Sunday, 5 January 2014

सूक्त - 70

[ऋषि- सुमित्र वाध्रय्श्व । देवता- आप्रीसूक्त । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

9544
इमां  मे  अग्ने  समिधं  जुषस्वेळस्पदे  प्रति  हर्या  घृताचीम् ।
वर्ष्मन्पृथिव्या:सुदिनत्वे अह्नामूर्ध्वो भव सुक्रतो देवयज्या॥1॥

हे  अग्नि - देव उत्तर - वेदी  पर सब  समिधायें  स्वीकार करो ।
हर  दिन  सुखकर  हो हम सबका यश-धन हमें प्रदान करो॥1॥

9545
आ    देवानामग्रयावेह    यातु     नराशंसो     विश्वरूपेभिरश्वैः ।
ऋतस्य   पथा   नमसा  मियेधो  देवेभ्यो  देवतमः  सुषूदत्॥2॥

हे  अग्निदेव  हे  परममित्र  तुम  पूजनीय  पावन  प्रणम्य  हो ।
तुम  ही  सबको  हवि  देते  हो अग्निदेव  तुम  अद्वितीय  हो॥2॥

9546
शश्वत्तममीळते   दूत्याय   हविष्मन्तो   मनुष्यासो   अग्निम् ।
वहिष्ठैरश्वैः   सुवृता    रथेना   देवान्वक्षि   नि   षदेह   होता ॥3॥

हवि   देने  के  हेतु  हम  सभी  पावक - पावन  की  करें प्रतीक्षा ।
अनल  सभी  को  सँग  ले  आओ करते हैं हम सभी तितीक्षा॥3॥

9547
वि   प्रथतां   देवजुष्टं   तिरश्चा   दीर्घं   द्राघ्मा  सुरभि  भूत्वस्मे ।
अहेळता  मनसा  देव  बर्हिरिन्द्रज्येष्ठां  उशतो  यक्षि  देवान्।॥4॥

यह  हवि - गँध  दूर  तक  फैले  सब  पायें  इस  सुख  का  फल ।
पावक - प्रेम-भाव  में  रहना  सबका  जीवन हो सहज-सरल॥4॥

9548
दिवो वा सानु स्पृशता वरीयःपृथिव्या वा मात्रया वि श्रयध्वम्।
उशतीर्द्वारो    महिना    महद्भिर्देवं   रथं   रथयुर्धारयध्वम् ॥5॥

रहें  प्रतिष्ठित  अग्नि - देवता  हम  सबके  घर  में  वास  करें ।
हम अग्निदेव की महिमा गायें और धीर-वीर बनकर उभरें॥5॥

9549
देवी  दिवो  दुहितरा  सुशिल्पे  उषासानक्ता  सदतां  नि  योनौ ।
आ  वां  देवास  उशती  उशन्त  उरौ  सीदन्तु सुभगे उपस्थे॥6॥

यज्ञ - वेदिका  पर  बैठी  हैं  दिवा - रात्रि  दोनों  ही  सुख - कर । 
सभी  देव- गण विद्यमान हैं अब आया है  हवि  का  अवसर॥6॥

9550
ऊर्ध्वो  ग्रावा  बृहदग्नि:  समिध्दः  प्रिया  धामान्यदितेरुपस्थे ।
पुरोहितावृत्विजा यज्ञे अस्मिन् विदुष्टरा द्रविणमा यजेथाम्॥7॥

जब  सोम  को  कूटा  जाता  है  देते  हैं  हम  जब  हविष्यान्न ।
तब  अक्सर  वर्षा  होती  है  फिर  पवनदेव  देते  धन- धान॥7॥

9551
तिस्त्रो  देवीर्बर्हिरिदं  वरीय  आ  सीदत  चकृमा  वः  स्योनम् ।
मनुष्वद्यज्ञं   सुधिता   हवींषीळा   देवी    घृतपदी   जुषन्त॥8॥

हे   इला   शारदा   मातु   भारती  तुम  तीनों  का  आवाहन  है ।
हम हवि-भोग तुम्हें देते हैं आओ यह सुन्दर कुश-आसन है॥8॥

9552
देव    त्वष्टर्यध्द    चारुत्वमानडय्दङ्गिरसामभवः    सचाभू: ।
स  देवानां  पाथ  उ  प्र  विद्वानुशन्यक्षि  द्रविणोदः  सुरत्नः ॥9॥

हे  पवनदेव  हे  पूजनीय  तुम  शुभ  हो  तुम  कल्याण  करो ।
तुम हविष्यान्न ले लो प्रभुवर सबको हवि-भोग प्रदान करो॥9॥

9553
वनस्पते  रशनया  नियूया  देवानां  पाथ  उप  वक्षि  विद्वान् ।
स्वदाति   देवः  कृणवध्दवींष्यवतां  द्यावापृथिवी  हवं  मे ॥10॥

अग्नि -  देव  सबको  हवि  देते  सन्तुष्ट  सभी  को  करते  हैं ।
हे  प्रभु  वाणी  का  वैभव  देना  भाव-भक्ति से हम कहते हैं॥10॥

9554
आग्ने  वः  वरुणमिष्टये  न  इन्द्रं  दिवो  मरुतो अन्तरिक्षात्  ।
सीदन्तु बर्हिर्विश्व आ यजत्रा:स्वाहा देवा अमृता मादयन्ताम्॥11॥

हे  इन्द्र-वरुण  तुम  जल्दी  आओ  हम प्रेम से तुम्हें बुलाते हैं ।
अपने-अपने आसन पर आओ स्वाहा की महिमा गाते हैं ॥11॥   
    
 
 

3 comments:

  1. अग्नि से पोषित जीवन चक्र।

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  2. सभी शुभ कार्यों में अग्निदेव का आह्वाहन होता है...

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  3. अग्नेय देवाय हविषा विधेम!

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