[ऋषि- गय प्लात । देवता- विश्वेदेवा । छन्द- जगती- त्रिष्टुप् ।]
9461
कथा देवानां कतमस्य यामनि सुमन्तु नाम शृण्वतां मनामहे ।
को मृळाति कतमो नो मयस्करत्कतम ऊती अभ्या ववर्तति॥1॥
स्तुति करने की विविध विधा है किसका करना है अभिवादन ।
हमें सुरक्षित कौन करेगा किस विधि करना है अभिनन्दन॥1॥
9462
क्रतूयत्नि क्रतयो हृत्सु धीतयो वेनन्ति वेना: पतयन्त्या दिशः ।
न मर्डिता विद्यते अन्य एभ्यो देवेषु मे अधि कामा अयंसत॥2॥
मन के उत्तम संकल्पों को ज्ञान - मार्ग से हम ले जायें ।
ज्ञानी अपनी अभिलाषा को विविध-दिशा में जाकर पायें॥2॥
9463
नरा वा शंसं पूषणमगोह्यमग्निं देवेध्दमभ्यर्चसे गिरा ।
सूर्यामासा चन्द्रमसा यमं दिवि त्रितं वातमुषसमक्तुमश्विना॥3॥
पावक - पावन की करो प्रार्थना पोषक पूषा का पूजन हो ।
सूर्य सोम यम पवन देव और देव गणों का अर्चन हो॥3॥
9464
कथा कविस्तुवीरवान्कया गिरा बृहस्पतिर्वावृधते सुवृक्तिभिः।
अज एकपात्सुहवेभिरृक्वबभिरहिःशृणोतु बुध्न्यो3 हवीमनि॥4॥
हे अग्नि देव आलोक-प्रदाता तुम पूजनीय हो तुम प्रणम्य हो ।
हम तेरा आवाहन करते हैं हमें भी दो जो बोधगम्य हो ॥4॥
9465
दक्षस्य वादिते जन्मनि व्रते राजाना मित्रावरुणा विवाससि।
अतूर्तपन्था: पुरुरथो अर्यमा सप्तहोता विषुरूपेषु जन्मसु ॥5॥
आदित्य - देव आलोक बॉटते वे कर्म - योग सिखलाते हैं ।
ऊषा ताजगी भर-कर जाती रात में थक-कर सो जाते हैं ॥5॥
9466
ते नो अर्वन्तो हवनश्रुतो हवं विश्वे शृण्वन्तु वाजिनो मितद्रवः ।
सहस्त्रसा मेधसाताविव त्मना महो ये धनं समिथेषु जभ्रिरे॥6॥
धन की महिमा दान से बढती उत्तम-सुख है पर-उपकार ।
पर-हित जैसा पुण्य नहीं है सोचो और कर लो स्वीकार ॥6॥
9467
प्र वो वायुं रथयुजं पुरन्धिं स्तोमैः कृणुध्वं सख्याय पूषणम् ।
ते हि देवस्य सवितुःसवीमनि क्रतुं सचन्ते सचितःसचेतसः॥7॥
हे पावन - पूषा परम - मित्र हम तेरा आवाहन करते हैं ।
होकर प्रसन्न आ जाओ प्रभु हवि-भोग तुम्हें अर्पित करते हैं॥7॥
9468
त्रिः सप्त सस्त्रा नद्यो महीरपो वनस्पतीन्पर्वतॉ अग्निमूतये ।
कृशानुमस्तृन्तिष्यं सधस्थ आ रुद्रं रुद्रेषु रुद्रियं हवामहे ॥8॥
यज्ञ कर्म के हेतु हम सभी देवों को यहॉ बुलाते हैं ।
सब नदियों को सब सागर को न्यौता देने हम जाते हैं ॥8॥
9469
सरस्वती सरयुः सिन्धुरूर्मिभिर्महो महीरवसा यन्तु वक्षणी:।
देवीरापो मातरः सूदयिन्त्वो घृतवत्पयो मधुमन्नो अर्चत॥9॥
बडी लहर वाली नदियॉ भी इस महायज्ञ में आती हैं ।
मातृ - सदृश हैं ये सरितायें मधुर- भाव देकर जाती हैं ॥9॥
9470
उत माता बृहद्दिवा शृणोतु नस्त्वष्टा देवेभिर्जनिभिः पिता वचः ।
ऋभुक्षा वाजो रथस्पतिर्भगो रण्वःशंसःशशमानस्य पातु नः॥10॥
हे प्रभु रक्षा करो हमारी अन्न - धान तुम देते रहना ।
वाणी का वैभव दे देना प्रभु इस जग की पीडा हरना ॥10॥
9471
रण्वः संदृष्टौ पितुमॉ इव क्षयो भद्रा रुद्राणां मरुतामुपस्तुतिः ।
गोभिः ष्याम यशसो जनेष्वा सदा देवास इळया सचेमहि॥11॥
देवों का यह दर्शन शुभ है वे सुख-साधन हैं अन्न - धान ।
उनका सान्निध्य हमें प्यारा है उनका सुमिरन ज्ञान-ध्यान॥11॥
9472
यॉ मे धियं मरुत इन्द्र देवा अददात वरुण मित्र यूयम् ।
तां पीपयत पयसेव धेनुं कुविद्गिरो अधि रथे वहाथ ॥12॥
मेरे मन मति को समझाओ उसे प्रगति का मार्ग दिखाओ ।
सदुपदेश मुझको भी दे दो मेरे मन का ताप मिटाओ ॥12॥
9473
कुविदङ्ग प्रति यथा चिदस्य नः सजात्यस्य मरुतो बुबोधथ।
नाभा यत्र प्रथमं संनसामहे तत्र जामित्वमदितिर्दधातु नः॥13॥
तुम ही मेरे परममित्र हो तुमने सुन्दर सम्बन्ध निभाया ।
सुदृढ रहे यह सख्य हमारा तुमने जीवन जीना सिखलाया॥13॥
9474
ते हि द्यावापृथिवी मातरा मही देवी देवाञ्जन्मना यज्ञिये इतः
उभे बिभृत उभयं भरीमभिः पुरू रेतांसि पितृभिश्च सिञ्चतः॥14॥
पवन देव पावन पृथ्वी का सुन्दर साथ सदा से ही है ।
प्राणी को प्राण-वायु मिल जाता जल-धारा की कमी नहीं है ॥14॥
9475
वि षा होत्रा विश्वमश्नोति वार्यं बृहस्पतिररमति: पनीयसी ।
ग्रावा यत्र मधुषुदुच्यते बृहदवीवशन्त मतिभिर्मनीषिणः॥15॥
वाणी का वैभव विस्तृत है भाव - कपाट खोल कर रखती ।
विविध मन्त्र से सब विभूति फिर वातायन की ओर निरखती॥15॥
9476
एवा कविस्तुवीरवॉ ऋतज्ञा द्रविणस्युर्द्रविणसश्चकानः ।
उक्थेभिरत्र मतिभिश्च विप्रोSपीपयद्गयो दिव्यानि जन्म ॥16॥
विविध-भॉति के मनुज यहॉ हैं सबके अपने-अपने विचार ।
जो जितना तत्पर होता है उसके जीवन का वही सार ॥16॥
9477
एवा प्लतेः सूनुरवीवृधद्वो विश्व आदित्या अदिते मनीषी ।
ईशानासो नरो अमर्त्येनास्तावि जनो दिव्यो गयेन ॥17॥
परमेश्वर तुम पूजनीय हो तुम ही देते हो धन - धान ।
जिसमें जितना आत्मिक बल है वह पा लेता उतना ज्ञान॥17॥
9461
कथा देवानां कतमस्य यामनि सुमन्तु नाम शृण्वतां मनामहे ।
को मृळाति कतमो नो मयस्करत्कतम ऊती अभ्या ववर्तति॥1॥
स्तुति करने की विविध विधा है किसका करना है अभिवादन ।
हमें सुरक्षित कौन करेगा किस विधि करना है अभिनन्दन॥1॥
9462
क्रतूयत्नि क्रतयो हृत्सु धीतयो वेनन्ति वेना: पतयन्त्या दिशः ।
न मर्डिता विद्यते अन्य एभ्यो देवेषु मे अधि कामा अयंसत॥2॥
मन के उत्तम संकल्पों को ज्ञान - मार्ग से हम ले जायें ।
ज्ञानी अपनी अभिलाषा को विविध-दिशा में जाकर पायें॥2॥
9463
नरा वा शंसं पूषणमगोह्यमग्निं देवेध्दमभ्यर्चसे गिरा ।
सूर्यामासा चन्द्रमसा यमं दिवि त्रितं वातमुषसमक्तुमश्विना॥3॥
पावक - पावन की करो प्रार्थना पोषक पूषा का पूजन हो ।
सूर्य सोम यम पवन देव और देव गणों का अर्चन हो॥3॥
9464
कथा कविस्तुवीरवान्कया गिरा बृहस्पतिर्वावृधते सुवृक्तिभिः।
अज एकपात्सुहवेभिरृक्वबभिरहिःशृणोतु बुध्न्यो3 हवीमनि॥4॥
हे अग्नि देव आलोक-प्रदाता तुम पूजनीय हो तुम प्रणम्य हो ।
हम तेरा आवाहन करते हैं हमें भी दो जो बोधगम्य हो ॥4॥
9465
दक्षस्य वादिते जन्मनि व्रते राजाना मित्रावरुणा विवाससि।
अतूर्तपन्था: पुरुरथो अर्यमा सप्तहोता विषुरूपेषु जन्मसु ॥5॥
आदित्य - देव आलोक बॉटते वे कर्म - योग सिखलाते हैं ।
ऊषा ताजगी भर-कर जाती रात में थक-कर सो जाते हैं ॥5॥
9466
ते नो अर्वन्तो हवनश्रुतो हवं विश्वे शृण्वन्तु वाजिनो मितद्रवः ।
सहस्त्रसा मेधसाताविव त्मना महो ये धनं समिथेषु जभ्रिरे॥6॥
धन की महिमा दान से बढती उत्तम-सुख है पर-उपकार ।
पर-हित जैसा पुण्य नहीं है सोचो और कर लो स्वीकार ॥6॥
9467
प्र वो वायुं रथयुजं पुरन्धिं स्तोमैः कृणुध्वं सख्याय पूषणम् ।
ते हि देवस्य सवितुःसवीमनि क्रतुं सचन्ते सचितःसचेतसः॥7॥
हे पावन - पूषा परम - मित्र हम तेरा आवाहन करते हैं ।
होकर प्रसन्न आ जाओ प्रभु हवि-भोग तुम्हें अर्पित करते हैं॥7॥
9468
त्रिः सप्त सस्त्रा नद्यो महीरपो वनस्पतीन्पर्वतॉ अग्निमूतये ।
कृशानुमस्तृन्तिष्यं सधस्थ आ रुद्रं रुद्रेषु रुद्रियं हवामहे ॥8॥
यज्ञ कर्म के हेतु हम सभी देवों को यहॉ बुलाते हैं ।
सब नदियों को सब सागर को न्यौता देने हम जाते हैं ॥8॥
9469
सरस्वती सरयुः सिन्धुरूर्मिभिर्महो महीरवसा यन्तु वक्षणी:।
देवीरापो मातरः सूदयिन्त्वो घृतवत्पयो मधुमन्नो अर्चत॥9॥
बडी लहर वाली नदियॉ भी इस महायज्ञ में आती हैं ।
मातृ - सदृश हैं ये सरितायें मधुर- भाव देकर जाती हैं ॥9॥
9470
उत माता बृहद्दिवा शृणोतु नस्त्वष्टा देवेभिर्जनिभिः पिता वचः ।
ऋभुक्षा वाजो रथस्पतिर्भगो रण्वःशंसःशशमानस्य पातु नः॥10॥
हे प्रभु रक्षा करो हमारी अन्न - धान तुम देते रहना ।
वाणी का वैभव दे देना प्रभु इस जग की पीडा हरना ॥10॥
9471
रण्वः संदृष्टौ पितुमॉ इव क्षयो भद्रा रुद्राणां मरुतामुपस्तुतिः ।
गोभिः ष्याम यशसो जनेष्वा सदा देवास इळया सचेमहि॥11॥
देवों का यह दर्शन शुभ है वे सुख-साधन हैं अन्न - धान ।
उनका सान्निध्य हमें प्यारा है उनका सुमिरन ज्ञान-ध्यान॥11॥
9472
यॉ मे धियं मरुत इन्द्र देवा अददात वरुण मित्र यूयम् ।
तां पीपयत पयसेव धेनुं कुविद्गिरो अधि रथे वहाथ ॥12॥
मेरे मन मति को समझाओ उसे प्रगति का मार्ग दिखाओ ।
सदुपदेश मुझको भी दे दो मेरे मन का ताप मिटाओ ॥12॥
9473
कुविदङ्ग प्रति यथा चिदस्य नः सजात्यस्य मरुतो बुबोधथ।
नाभा यत्र प्रथमं संनसामहे तत्र जामित्वमदितिर्दधातु नः॥13॥
तुम ही मेरे परममित्र हो तुमने सुन्दर सम्बन्ध निभाया ।
सुदृढ रहे यह सख्य हमारा तुमने जीवन जीना सिखलाया॥13॥
9474
ते हि द्यावापृथिवी मातरा मही देवी देवाञ्जन्मना यज्ञिये इतः
उभे बिभृत उभयं भरीमभिः पुरू रेतांसि पितृभिश्च सिञ्चतः॥14॥
पवन देव पावन पृथ्वी का सुन्दर साथ सदा से ही है ।
प्राणी को प्राण-वायु मिल जाता जल-धारा की कमी नहीं है ॥14॥
9475
वि षा होत्रा विश्वमश्नोति वार्यं बृहस्पतिररमति: पनीयसी ।
ग्रावा यत्र मधुषुदुच्यते बृहदवीवशन्त मतिभिर्मनीषिणः॥15॥
वाणी का वैभव विस्तृत है भाव - कपाट खोल कर रखती ।
विविध मन्त्र से सब विभूति फिर वातायन की ओर निरखती॥15॥
9476
एवा कविस्तुवीरवॉ ऋतज्ञा द्रविणस्युर्द्रविणसश्चकानः ।
उक्थेभिरत्र मतिभिश्च विप्रोSपीपयद्गयो दिव्यानि जन्म ॥16॥
विविध-भॉति के मनुज यहॉ हैं सबके अपने-अपने विचार ।
जो जितना तत्पर होता है उसके जीवन का वही सार ॥16॥
9477
एवा प्लतेः सूनुरवीवृधद्वो विश्व आदित्या अदिते मनीषी ।
ईशानासो नरो अमर्त्येनास्तावि जनो दिव्यो गयेन ॥17॥
परमेश्वर तुम पूजनीय हो तुम ही देते हो धन - धान ।
जिसमें जितना आत्मिक बल है वह पा लेता उतना ज्ञान॥17॥
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