Friday, 3 January 2014

सूक्त - 72

[ऋषि- -बृहस्पति लौक्य । देवता- देव-गण । छन्द- अनुष्टुप् ।]

9566
देवानां नु वयं जाना प्र वोचाम विपन्यया ।
उक्थेषु शस्यमानेषु यः पश्यादुत्तरे युगे॥1॥

विद्वत् - जन उत्तम वाणी से प्रभु - पूजन-अर्चन करते हैं ।
वेद-पाठ जब हम करते हैं पग-पग हम आगे बढते हैं॥1॥

9567
ब्रह्मणस्पतिरेता सं कर्मार इवाधमत् ।
देवानां पूर्व्ये युगेSसतः सदजायत॥2॥

परमेश्वर  के  पुत्र  मनुज  ने प्रकृति - मात्र को जाना-माना ।
विविध-शक्तियॉ विद्यमान थीं विविध वस्तु को पहचाना॥2॥

9568
देवानां    युगे    प्रथमेSसतः    सदजायत ।
तदाशा अन्वजायन्त तदुत्तानपदस्परि॥3॥

असत् से सत् की ओर चलें हम हर मन में हो आशा-संचार ।
पावन-पथ पर बढें निरन्तर सतत करें पग का विस्तार॥3॥

9569
भूर्जज्ञ  उत्तानपदो  भुव आशा अजायन्त ।
अदितेर्दक्षो अजायत दक्षाद्वदितिः परि॥4॥

सूरज  से  पृथ्वी  प्रकटी और  फिर आशा  का  उदय  हुआ ।
पृथ्वी पर प्रकृति-पावनी आई रवि-किरणों ने उसे छुआ॥4॥

9570
अदितिर्ह्यजनिष्ट    दक्ष    या    दुहिता    तव ।
तां देवा अन्वजायन्त भद्रा अमृतबन्धवः॥5॥

सूरज  की  दो  दुहितायें  हैं  एक  ऊषा  दूजी  है  सन्ध्या ।
रवि-रश्मियॉ उन्हें छूती हैं कन्यायें हैं अतिशय-रम्या॥5॥

9571
यद्देवा  अदः  सलिले   सुसंरब्धा   अतिष्ठत ।
अत्रा वो नृत्यतामिव तीव्रो रेणुरपायत॥॥6॥

जब यह विस्तृत प्रकृति-शक्तियॉ नभ में नर्तन करती हैं ।
तब ऊर्जा-रज फैल-फैल कर विविध-वस्तुयें रचती हैं॥6॥

9572
यद्देवा    यतयो   यथा   भुवनान्यपिन्वत ।
अत्रा समुद्र आ गूळ्हमा सूर्यमजभर्तन ॥7॥

वेग - वती हैं देव-शक्तियॉ मेघ-सदृश फिर बना वितान ।
भुवन वस्तु से भरा हुआ था सूरज है तेजस्वी महान॥7॥

9573
अष्टौ  पुत्रासो   अदितेर्ये  जातास्तन्व1  स्परि ।
देवॉ उप प्रैत्सप्प्तभिः परा मार्ताण्डमास्यत्॥8॥

अदिति-प्रकृति  के  सात  पुत्र  हैं  यही  हैं हम सबकी माता ।
आठवॉ-पुत्र इन्द्रिय-समूह है मरण-धर्मा जो माना जाता॥8॥

9574
सप्तभिः   पुत्रैरदितिरूप   प्रैत्पूर्व्यं   युगम् ।
प्रजायै मृत्यवे त्वत्पुनर्मार्ताण्डमाभरत्॥9॥

प्रकृति - मात अपने पुत्रों  से सूक्ष्मावस्था का बोध कराती ।
जन्म-मृत्यु की इस सीढी में कर्म-योग का पाठ-पढाती॥9॥
 
  

2 comments:

  1. सूरज से पृथ्वी प्रकटी और फिर आशा का उदय हुआ ।
    पृथ्वी पर प्रकृति-पावनी आई रवि-किरणों ने उसे छुआ॥4॥

    वेदों में ज्ञान भी है विज्ञान भी

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  2. प्रकृति के स्वरूप में कर्म की बीज छिपे हुये हैं।

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