[ऋषि- अग्नि सौचीक । देवता- देव-गण । छन्द- त्रिष्टुप् ।]
9328
विश्वे देवा: शास्तन मा यथेह होता वृतो मनवै यन्निषद्य ।
प्र मे ब्रूत भागधेयं यथा वो येन पथा हव्यमा वो वहानि॥1॥
अग्नि-देव हमसे कहते हैं तुमने हवि-वाहक मुझे बनाया ।
किस पथ से मैं हवि ले जाऊँ मैं पावक यही पूछने आया॥1॥
9329
अहं होता न्यसीदं यजीयान् विश्वे देवा मरुतो मा जुनन्ति ।
अहरहरश्विनाध्वर्यवं वां ब्रह्मा समिद्भवति साहुतिर्वाम् ॥2॥
मैं निज दायित्व निभाने आया हविष्यान्न पहुँचाने आया ।
तुमसे मुझे प्रेरणा मिलती मैं सुख-कर सोमाहुति पाया ॥2॥
9330
अयं यो होता किरु स यमस्य कमप्यूहे यत्समञ्जन्ति देवा:।
अहरहर्जायते मासिमास्यथा देवा दधिरे हव्यवाहम् ॥3॥
यज्ञ - कुण्ड में जब हवि जाता वह देवों को मिल जाता है ।
आदित्य- देव आलोक बॉटते चँदा रवि से तेजस पाता है ॥3॥
9331
मां देवा दधिरे हव्यवाहमपम्लुक्तं बहु कृच्छ्रा चरन्तम् ।
अग्निर्विद्वान्यज्ञं नःकल्पयाति पञ्चयामं त्रिवृतं सप्ततन्तुम्॥4॥
कठिन जगह में मैं रहता हूँ फिर भी मैं हवि का वाहक हूँ ।
सभी जगह मैं विद्यमान हूँ मैं धर्म-ध्वज का धारक हूँ ॥4॥
9332
आ वो यक्ष्यमृतत्वं सुवीरं यथा वो देवा वरिवः कराणि ।
आ बाह्वोर्वज्रमिन्द्रस्य धेयामथेमा विश्वा: पृतना जयाति॥5॥
मैं पुण्य कर्म का अवसर देता अतःमैं अजर-अमर बन जाऊँ।
सूरज को सहयोग कर सकूँ मैं नभ-जल बनकर आऊँ ॥5॥
9333
त्रीणि शता त्री सहस्त्राण्यग्निं त्रिंशच्च देवा नव चासपर्यन् ।
औक्षन्घृतैरस्तृणन्बर्हिरस्मा आदिध्दोतारं न्यसादयन्त॥6॥
देव - शक्तियॉ अग्नि - देव की परिचर्या करती रहती हैं ।
कुश-आसन पर उन्हें बिठातीं घृत-अभिषेक किया करती हैं॥6॥
9328
विश्वे देवा: शास्तन मा यथेह होता वृतो मनवै यन्निषद्य ।
प्र मे ब्रूत भागधेयं यथा वो येन पथा हव्यमा वो वहानि॥1॥
अग्नि-देव हमसे कहते हैं तुमने हवि-वाहक मुझे बनाया ।
किस पथ से मैं हवि ले जाऊँ मैं पावक यही पूछने आया॥1॥
9329
अहं होता न्यसीदं यजीयान् विश्वे देवा मरुतो मा जुनन्ति ।
अहरहरश्विनाध्वर्यवं वां ब्रह्मा समिद्भवति साहुतिर्वाम् ॥2॥
मैं निज दायित्व निभाने आया हविष्यान्न पहुँचाने आया ।
तुमसे मुझे प्रेरणा मिलती मैं सुख-कर सोमाहुति पाया ॥2॥
9330
अयं यो होता किरु स यमस्य कमप्यूहे यत्समञ्जन्ति देवा:।
अहरहर्जायते मासिमास्यथा देवा दधिरे हव्यवाहम् ॥3॥
यज्ञ - कुण्ड में जब हवि जाता वह देवों को मिल जाता है ।
आदित्य- देव आलोक बॉटते चँदा रवि से तेजस पाता है ॥3॥
9331
मां देवा दधिरे हव्यवाहमपम्लुक्तं बहु कृच्छ्रा चरन्तम् ।
अग्निर्विद्वान्यज्ञं नःकल्पयाति पञ्चयामं त्रिवृतं सप्ततन्तुम्॥4॥
कठिन जगह में मैं रहता हूँ फिर भी मैं हवि का वाहक हूँ ।
सभी जगह मैं विद्यमान हूँ मैं धर्म-ध्वज का धारक हूँ ॥4॥
9332
आ वो यक्ष्यमृतत्वं सुवीरं यथा वो देवा वरिवः कराणि ।
आ बाह्वोर्वज्रमिन्द्रस्य धेयामथेमा विश्वा: पृतना जयाति॥5॥
मैं पुण्य कर्म का अवसर देता अतःमैं अजर-अमर बन जाऊँ।
सूरज को सहयोग कर सकूँ मैं नभ-जल बनकर आऊँ ॥5॥
9333
त्रीणि शता त्री सहस्त्राण्यग्निं त्रिंशच्च देवा नव चासपर्यन् ।
औक्षन्घृतैरस्तृणन्बर्हिरस्मा आदिध्दोतारं न्यसादयन्त॥6॥
देव - शक्तियॉ अग्नि - देव की परिचर्या करती रहती हैं ।
कुश-आसन पर उन्हें बिठातीं घृत-अभिषेक किया करती हैं॥6॥
बड़े प्यार से पालती है हमें प्रकृति
ReplyDeleteमैं पुण्य कर्म का अवसर देता अतःमैं अजर-अमर बन जाऊँ।
ReplyDeleteसूरज को सहयोग कर सकूँ मैं नभ-जल बनकर आऊँ ॥5॥
अग्नि ही वह मूल तत्व है...जिसे सब कुछ बना है..