[ऋषि- देवगण । देवता- अग्नि- सौचीक । छन्द- त्रिष्टुप्-जगती ।]
9334
यमैच्छाम मनसा सो3यमागाद्यज्ञस्य विद्वान्परुषश्चिकित्वान् ।
स नो यक्षद्देवताता यजीयान्नि हि षत्सदन्तरः पूर्वो अस्मत्॥1॥
हे अग्नि - देव तुम आ जाओ हम तेरा आवाहन करते हैं ।
तुम पूजनीय तुम ही प्रणम्य हो हम वेद-ऋचायें पढते हैं॥1॥
9335
अराधि होता निषदा यजीयानभि प्रयांसि सुधितानि हि ख्यत् ।
यजामहै यज्ञियान्हन्त देवॉ ईळामहा ईडयॉ आज्येन ॥2॥
ऊषा - काल में सबके मन में श्रध्दा का भाव चरम पर है ।
अग्नि - देवता हवि - वाहक हैं मंत्रोच्चारण का अवसर है॥2॥
9336
साध्वीमकर्देववीतिं नो अद्य यज्ञस्य जिह्वामविदाम गुह्याम् ।
स आयुरागात्सुरभिर्वसानो भद्रामकर्देवहूतिं नो अद्य ॥3॥
यज्ञ त्याग का ही प्रतीक है श्रेष्ठ - कर्म से अभिहित है ।
सबको हवि-भाग दिया जाता है सबसे बडा पुण्य पर-हित है॥3॥
9337
तदद्य वाचः प्रथमं मसीय येनासुरॉ अभि देवॉ असाम ।
ऊर्जाद उत यज्ञियासः पञ्च जना मम होत्रं जुषध्वम् ॥4॥
हे देव यज्ञ स्वीकार करो हम जग - हित हेतु यज्ञ करते हैं ।
इसके अधिकारी सभी वर्ण हैं सस्वर वेद-ऋचा पढते हैं॥4॥
9338
पञ्च जना मम होत्रं जुषन्ता गोजाता उत ये यज्ञियासः ।
पृथिवी नः पार्थिवात्पात्वंहसोSन्तरिक्षं दिव्यात्पात्वस्मान्॥5॥
हे वाणी शुभ-वाचन करना हे मन तुम शुभ-चिन्तन करना ।
यज्ञ - कर्म अति-आवश्यक है हे प्रभु दया-दृष्टि तुम रखना ॥5॥
9339
तन्तुं तन्वन्रजसो भानुमन्विहि ज्योतिष्मतःपथो रक्ष धिया कृतान्।
अनुल्बणं वयत जोगुवामपो मनुर्भव जनया दैव्यं जनम् ॥6॥
हे अग्नि - देव सूरज को देखो तुम भी वैसे ही बन जाओ ।
कर्म-योग की अद्भुत महिमा तुम इस जगती को समझाओ॥6॥
9340
अक्षानहो नह्यतनोत सोम्या इष्कृणुध्वं रशना ओत पिंशत ।
अष्टावन्धुरं वहताभितो रथं येन देवासो अनयन्नभि प्रियम्॥7॥
इन्द्रिय को अँकुश में रखो मन - लगाम रख लो कस-कर ।
देह - रूप इस दश - रथ से ही अब अपना उद्देश्य प्राप्त कर ॥7॥
9341
अश्मन्वती रीयते सं रभध्वमुत्तिष्ठत प्र तरता सखायः ।
अत्रा जहाम ये असन्नशेवा:शिवान्वयमुत्तरेमाभि वाजान्॥8॥
यह दुनियॉ - नदिया दुष्कर है इसको उद्यम से पार करो ।
दुख - दायी को यहीं छोड दो हित-कारी को स्वीकार करो ॥8॥
9342
त्वष्टा माया वेदपसामपस्तमो बिभ्रत्पात्रा देवपानानि शन्तमा।
शिशीते नूनं परशुं स्वायसं येन वृश्चादेतशो ब्रह्मणस्पतिः ॥9॥
इस दुनियॉ को रचने वाला कलाकार ही परमेश्वर है ।
ज्ञानी कर्म-मार्ग में चलकर कैवल्य प्राप्त करता है सुखकर॥9॥
9343
सतो नूनं कवयः सं शिशीत वाशीभिर्याभिरमृताय तक्षथ ।
विद्वांसः पदा गुह्यानि कर्तन येन देवासो अमृतत्वमानशुः॥10॥
हे मन तू पावन-पथ पर चल अमरत्व-प्राप्ति की चेष्टा कर ।
अगम-अगोचर से मिल-कर निज-जीवन को सार्थक कर॥10॥
9344
गर्भे योषामदधुर्वत्समासन्यपीच्येन मनसोत जिह्वया ।
स विश्वाहा सुमना योग्या अभि सिषासनिवर्नते कार इज्जितिम्॥11॥
पेट में पलते शिशु जैसा ही मन-वाणी में मधुर-वचन धर ।
उपासना से पा सकता है जीवन-रण में मन से जुत-कर॥11॥
9334
यमैच्छाम मनसा सो3यमागाद्यज्ञस्य विद्वान्परुषश्चिकित्वान् ।
स नो यक्षद्देवताता यजीयान्नि हि षत्सदन्तरः पूर्वो अस्मत्॥1॥
हे अग्नि - देव तुम आ जाओ हम तेरा आवाहन करते हैं ।
तुम पूजनीय तुम ही प्रणम्य हो हम वेद-ऋचायें पढते हैं॥1॥
9335
अराधि होता निषदा यजीयानभि प्रयांसि सुधितानि हि ख्यत् ।
यजामहै यज्ञियान्हन्त देवॉ ईळामहा ईडयॉ आज्येन ॥2॥
ऊषा - काल में सबके मन में श्रध्दा का भाव चरम पर है ।
अग्नि - देवता हवि - वाहक हैं मंत्रोच्चारण का अवसर है॥2॥
9336
साध्वीमकर्देववीतिं नो अद्य यज्ञस्य जिह्वामविदाम गुह्याम् ।
स आयुरागात्सुरभिर्वसानो भद्रामकर्देवहूतिं नो अद्य ॥3॥
यज्ञ त्याग का ही प्रतीक है श्रेष्ठ - कर्म से अभिहित है ।
सबको हवि-भाग दिया जाता है सबसे बडा पुण्य पर-हित है॥3॥
9337
तदद्य वाचः प्रथमं मसीय येनासुरॉ अभि देवॉ असाम ।
ऊर्जाद उत यज्ञियासः पञ्च जना मम होत्रं जुषध्वम् ॥4॥
हे देव यज्ञ स्वीकार करो हम जग - हित हेतु यज्ञ करते हैं ।
इसके अधिकारी सभी वर्ण हैं सस्वर वेद-ऋचा पढते हैं॥4॥
9338
पञ्च जना मम होत्रं जुषन्ता गोजाता उत ये यज्ञियासः ।
पृथिवी नः पार्थिवात्पात्वंहसोSन्तरिक्षं दिव्यात्पात्वस्मान्॥5॥
हे वाणी शुभ-वाचन करना हे मन तुम शुभ-चिन्तन करना ।
यज्ञ - कर्म अति-आवश्यक है हे प्रभु दया-दृष्टि तुम रखना ॥5॥
9339
तन्तुं तन्वन्रजसो भानुमन्विहि ज्योतिष्मतःपथो रक्ष धिया कृतान्।
अनुल्बणं वयत जोगुवामपो मनुर्भव जनया दैव्यं जनम् ॥6॥
हे अग्नि - देव सूरज को देखो तुम भी वैसे ही बन जाओ ।
कर्म-योग की अद्भुत महिमा तुम इस जगती को समझाओ॥6॥
9340
अक्षानहो नह्यतनोत सोम्या इष्कृणुध्वं रशना ओत पिंशत ।
अष्टावन्धुरं वहताभितो रथं येन देवासो अनयन्नभि प्रियम्॥7॥
इन्द्रिय को अँकुश में रखो मन - लगाम रख लो कस-कर ।
देह - रूप इस दश - रथ से ही अब अपना उद्देश्य प्राप्त कर ॥7॥
9341
अश्मन्वती रीयते सं रभध्वमुत्तिष्ठत प्र तरता सखायः ।
अत्रा जहाम ये असन्नशेवा:शिवान्वयमुत्तरेमाभि वाजान्॥8॥
यह दुनियॉ - नदिया दुष्कर है इसको उद्यम से पार करो ।
दुख - दायी को यहीं छोड दो हित-कारी को स्वीकार करो ॥8॥
9342
त्वष्टा माया वेदपसामपस्तमो बिभ्रत्पात्रा देवपानानि शन्तमा।
शिशीते नूनं परशुं स्वायसं येन वृश्चादेतशो ब्रह्मणस्पतिः ॥9॥
इस दुनियॉ को रचने वाला कलाकार ही परमेश्वर है ।
ज्ञानी कर्म-मार्ग में चलकर कैवल्य प्राप्त करता है सुखकर॥9॥
9343
सतो नूनं कवयः सं शिशीत वाशीभिर्याभिरमृताय तक्षथ ।
विद्वांसः पदा गुह्यानि कर्तन येन देवासो अमृतत्वमानशुः॥10॥
हे मन तू पावन-पथ पर चल अमरत्व-प्राप्ति की चेष्टा कर ।
अगम-अगोचर से मिल-कर निज-जीवन को सार्थक कर॥10॥
9344
गर्भे योषामदधुर्वत्समासन्यपीच्येन मनसोत जिह्वया ।
स विश्वाहा सुमना योग्या अभि सिषासनिवर्नते कार इज्जितिम्॥11॥
पेट में पलते शिशु जैसा ही मन-वाणी में मधुर-वचन धर ।
उपासना से पा सकता है जीवन-रण में मन से जुत-कर॥11॥
विश्वचक्र अग्नि प्रेरित है।
ReplyDeleteहे वाणी शुभ-वाचन करना हे मन तुम शुभ-चिन्तन करना ।
ReplyDeleteयज्ञ - कर्म अति-आवश्यक है हे प्रभु दया-दृष्टि तुम रखना ॥5॥
सबका हित हो यही भाव छिपा है यज्ञ में..
गहन एवं सुंदर अभिव्यक्ति...
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