[ऋषि- बृहस्पति आङ्गिरस । देवता- ज्ञान । छन्द- त्रिष्टुप् - जगती ।]
9555
बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्रं यत्प्रैरत नामधेयं दधाना: ।
यदेषां श्रेष्ठं यदरिप्रमासीत्प्रेणा तदेषां निहितं गुहाविः॥1॥
जग की रचना होने पर जिस प्रभु से प्रेरणा पाते हैं ।
वह वाणी ही प्रथम वाक् है हम उसको ही अपनाते हैं॥1॥
9556
सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यत्र धीरा मनसा वाचमक्रत ।
अत्रा सखायः सख्यानि जानते भद्रैषां लक्ष्मीर्निहिताधि वाचि॥2॥
जैसे चलनी से सत्तू को महीन बना-कर हम खाते हैं ।
वैसे ही मन से विचार करके वाणी व्यवहार में लाते हैं॥2॥
9557
यज्ञेन वाचः पदवीयमायन्तामन्वविन्दन्नृषिषु प्रविष्टाम् ।
तामाभृत्या व्यदधुः पुरुत्रा तां सप्त रेभा अभि सं नवन्ते॥3॥
विद्वान जानते वाणी- वैभव ऋषि भी इसे ग्रहण करते हैं ।
तदनन्तर यह व्यवहार में आता चार-वेद यह ही कहते हैं॥3॥
9558
उत त्वः पश्यन्न ददर्श वाचमुत त्वः शृण्वन्न शृणोत्येनाम्।
उतो त्वस्मै तन्वं1 वि सस्त्रे जायेव पत्य उशती सुवासा:॥4॥
यह वाणी अत्यन्त गूढ है रहस्य जानना सरल नहीं है ।
जब द्वार खोलती हैं वाक्-देवी ज्ञान-कलेवर यहीं कहीं है॥4॥
9559
उत त्वं सख्ये स्थिरपीतमाहुर्नैनं हिन्वन्त्यपि वाजिनेषु ।
अधेन्वा चरति माययैष वाचं शुश्रुवॉ अफलामपुष्पाम्॥5॥
ज्ञानी विचार-विनिमय करते हैं ये वाणी का मर्म समझते हैं।
वाक्-वैभव और शब्दाडम्बर धीर इसका विश्लेषण करते हैं॥5॥
9560
यस्तित्याज सचिविदं सखायं न तस्य वाच्यपि भागो अस्ति।
यदीं शृणोत्यलकं शृणोति नहि प्रवेद सुकृतस्य पन्थाम्॥6॥
जो स्वाध्याय नहीं करता है वह सुख से वञ्चित रहता है ।
जो सत्कर्म सदा करता है निज-जीवन वह ही गढता है॥6॥
9561
अक्षण्वन्तः कर्णवन्तः सखायो मनोजवेष्वसमा बभूवुः ।
आदघ्नास उपकक्षास उ त्वे हृदाइव स्नात्वा उ त्वे ददृश्रे॥7॥
जिसकी जैसी सोच होती है मति वैसी ही बीज बोती है ।
चिन्तन-अनुरूप कर्म होते हैं कर्मानुसार ही गति होती है॥7॥
9562
हृदा तष्टेषु मनसो जवेषु यद् ब्राह्मणा: संयजन्ते सखायः ।
अत्राह त्वं वि जहुर्वेद्याभिरोहब्रह्माणो वि चरन्त्यु त्वे।॥8॥
जब एक समान योग्यता वाले एक दिशा में ही जाते हैं ।
वे निज-अनुभव के सँग जीते हैं कर्मानुरूप फल पाते हैं॥8॥
9563
इमे ये नार्वाङ्न परश्चरन्ति न ब्राह्मणासो न सुतेकरासः ।
त एते वाचमभिपद्य पापया सिरीस्तन्त्रं तन्वते अप्रजज्ञयः॥9॥
जो अपरा-परा में पारंगत हैं वे ज्ञान के सच्चे अधिकारी हैं ।
कुछ सेवाभावी भी मिलते हैं जो जन-प्रिय पर-उपकारी हैं॥9॥
9564
सर्वे नन्दन्ति यशसागतेन सभासाहेन सख्या सखायः ।
किल्विषस्पृत्पितुषणिर्ह्येषामरं हितो भवति वाजिनाय॥10॥
ज्ञानी मित्रों सँग मोद-मनाते यश-पद पाकर हर्षाते हैं ।
पर अन्न-दान करने वाले अक्सर प्रभु को पा जाते हैं ॥10॥
9565
ऋचां त्वः पोषमास्ते पुपुष्वान्गायत्रं त्वो गायति शक्वरीषु।
ब्रह्मा त्वो वदति जातविद्यां यज्ञस्य मात्रां वि मिमीत उ त्वः॥11॥
जो वेद-ऋचा उच्चारण कर ले नित-प्रति करता हो साम-गान।
जो यज्ञ-विधान का ज्ञाता हो जो जाने प्रायश्चित-विधान॥11॥
9555
बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्रं यत्प्रैरत नामधेयं दधाना: ।
यदेषां श्रेष्ठं यदरिप्रमासीत्प्रेणा तदेषां निहितं गुहाविः॥1॥
जग की रचना होने पर जिस प्रभु से प्रेरणा पाते हैं ।
वह वाणी ही प्रथम वाक् है हम उसको ही अपनाते हैं॥1॥
9556
सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यत्र धीरा मनसा वाचमक्रत ।
अत्रा सखायः सख्यानि जानते भद्रैषां लक्ष्मीर्निहिताधि वाचि॥2॥
जैसे चलनी से सत्तू को महीन बना-कर हम खाते हैं ।
वैसे ही मन से विचार करके वाणी व्यवहार में लाते हैं॥2॥
9557
यज्ञेन वाचः पदवीयमायन्तामन्वविन्दन्नृषिषु प्रविष्टाम् ।
तामाभृत्या व्यदधुः पुरुत्रा तां सप्त रेभा अभि सं नवन्ते॥3॥
विद्वान जानते वाणी- वैभव ऋषि भी इसे ग्रहण करते हैं ।
तदनन्तर यह व्यवहार में आता चार-वेद यह ही कहते हैं॥3॥
9558
उत त्वः पश्यन्न ददर्श वाचमुत त्वः शृण्वन्न शृणोत्येनाम्।
उतो त्वस्मै तन्वं1 वि सस्त्रे जायेव पत्य उशती सुवासा:॥4॥
यह वाणी अत्यन्त गूढ है रहस्य जानना सरल नहीं है ।
जब द्वार खोलती हैं वाक्-देवी ज्ञान-कलेवर यहीं कहीं है॥4॥
9559
उत त्वं सख्ये स्थिरपीतमाहुर्नैनं हिन्वन्त्यपि वाजिनेषु ।
अधेन्वा चरति माययैष वाचं शुश्रुवॉ अफलामपुष्पाम्॥5॥
ज्ञानी विचार-विनिमय करते हैं ये वाणी का मर्म समझते हैं।
वाक्-वैभव और शब्दाडम्बर धीर इसका विश्लेषण करते हैं॥5॥
9560
यस्तित्याज सचिविदं सखायं न तस्य वाच्यपि भागो अस्ति।
यदीं शृणोत्यलकं शृणोति नहि प्रवेद सुकृतस्य पन्थाम्॥6॥
जो स्वाध्याय नहीं करता है वह सुख से वञ्चित रहता है ।
जो सत्कर्म सदा करता है निज-जीवन वह ही गढता है॥6॥
9561
अक्षण्वन्तः कर्णवन्तः सखायो मनोजवेष्वसमा बभूवुः ।
आदघ्नास उपकक्षास उ त्वे हृदाइव स्नात्वा उ त्वे ददृश्रे॥7॥
जिसकी जैसी सोच होती है मति वैसी ही बीज बोती है ।
चिन्तन-अनुरूप कर्म होते हैं कर्मानुसार ही गति होती है॥7॥
9562
हृदा तष्टेषु मनसो जवेषु यद् ब्राह्मणा: संयजन्ते सखायः ।
अत्राह त्वं वि जहुर्वेद्याभिरोहब्रह्माणो वि चरन्त्यु त्वे।॥8॥
जब एक समान योग्यता वाले एक दिशा में ही जाते हैं ।
वे निज-अनुभव के सँग जीते हैं कर्मानुरूप फल पाते हैं॥8॥
9563
इमे ये नार्वाङ्न परश्चरन्ति न ब्राह्मणासो न सुतेकरासः ।
त एते वाचमभिपद्य पापया सिरीस्तन्त्रं तन्वते अप्रजज्ञयः॥9॥
जो अपरा-परा में पारंगत हैं वे ज्ञान के सच्चे अधिकारी हैं ।
कुछ सेवाभावी भी मिलते हैं जो जन-प्रिय पर-उपकारी हैं॥9॥
9564
सर्वे नन्दन्ति यशसागतेन सभासाहेन सख्या सखायः ।
किल्विषस्पृत्पितुषणिर्ह्येषामरं हितो भवति वाजिनाय॥10॥
ज्ञानी मित्रों सँग मोद-मनाते यश-पद पाकर हर्षाते हैं ।
पर अन्न-दान करने वाले अक्सर प्रभु को पा जाते हैं ॥10॥
9565
ऋचां त्वः पोषमास्ते पुपुष्वान्गायत्रं त्वो गायति शक्वरीषु।
ब्रह्मा त्वो वदति जातविद्यां यज्ञस्य मात्रां वि मिमीत उ त्वः॥11॥
जो वेद-ऋचा उच्चारण कर ले नित-प्रति करता हो साम-गान।
जो यज्ञ-विधान का ज्ञाता हो जो जाने प्रायश्चित-विधान॥11॥
जीवन जीने के हैं सुखद सूत्र
ReplyDeleteवाणी और कर्म ही प्रधान है...सुन्दर दोहे...
ReplyDeleteजो स्वाध्याय नहीं करता है वह सुख से वञ्चित रहता है ।
ReplyDeleteजो सत्कर्म सदा करता है निज-जीवन वह ही गढता है॥6॥
सही सलाह