[ऋषि- सप्तगु आङ्गिरस । देवता- इन्द्र वैकुण्ठ । छन्द- त्रिष्टुप् ।]
9282
जग़ृभ्मा ते दक्षिणमिन्द्र हस्तं वसूयवो वसुपते वसूनाम् ।
विद्मा हि त्वा गोपतिं शूर गोनामस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिं दा:॥1॥
हे परम - मित्र हे परमेश्वर तुम हमें बना दो बलशाली ।
तुम हो अद्भुत अनन्त अच्युत हमें बना दो वैभवशाली ॥1॥
9283
स्वायुधं स्ववसं सुनीथं चतुः समुद्रं धरुणं रयीणाम् ।
चर्कृत्यं शंस्यं भूरिवारमस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिं दा: ॥2॥
उत्तम आयुध के तुम स्वामी हो ऐश्वर्यवान वैभवशाली हो।
मुझे समर्थ बना दो भगवन तुम अतुलित बलशाली हो ॥2॥
9284
सुब्रह्माणं देववन्तं बृहन्तमुरुं गभीरं पृथुबुध्नमिन्द्र ।
श्रुतऋषिमुग्रमभिमातिषाहमस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिं दा:॥3॥
वेद - ऋचायें हमें सुनाओ श्रेष्ठ - गुणों का दे दो दान ।
सर्व-शक्ति के स्वामी हो तुम सुख-सन्तति का दो वरदान॥3॥
9285
सनद्वाजं विप्रवीरं तरुत्रं धनस्पृतं शूशुवांसं सुदक्षम् ।
दस्युहनं पूर्भिदमिन्द्र सत्यमस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिं दा:॥4॥
संकल्प-मात्र से ही प्रभु तुम तो परिणाम प्राप्त कर सकते हो ।
धीर-वीर सन्तति यश-धन भी तुम क्षण-भर में दे सकते हो॥4॥
9286
अश्वावन्तं रथिनं वीरवन्तं सहस्त्रिणं शतिनं वाजमिन्द्र ।
भद्रव्रातं विप्रवीरं स्वर्षामस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिं दा: ॥5॥
शूर - वीर सन्तति दो भगवन तुम तो प्रभु अन्तर्यामी हो ।
नि:स्वार्थ भाव से चले निरंतर सत्पथ का जो अनुगामी हो॥5॥
9287
प्र सप्तगुमृतधीतिं सुमेधां बृहस्पतिं मतिरच्छा जिगाति ।
य आङ्गिरसो नमसोपसद्योSस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिं दा:॥6॥
तुम वरेण्य तुम ही प्रणम्य हो नीति-नियम के तुम धारक हो ।
सुख-सन्तति तुम ही देना प्रभु तुम ही जगती के पालक हो॥6॥
9288
वनीवानो मम दूतास इन्द्रं स्तोमाश्चरन्ति सुमतीरियाना: ।
हृदिस्पृशो मनसा वच्यमाना अस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिं दा:॥7॥
हे प्रभु मन में तुम्हीं बसे हो तुम्हें नमन है बारम्बार ।
यश - वैभव हमको देना प्रभु तेरी महिमा है अपरम्पार ॥7॥
9289
यत्त्वा यामि दध्दि तन्न इन्द्रं बृहन्तं क्षयमसमं जनानाम् ।
अभि तद् द्यावापृथिवी गृणीतामस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिं दा:॥8॥
मनो - कामना पूरी करना अति - सुन्दर हो मेरा घर - बार ।
हे प्रभु पावन पूज्य तुम्हीं हो पर-हित हो घर का आधार ॥8॥
9282
जग़ृभ्मा ते दक्षिणमिन्द्र हस्तं वसूयवो वसुपते वसूनाम् ।
विद्मा हि त्वा गोपतिं शूर गोनामस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिं दा:॥1॥
हे परम - मित्र हे परमेश्वर तुम हमें बना दो बलशाली ।
तुम हो अद्भुत अनन्त अच्युत हमें बना दो वैभवशाली ॥1॥
9283
स्वायुधं स्ववसं सुनीथं चतुः समुद्रं धरुणं रयीणाम् ।
चर्कृत्यं शंस्यं भूरिवारमस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिं दा: ॥2॥
उत्तम आयुध के तुम स्वामी हो ऐश्वर्यवान वैभवशाली हो।
मुझे समर्थ बना दो भगवन तुम अतुलित बलशाली हो ॥2॥
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सुब्रह्माणं देववन्तं बृहन्तमुरुं गभीरं पृथुबुध्नमिन्द्र ।
श्रुतऋषिमुग्रमभिमातिषाहमस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिं दा:॥3॥
वेद - ऋचायें हमें सुनाओ श्रेष्ठ - गुणों का दे दो दान ।
सर्व-शक्ति के स्वामी हो तुम सुख-सन्तति का दो वरदान॥3॥
9285
सनद्वाजं विप्रवीरं तरुत्रं धनस्पृतं शूशुवांसं सुदक्षम् ।
दस्युहनं पूर्भिदमिन्द्र सत्यमस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिं दा:॥4॥
संकल्प-मात्र से ही प्रभु तुम तो परिणाम प्राप्त कर सकते हो ।
धीर-वीर सन्तति यश-धन भी तुम क्षण-भर में दे सकते हो॥4॥
9286
अश्वावन्तं रथिनं वीरवन्तं सहस्त्रिणं शतिनं वाजमिन्द्र ।
भद्रव्रातं विप्रवीरं स्वर्षामस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिं दा: ॥5॥
शूर - वीर सन्तति दो भगवन तुम तो प्रभु अन्तर्यामी हो ।
नि:स्वार्थ भाव से चले निरंतर सत्पथ का जो अनुगामी हो॥5॥
9287
प्र सप्तगुमृतधीतिं सुमेधां बृहस्पतिं मतिरच्छा जिगाति ।
य आङ्गिरसो नमसोपसद्योSस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिं दा:॥6॥
तुम वरेण्य तुम ही प्रणम्य हो नीति-नियम के तुम धारक हो ।
सुख-सन्तति तुम ही देना प्रभु तुम ही जगती के पालक हो॥6॥
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वनीवानो मम दूतास इन्द्रं स्तोमाश्चरन्ति सुमतीरियाना: ।
हृदिस्पृशो मनसा वच्यमाना अस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिं दा:॥7॥
हे प्रभु मन में तुम्हीं बसे हो तुम्हें नमन है बारम्बार ।
यश - वैभव हमको देना प्रभु तेरी महिमा है अपरम्पार ॥7॥
9289
यत्त्वा यामि दध्दि तन्न इन्द्रं बृहन्तं क्षयमसमं जनानाम् ।
अभि तद् द्यावापृथिवी गृणीतामस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिं दा:॥8॥
मनो - कामना पूरी करना अति - सुन्दर हो मेरा घर - बार ।
हे प्रभु पावन पूज्य तुम्हीं हो पर-हित हो घर का आधार ॥8॥
वाह बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति, आभार आपका।
ReplyDeleteबहुत ही बोधगम्य और रोचक अनुवाद...
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