपेभिरश्वैः ।
ऋतस्य पथा नमसा मियेधो देवेभ्यो देवतमः सुषूदत्॥2॥
हे अग्निदेव हे परममित्र तुम पूजनीय पावन प्रणम्य हो ।
तुम ही सबको हवि देते हो अग्निदेव तुम अद्वितीय हो॥2॥
9546
शश्वत्तममीळते दूत्याय हविष्मन्तो मनुष्यासो अग्निम् ।
वहिष्ठैरश्वैः सुवृता रथेना देवान्वक्षि नि षदेह होता ॥3॥
हवि देने के हेतु हम सभी पावक - पावन की करें प्रतीक्षा ।
अनल सभी को सँग ले आओ करते हैं हम सभी तितीक्षा॥3॥
9547
वि प्रथतां देवजुष्टं तिरश्चा दीर्घं द्राघ्मा सुरभि भूत्वस्मे ।
अहेळता मनसा देव बर्हिरिन्द्रज्येष्ठां उशतो यक्षि देवान्।॥4॥
यह हवि - गँध दूर तक फैले सब पायें इस सुख का फल ।
पावक - प्रेम-भाव में रहना सबका जीवन हो सहज-सरल॥4॥
9548
दिवो वा सानु स्पृशता वरीयःपृथिव्या वा मात्रया वि श्रयध्वम्।
उशतीर्द्वारो महिना महद्भिर्देवं रथं रथयुर्धारयध्वम् ॥5॥
रहें प्रतिष्ठित अग्नि - देवता हम सबके घर में वास करें ।
हम अग्निदेव की महिमा गायें और धीर-वीर बनकर उभरें॥5॥
9549
देवी दिवो दुहितरा सुशिल्पे उषासानक्ता सदतां नि योनौ ।
आ वां देवास उशती उशन्त उरौ सीदन्तु सुभगे उपस्थे॥6॥
यज्ञ - वेदिका पर बैठी हैं दिवा - रात्रि दोनों ही सुख - कर ।
सभी देव- गण विद्यमान हैं अब आया है हवि का अवसर॥6॥
9550
ऊर्ध्वो ग्रावा बृहदग्नि: समिध्दः प्रिया धामान्यदितेरुपस्थे ।
पुरोहितावृत्विजा यज्ञे अस्मिन् विदुष्टरा द्रविणमा यजेथाम्॥7॥
जब सोम को कूटा जाता है देते हैं हम जब हविष्यान्न ।
तब अक्सर वर्षा होती है फिर पवनदेव देते धन- धान॥7॥
9551
तिस्त्रो देवीर्बर्हिरिदं वरीय आ सीदत चकृमा वः स्योनम् ।
मनुष्वद्यज्ञं सुधिता हवींषीळा देवी घृतपदी जुषन्त॥8॥
हे इला शारदा मातु भारती तुम तीनों का आवाहन है ।
हम हवि-भोग तुम्हें देते हैं आओ यह सुन्दर कुश-आसन है॥8॥
9552
देव त्वष्टर्यध्द चारुत्वमानडय्दङ्गिरसामभवः सचाभू: ।
स देवानां पाथ उ प्र विद्वानुशन्यक्षि द्रविणोदः सुरत्नः ॥9॥
हे पवनदेव हे पूजनीय तुम शुभ हो तुम कल्याण करो ।
तुम हविष्यान्न ले लो प्रभुवर सबको हवि-भोग प्रदान करो॥9॥
9553
वनस्पते रशनया नियूया देवानां पाथ उप वक्षि विद्वान् ।
स्वदाति देवः कृणवध्दवींष्यवतां द्यावापृथिवी हवं मे ॥10॥
अग्नि - देव सबको हवि देते सन्तुष्ट सभी को करते हैं ।
हे प्रभु वाणी का वैभव देना भाव-भक्ति से हम कहते हैं॥10॥
9554
आग्ने वः वरुणमिष्टये न इन्द्रं दिवो मरुतो अन्तरिक्षात् ।
सीदन्तु बर्हिर्विश्व आ यजत्रा:स्वाहा देवा अमृता मादयन्ताम्॥11॥
हे इन्द्र-वरुण तुम जल्दी आओ हम प्रेम से तुम्हें बुलाते हैं ।
अपने-अपने आसन पर आओ स्वाहा की महिमा गाते हैं ॥11॥
9544
इमां मे अग्ने समिधं जुषस्वेळस्पदे प्रति हर्या घृताचीम् ।
वर्ष्मन्पृथिव्या:सुदिनत्वे अह्नामूर्ध्वो भव सुक्रतो देवयज्या॥1॥
हे अग्नि - देव उत्तर - वेदी पर सब समिधायें स्वीकार करो ।
हर दिन सुखकर हो हम सबका यश-धन हमें प्रदान करो॥1॥
9545
आ देवानामग्रयावेह यातु नराशंसो विश्वरूपेभिरश्वैः ।
ऋतस्य पथा नमसा मियेधो देवेभ्यो देवतमः सुषूदत्॥2॥
हे अग्निदेव हे परममित्र तुम पूजनीय पावन प्रणम्य हो ।
तुम ही सबको हवि देते हो अग्निदेव तुम अद्वितीय हो॥2॥
9546
शश्वत्तममीळते दूत्याय हविष्मन्तो मनुष्यासो अग्निम् ।
वहिष्ठैरश्वैः सुवृता रथेना देवान्वक्षि नि षदेह होता ॥3॥
हवि देने के हेतु हम सभी पावक - पावन की करें प्रतीक्षा ।
अनल सभी को सँग ले आओ करते हैं हम सभी तितीक्षा॥3॥
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वि प्रथतां देवजुष्टं तिरश्चा दीर्घं द्राघ्मा सुरभि भूत्वस्मे ।
अहेळता मनसा देव बर्हिरिन्द्रज्येष्ठां उशतो यक्षि देवान्।॥4॥
यह हवि - गँध दूर तक फैले सब पायें इस सुख का फल ।
पावक - प्रेम-भाव में रहना सबका जीवन हो सहज-सरल॥4॥
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दिवो वा सानु स्पृशता वरीयःपृथिव्या वा मात्रया वि श्रयध्वम्।
उशतीर्द्वारो महिना महद्भिर्देवं रथं रथयुर्धारयध्वम् ॥5॥
रहें प्रतिष्ठित अग्नि - देवता हम सबके घर में वास करें ।
हम अग्निदेव की महिमा गायें और धीर-वीर बनकर उभरें॥5॥
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देवी दिवो दुहितरा सुशिल्पे उषासानक्ता सदतां नि योनौ ।
आ वां देवास उशती उशन्त उरौ सीदन्तु सुभगे उपस्थे॥6॥
यज्ञ - वेदिका पर बैठी हैं दिवा - रात्रि दोनों ही सुख - कर ।
सभी देव- गण विद्यमान हैं अब आया है हवि का अवसर॥6॥
9550
ऊर्ध्वो ग्रावा बृहदग्नि: समिध्दः प्रिया धामान्यदितेरुपस्थे ।
पुरोहितावृत्विजा यज्ञे अस्मिन् विदुष्टरा द्रविणमा यजेथाम्॥7॥
जब सोम को कूटा जाता है देते हैं हम जब हविष्यान्न ।
तब अक्सर वर्षा होती है फिर पवनदेव देते धन- धान॥7॥
9551
तिस्त्रो देवीर्बर्हिरिदं वरीय आ सीदत चकृमा वः स्योनम् ।
मनुष्वद्यज्ञं सुधिता हवींषीळा देवी घृतपदी जुषन्त॥8॥
हे इला शारदा मातु भारती तुम तीनों का आवाहन है ।
हम हवि-भोग तुम्हें देते हैं आओ यह सुन्दर कुश-आसन है॥8॥
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देव त्वष्टर्यध्द चारुत्वमानडय्दङ्गिरसामभवः सचाभू: ।
स देवानां पाथ उ प्र विद्वानुशन्यक्षि द्रविणोदः सुरत्नः ॥9॥
हे पवनदेव हे पूजनीय तुम शुभ हो तुम कल्याण करो ।
तुम हविष्यान्न ले लो प्रभुवर सबको हवि-भोग प्रदान करो॥9॥
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वनस्पते रशनया नियूया देवानां पाथ उप वक्षि विद्वान् ।
स्वदाति देवः कृणवध्दवींष्यवतां द्यावापृथिवी हवं मे ॥10॥
अग्नि - देव सबको हवि देते सन्तुष्ट सभी को करते हैं ।
हे प्रभु वाणी का वैभव देना भाव-भक्ति से हम कहते हैं॥10॥
9554
आग्ने वः वरुणमिष्टये न इन्द्रं दिवो मरुतो अन्तरिक्षात् ।
सीदन्तु बर्हिर्विश्व आ यजत्रा:स्वाहा देवा अमृता मादयन्ताम्॥11॥
हे इन्द्र-वरुण तुम जल्दी आओ हम प्रेम से तुम्हें बुलाते हैं ।
अपने-अपने आसन पर आओ स्वाहा की महिमा गाते हैं ॥11॥
अग्नि से पोषित जीवन चक्र।
ReplyDeleteसभी शुभ कार्यों में अग्निदेव का आह्वाहन होता है...
ReplyDeleteअग्नेय देवाय हविषा विधेम!
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