Wednesday, 22 January 2014

सूक्त - 53

[ऋषि- देवगण । देवता- अग्नि- सौचीक । छन्द- त्रिष्टुप्-जगती ।]

9334
यमैच्छाम  मनसा  सो3यमागाद्यज्ञस्य विद्वान्परुषश्चिकित्वान् ।
स नो यक्षद्देवताता यजीयान्नि हि षत्सदन्तरः पूर्वो अस्मत्॥1॥

हे  अग्नि - देव  तुम  आ  जाओ  हम  तेरा  आवाहन  करते  हैं ।
तुम  पूजनीय  तुम  ही  प्रणम्य  हो  हम वेद-ऋचायें पढते हैं॥1॥

9335
अराधि होता निषदा यजीयानभि प्रयांसि सुधितानि हि ख्यत् ।
यजामहै   यज्ञियान्हन्त   देवॉ  ईळामहा  ईडयॉ  आज्येन ॥2॥

ऊषा - काल  में  सबके  मन  में  श्रध्दा  का  भाव  चरम पर है ।
अग्नि - देवता  हवि - वाहक  हैं  मंत्रोच्चारण का अवसर है॥2॥

9336
साध्वीमकर्देववीतिं  नो  अद्य  यज्ञस्य  जिह्वामविदाम  गुह्याम् ।
स    आयुरागात्सुरभिर्वसानो   भद्रामकर्देवहूतिं   नो   अद्य ॥3॥

यज्ञ  त्याग  का  ही  प्रतीक  है  श्रेष्ठ - कर्म  से  अभिहित  है ।
सबको हवि-भाग दिया जाता है सबसे बडा पुण्य पर-हित है॥3॥

9337
तदद्य   वाचः  प्रथमं   मसीय   येनासुरॉ   अभि   देवॉ   असाम ।
ऊर्जाद   उत  यज्ञियासः  पञ्च  जना  मम  होत्रं  जुषध्वम् ॥4॥

हे  देव  यज्ञ  स्वीकार  करो  हम  जग - हित  हेतु यज्ञ करते हैं ।
इसके  अधिकारी  सभी  वर्ण  हैं  सस्वर  वेद-ऋचा  पढते हैं॥4॥

9338
पञ्च  जना  मम  होत्रं  जुषन्ता  गोजाता  उत  ये  यज्ञियासः ।
पृथिवी नः पार्थिवात्पात्वंहसोSन्तरिक्षं दिव्यात्पात्वस्मान्॥5॥

हे  वाणी  शुभ-वाचन  करना  हे  मन तुम शुभ-चिन्तन करना ।
यज्ञ - कर्म  अति-आवश्यक है हे प्रभु दया-दृष्टि तुम रखना ॥5॥

9339
तन्तुं तन्वन्रजसो भानुमन्विहि ज्योतिष्मतःपथो रक्ष धिया कृतान्।
अनुल्बणं  वयत  जोगुवामपो  मनुर्भव  जनया  दैव्यं  जनम् ॥6॥

हे  अग्नि - देव  सूरज  को  देखो  तुम  भी  वैसे  ही बन जाओ ।
कर्म-योग की अद्भुत महिमा तुम इस जगती को समझाओ॥6॥

9340
अक्षानहो  नह्यतनोत  सोम्या  इष्कृणुध्वं  रशना ओत  पिंशत ।
अष्टावन्धुरं वहताभितो रथं येन देवासो अनयन्नभि प्रियम्॥7॥

इन्द्रिय  को  अँकुश  में  रखो  मन - लगाम  रख  लो कस-कर ।
देह - रूप  इस  दश - रथ से ही अब अपना उद्देश्य प्राप्त कर ॥7॥

9341
अश्मन्वती  रीयते  सं  रभध्वमुत्तिष्ठत  प्र  तरता  सखायः ।
अत्रा जहाम ये असन्नशेवा:शिवान्वयमुत्तरेमाभि वाजान्॥8॥

यह  दुनियॉ - नदिया  दुष्कर  है  इसको  उद्यम  से पार करो ।
दुख - दायी को यहीं छोड दो हित-कारी को स्वीकार करो ॥8॥

9342
त्वष्टा माया वेदपसामपस्तमो बिभ्रत्पात्रा देवपानानि शन्तमा।
शिशीते नूनं परशुं स्वायसं येन वृश्चादेतशो ब्रह्मणस्पतिः ॥9॥

इस  दुनियॉ  को  रचने  वाला  कलाकार  ही  परमेश्वर  है ।
ज्ञानी कर्म-मार्ग में चलकर कैवल्य प्राप्त करता है सुखकर॥9॥

9343
सतो नूनं कवयः सं शिशीत वाशीभिर्याभिरमृताय तक्षथ ।
विद्वांसः पदा गुह्यानि कर्तन येन देवासो अमृतत्वमानशुः॥10॥

हे मन तू पावन-पथ पर चल अमरत्व-प्राप्ति की चेष्टा कर ।
अगम-अगोचर से मिल-कर निज-जीवन को सार्थक कर॥10॥

9344
गर्भे योषामदधुर्वत्समासन्यपीच्येन मनसोत जिह्वया ।
स विश्वाहा सुमना योग्या अभि सिषासनिवर्नते कार इज्जितिम्॥11॥

पेट में पलते शिशु जैसा ही मन-वाणी में मधुर-वचन धर ।
उपासना से पा सकता है जीवन-रण में मन से जुत-कर॥11॥  

3 comments:

  1. विश्वचक्र अग्नि प्रेरित है।

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  2. हे वाणी शुभ-वाचन करना हे मन तुम शुभ-चिन्तन करना ।
    यज्ञ - कर्म अति-आवश्यक है हे प्रभु दया-दृष्टि तुम रखना ॥5॥

    सबका हित हो यही भाव छिपा है यज्ञ में..

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  3. गहन एवं सुंदर अभिव्यक्ति...

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