Friday, 24 January 2014

सूक्त - 51

[ऋषि- देवगण । देवता- अग्नि सौचीक । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

9319
महत्तदुल्बं     स्थविरं     तदासीद्येनाविष्टितः    प्रविवेशिथापः ।
विश्वा  अपश्यद्बहुधा  ते  अग्ने  जातवेदस्तन्वो  देव  एकः॥1॥

अग्नि - देव का वह वितान भी अति-विशाल और सुखकर था।
जिससे घिर-कर वे खडे हुए थे देदीप्यमान और सुन्दर था॥1॥

9320
को  मा  ददर्श  कतमः  स देवो यो मे तन्वो बहुधा पर्यपश्यत् ।
क्वाह  मित्रावरुणा  क्षियन्त्यग्नेर्विश्वा: समिधो देवयानीः॥2॥

हे  देव  कौन  थे  जिसने  मेरा  विविध - रूप  पहचान  लिया ।
हे मित्र वरुण अब तुम्हीं कहो क्या सत्पथ को जान लिया॥2॥

9321
ऐच्छाम  त्वा   बहुधा   जातवेदः  प्रविष्टमग्ने   अप्स्वोषधीषु ।
तं त्वा यमो अचिकेच्चित्रभानो दशान्तरुष्यादतिरोचमानम्॥3॥

हे  अग्नि- देव  जल औषधि  के रस में भी तो तुम विद्यमान हो ।
परम-पूज्य तुम ही प्रणम्य हो अति-तेजस्वी कान्तिमान हो॥3॥

9322
होत्रादहं   वरुण   बिभ्यदायं   नेदेव   मा  युनजन्नत्र   देवा: ।
तस्य  मे  तन्वो  बहुधा निविष्टा एतमर्थं न चिकेताहमग्निः ॥4॥

हे  वरुण - देव  मैं  यजन-कर्म  से  डरकर  जल  में  रहता  हूँ ।
हवि-वहन-कर्म स्वीकार नहीं है अपनी बात तुमसे कहता  हूँ॥4॥

9323
एहि     मनुर्देवयुर्यज्ञकामोSरङ्कृत्या      तमसि    क्षेष्यग्ने ।
सुगान्पथः  कृणुहि  देवयानान्वह  हव्यानि  सुमनस्यमानः ॥5॥

हे  अग्नि - देव  तुमसे  विनती  है तुम हवि - वाहक  बन  जाओ ।
तुम तेजस्वी हो तमस मिटाओ सत के पथ को सरल बनाओ॥5॥

9324
अग्नेः     पूर्वे     भ्रातरो    अर्थमेतं     रथीवाध्वानमन्वावरीवुः ।
तस्माद्भिया  वरुण  दूरमायं  गौरो  न क्षेप्नोरविजे  ज्याया: ॥6॥

रथी  लक्ष्य  तक  पहुँचाता  है  हे अग्नि-देव  दायित्व निभाओ ।
गत  की चिन्ता छोडो प्रभुवर हवि-वाहक बनकर आ  जाओ॥6॥

9325
कुर्मस्त  आयुरजरं  यदग्ने  यथा  युक्तो  जातवेदो  न  रिष्या: ।
अथा वहासि सुमनस्यमानो भागं देवेभ्यो हविषः सुजात॥॥7॥

हे  अग्नि - देव  तुम  अमर  रहोगे  हम  सब  देते  हैं  वरदान ।
अनल अनश्वर हुए आज से सबको  देना  अब  हविष्यान्न॥7॥

9326
प्रयाजान्मे अनुयाजॉश्च केवलानूर्जस्वन्तं हविषो दत्त भागम् ।
घृतं  चापां  पुरुषं  चौषधीनामग्नेश्च  दीर्घमायुरस्तु  देवा: ॥8॥

हवि - भाग  सभी  को  पहुँचाऊँगा  पर मुझे तृप्त करते रहना ।
जल  का घृत का औषधि का भी सार-तत्व अर्पित  करना॥8॥

9327
तव प्रयाजा अनुयाजाश्च केवल ऊर्जस्वन्तो हविषःसन्तु भागा:।
तवाग्ने  यज्ञो3यमस्तु  सर्वस्तुभ्यं नमन्तां प्रदिशश्चतस्त्रः ॥9॥

हे  अग्नि - देव  सब  सार-तत्व  हम  तुम्हें  ही अर्पित करते हैं ।
सभी  यज्ञ  है  तुम्हें  समर्पित  प्रभु प्रणम्य से हम कहते हैं ॥9॥             

2 comments:

  1. बहुत सुन्दर अनुवाद।

    ReplyDelete
  2. हे अग्नि- देव जल औषधि के रस में भी तो तुम विद्यमान हो ।
    परम-पूज्य तुम ही प्रणम्य हो अति-तेजस्वी कान्तिमान हो॥3॥

    तत्वों के भीतर छुपे हैं तत्व...

    ReplyDelete