Wednesday, 29 January 2014

सूक्त - 46

[ऋषि- वत्सप्रि भालन्दन । देवता- अग्नि । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

9272
प्र   होता    जातो  महान्नभोविन्नृषद्वा   सीददपामुपस्थे ।
दधिर्यो धायि स ते वयांसि यन्ता वसूनि विधते तनूपा:॥1॥

मनुज - देह  नभ-बादल भी है अग्नि-देव का सुखद बसेरा ।
धन  और  धान्  वही देते हैं जल थल नभ सबमें है डेरा॥1॥

9273
इमं  विधन्तो  अपां  सधस्थे  पशुं  न  नष्टं  पदैरनु  ग्मन् ।
गुहा चतन्तमुशिजो नमोभिरिच्छन्तो धीरा भृगवोSविन्दन्॥2॥

जैसे  पशु  के  पद - चिन्हों  के  पीछे  जाकर  उसको  पाते  हैं ।
वैसे  ही  ज्ञानी  अग्नि-तत्व  का  अन्वेषण  करने  जाते  हैं॥2॥

9274
इमं  त्रितो  भूर्यविन्ददिच्छन्वैभूवसो   मूर्धन्यघ्न्याया: ।
स शेवृधो जात आ हर्म्येषु नाभिर्युवा भवति रोचनस्य॥3॥

अग्नि - देव अति तेजस्वी हैं विद्वत् - जन उनको  पाते हैं ।
वे सबको सुख-सन्तति देते आत्मीय मान अपनाते हैं॥3॥

9275
मन्द्रं होतारमुशिजो नमोभिः प्राञ्चं यज्ञं नेतारमध्वराणाम्।
विशामकृण्वन्नरतिं  पावकं  हव्यवाहं  दधतो  मानुषेषु ॥4॥

सुख - दायक हवि - वाहक  वह  हैं सत्पथ  पर  पहुँचाते  हैं ।
वह पूजनीय वह ही प्रणम्य है हम उनकी महिमा गाते हैं॥4॥

9276
प्र   भूर्जयन्तं   महां   विपोधां  मूरा   अमूरं  पुरां  दर्माणम् ।
नयन्तो  गर्भं  वनां धियं धुर्हिरिश्मश्रुं  नार्वाणं धनर्चम् ॥5॥

धरा  अग्नि  का  पावन  डेरा  ज्ञानी  जन करते हैं ध्यान ।
रिमझिम बरसात वही देते इनका भोजन है हविष्यान्न॥5॥

9277
नि पस्त्यासु त्रित: स्तभूयनन्परिवीतो योनौ सीददन्तः ।
अतः सङ्गृभ्या विशां दमूना विधर्मणायन्त्रैरीयते नृन् ॥6॥

अग्नि - देवता  हवि - वाहक  हैं सबको  देते हैं हवि-भाग ।
बेरोक - टोक  आते- जाते  हैं गाते हैं मेघ-मल्हार राग ॥6॥

9278
अस्याजरासो दमामरित्रा अर्चध्दूमासो अग्नयः पावका: ।
श्वितीचयः श्वात्रासो भुरण्यवो वनर्षदो वायवो न सोमा:॥7॥

अग्नि - देव आरोग्य  बॉटते  तन  को  नीरोग  बनाते  हैं ।
हवि - सुवास  को  फैलाते  हैं जन-जन तक पहुँचाते हैं॥7॥

9279
प्र जिह्वया भरते वेपो अग्निः प्र वयुनानि चेतसा पृथिव्या: ।
तमावयः शुचयन्तं पावकं मन्द्रं होतारं दधिरे यजिष्ठम्॥8॥

जलती आग अग्नि  का मुख है वे हवि-वहन कर्म करते हैं ।
पावक  पावन  प्रभु  प्रणम्य हैं वे जग की पीडा हरते हैं ॥8॥

9280
द्यावा यमग्निं पृथिवी जनिष्टामापस्त्वष्टा भृगवो यं सहोभिः।
ईळेन्यं  प्रथमं   मातरिश्वा   देवास्ततक्षुर्मनवे   यजत्रम् ॥9॥

अग्नि - देव  की  महिमा  अद्भुत  अशुभ को वही जलाते हैं ।
सबको आरोग्य  वही  देते  है पावन-पथ पर पहुँचाते हैं ॥9॥

9281
यं  त्वा  देवा  दधिरे  हव्यवाहं  पुरुस्पृहो मानुषासो यजत्रम् ।
स यामन्नग्ने स्तुवते वयो धा:प्र देवयन्यशस:सं हि पूर्वीः॥10॥

सुख-वैभव  के अभिलाषी-जन  अग्नि-देव  का  धरते  ध्यान ।
हम पर दया-दृष्टि रखना प्रभु हमको देना आलोक महान ॥10॥                

2 comments:

  1. स्तुतियाँ सिद्धान्त को गाढ़ा कर जाती हैं।

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  2. जलती आग अग्नि का मुख है वे हवि-वहन कर्म करते हैं ।
    पावक पावन प्रभु प्रणम्य हैं वे जग की पीडा हरते हैं ॥8॥

    अग्निदेव जीवन का आधार हैं..

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