Thursday, 23 January 2014

सूक्त - 52

[ऋषि- अग्नि सौचीक । देवता- देव-गण । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

9328
विश्वे देवा: शास्तन मा यथेह होता वृतो मनवै यन्निषद्य ।
प्र मे ब्रूत भागधेयं यथा वो येन पथा हव्यमा वो वहानि॥1॥

अग्नि-देव हमसे कहते हैं तुमने हवि-वाहक मुझे बनाया ।
किस पथ से मैं हवि ले जाऊँ मैं पावक यही पूछने आया॥1॥

9329
अहं होता न्यसीदं यजीयान् विश्वे देवा मरुतो मा जुनन्ति ।
अहरहरश्विनाध्वर्यवं वां ब्रह्मा समिद्भवति साहुतिर्वाम् ॥2॥

मैं निज दायित्व निभाने आया हविष्यान्न पहुँचाने आया ।
तुमसे मुझे प्रेरणा मिलती मैं सुख-कर सोमाहुति पाया ॥2॥

9330
अयं यो होता किरु स यमस्य कमप्यूहे यत्समञ्जन्ति देवा:।
अहरहर्जायते   मासिमास्यथा   देवा   दधिरे  हव्यवाहम् ॥3॥

यज्ञ - कुण्ड  में  जब  हवि  जाता वह देवों को मिल जाता है ।
आदित्य- देव आलोक बॉटते चँदा रवि से तेजस पाता है ॥3॥

9331
मां  देवा  दधिरे  हव्यवाहमपम्लुक्तं  बहु  कृच्छ्रा  चरन्तम् ।
अग्निर्विद्वान्यज्ञं नःकल्पयाति पञ्चयामं त्रिवृतं सप्ततन्तुम्॥4॥

कठिन  जगह  में  मैं  रहता हूँ फिर भी मैं हवि का वाहक हूँ ।
सभी  जगह  मैं  विद्यमान  हूँ मैं धर्म-ध्वज का धारक हूँ ॥4॥

9332
आ  वो  यक्ष्यमृतत्वं  सुवीरं  यथा  वो  देवा  वरिवः कराणि ।
आ बाह्वोर्वज्रमिन्द्रस्य धेयामथेमा विश्वा: पृतना जयाति॥5॥

मैं पुण्य कर्म का अवसर देता अतःमैं अजर-अमर बन जाऊँ।
सूरज  को  सहयोग  कर सकूँ मैं नभ-जल बनकर आऊँ ॥5॥

9333
त्रीणि  शता  त्री  सहस्त्राण्यग्निं  त्रिंशच्च देवा नव चासपर्यन् ।
औक्षन्घृतैरस्तृणन्बर्हिरस्मा  आदिध्दोतारं  न्यसादयन्त॥6॥

देव - शक्तियॉ  अग्नि - देव  की  परिचर्या  करती  रहती  हैं ।
कुश-आसन पर उन्हें बिठातीं घृत-अभिषेक किया करती हैं॥6॥    

2 comments:

  1. बड़े प्यार से पालती है हमें प्रकृति

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  2. मैं पुण्य कर्म का अवसर देता अतःमैं अजर-अमर बन जाऊँ।
    सूरज को सहयोग कर सकूँ मैं नभ-जल बनकर आऊँ ॥5॥

    अग्नि ही वह मूल तत्व है...जिसे सब कुछ बना है..

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