[ऋषि- वत्सप्रि भालन्दन । देवता- अग्नि । छन्द- त्रिष्टुप् ।]
9272
प्र होता जातो महान्नभोविन्नृषद्वा सीददपामुपस्थे ।
दधिर्यो धायि स ते वयांसि यन्ता वसूनि विधते तनूपा:॥1॥
मनुज - देह नभ-बादल भी है अग्नि-देव का सुखद बसेरा ।
धन और धान् वही देते हैं जल थल नभ सबमें है डेरा॥1॥
9273
इमं विधन्तो अपां सधस्थे पशुं न नष्टं पदैरनु ग्मन् ।
गुहा चतन्तमुशिजो नमोभिरिच्छन्तो धीरा भृगवोSविन्दन्॥2॥
जैसे पशु के पद - चिन्हों के पीछे जाकर उसको पाते हैं ।
वैसे ही ज्ञानी अग्नि-तत्व का अन्वेषण करने जाते हैं॥2॥
9274
इमं त्रितो भूर्यविन्ददिच्छन्वैभूवसो मूर्धन्यघ्न्याया: ।
स शेवृधो जात आ हर्म्येषु नाभिर्युवा भवति रोचनस्य॥3॥
अग्नि - देव अति तेजस्वी हैं विद्वत् - जन उनको पाते हैं ।
वे सबको सुख-सन्तति देते आत्मीय मान अपनाते हैं॥3॥
9275
मन्द्रं होतारमुशिजो नमोभिः प्राञ्चं यज्ञं नेतारमध्वराणाम्।
विशामकृण्वन्नरतिं पावकं हव्यवाहं दधतो मानुषेषु ॥4॥
सुख - दायक हवि - वाहक वह हैं सत्पथ पर पहुँचाते हैं ।
वह पूजनीय वह ही प्रणम्य है हम उनकी महिमा गाते हैं॥4॥
9276
प्र भूर्जयन्तं महां विपोधां मूरा अमूरं पुरां दर्माणम् ।
नयन्तो गर्भं वनां धियं धुर्हिरिश्मश्रुं नार्वाणं धनर्चम् ॥5॥
धरा अग्नि का पावन डेरा ज्ञानी जन करते हैं ध्यान ।
रिमझिम बरसात वही देते इनका भोजन है हविष्यान्न॥5॥
9277
नि पस्त्यासु त्रित: स्तभूयनन्परिवीतो योनौ सीददन्तः ।
अतः सङ्गृभ्या विशां दमूना विधर्मणायन्त्रैरीयते नृन् ॥6॥
अग्नि - देवता हवि - वाहक हैं सबको देते हैं हवि-भाग ।
बेरोक - टोक आते- जाते हैं गाते हैं मेघ-मल्हार राग ॥6॥
9278
अस्याजरासो दमामरित्रा अर्चध्दूमासो अग्नयः पावका: ।
श्वितीचयः श्वात्रासो भुरण्यवो वनर्षदो वायवो न सोमा:॥7॥
अग्नि - देव आरोग्य बॉटते तन को नीरोग बनाते हैं ।
हवि - सुवास को फैलाते हैं जन-जन तक पहुँचाते हैं॥7॥
9279
प्र जिह्वया भरते वेपो अग्निः प्र वयुनानि चेतसा पृथिव्या: ।
तमावयः शुचयन्तं पावकं मन्द्रं होतारं दधिरे यजिष्ठम्॥8॥
जलती आग अग्नि का मुख है वे हवि-वहन कर्म करते हैं ।
पावक पावन प्रभु प्रणम्य हैं वे जग की पीडा हरते हैं ॥8॥
9280
द्यावा यमग्निं पृथिवी जनिष्टामापस्त्वष्टा भृगवो यं सहोभिः।
ईळेन्यं प्रथमं मातरिश्वा देवास्ततक्षुर्मनवे यजत्रम् ॥9॥
अग्नि - देव की महिमा अद्भुत अशुभ को वही जलाते हैं ।
सबको आरोग्य वही देते है पावन-पथ पर पहुँचाते हैं ॥9॥
9281
यं त्वा देवा दधिरे हव्यवाहं पुरुस्पृहो मानुषासो यजत्रम् ।
स यामन्नग्ने स्तुवते वयो धा:प्र देवयन्यशस:सं हि पूर्वीः॥10॥
सुख-वैभव के अभिलाषी-जन अग्नि-देव का धरते ध्यान ।
हम पर दया-दृष्टि रखना प्रभु हमको देना आलोक महान ॥10॥
9272
प्र होता जातो महान्नभोविन्नृषद्वा सीददपामुपस्थे ।
दधिर्यो धायि स ते वयांसि यन्ता वसूनि विधते तनूपा:॥1॥
मनुज - देह नभ-बादल भी है अग्नि-देव का सुखद बसेरा ।
धन और धान् वही देते हैं जल थल नभ सबमें है डेरा॥1॥
9273
इमं विधन्तो अपां सधस्थे पशुं न नष्टं पदैरनु ग्मन् ।
गुहा चतन्तमुशिजो नमोभिरिच्छन्तो धीरा भृगवोSविन्दन्॥2॥
जैसे पशु के पद - चिन्हों के पीछे जाकर उसको पाते हैं ।
वैसे ही ज्ञानी अग्नि-तत्व का अन्वेषण करने जाते हैं॥2॥
9274
इमं त्रितो भूर्यविन्ददिच्छन्वैभूवसो मूर्धन्यघ्न्याया: ।
स शेवृधो जात आ हर्म्येषु नाभिर्युवा भवति रोचनस्य॥3॥
अग्नि - देव अति तेजस्वी हैं विद्वत् - जन उनको पाते हैं ।
वे सबको सुख-सन्तति देते आत्मीय मान अपनाते हैं॥3॥
9275
मन्द्रं होतारमुशिजो नमोभिः प्राञ्चं यज्ञं नेतारमध्वराणाम्।
विशामकृण्वन्नरतिं पावकं हव्यवाहं दधतो मानुषेषु ॥4॥
सुख - दायक हवि - वाहक वह हैं सत्पथ पर पहुँचाते हैं ।
वह पूजनीय वह ही प्रणम्य है हम उनकी महिमा गाते हैं॥4॥
9276
प्र भूर्जयन्तं महां विपोधां मूरा अमूरं पुरां दर्माणम् ।
नयन्तो गर्भं वनां धियं धुर्हिरिश्मश्रुं नार्वाणं धनर्चम् ॥5॥
धरा अग्नि का पावन डेरा ज्ञानी जन करते हैं ध्यान ।
रिमझिम बरसात वही देते इनका भोजन है हविष्यान्न॥5॥
9277
नि पस्त्यासु त्रित: स्तभूयनन्परिवीतो योनौ सीददन्तः ।
अतः सङ्गृभ्या विशां दमूना विधर्मणायन्त्रैरीयते नृन् ॥6॥
अग्नि - देवता हवि - वाहक हैं सबको देते हैं हवि-भाग ।
बेरोक - टोक आते- जाते हैं गाते हैं मेघ-मल्हार राग ॥6॥
9278
अस्याजरासो दमामरित्रा अर्चध्दूमासो अग्नयः पावका: ।
श्वितीचयः श्वात्रासो भुरण्यवो वनर्षदो वायवो न सोमा:॥7॥
अग्नि - देव आरोग्य बॉटते तन को नीरोग बनाते हैं ।
हवि - सुवास को फैलाते हैं जन-जन तक पहुँचाते हैं॥7॥
9279
प्र जिह्वया भरते वेपो अग्निः प्र वयुनानि चेतसा पृथिव्या: ।
तमावयः शुचयन्तं पावकं मन्द्रं होतारं दधिरे यजिष्ठम्॥8॥
जलती आग अग्नि का मुख है वे हवि-वहन कर्म करते हैं ।
पावक पावन प्रभु प्रणम्य हैं वे जग की पीडा हरते हैं ॥8॥
9280
द्यावा यमग्निं पृथिवी जनिष्टामापस्त्वष्टा भृगवो यं सहोभिः।
ईळेन्यं प्रथमं मातरिश्वा देवास्ततक्षुर्मनवे यजत्रम् ॥9॥
अग्नि - देव की महिमा अद्भुत अशुभ को वही जलाते हैं ।
सबको आरोग्य वही देते है पावन-पथ पर पहुँचाते हैं ॥9॥
9281
यं त्वा देवा दधिरे हव्यवाहं पुरुस्पृहो मानुषासो यजत्रम् ।
स यामन्नग्ने स्तुवते वयो धा:प्र देवयन्यशस:सं हि पूर्वीः॥10॥
सुख-वैभव के अभिलाषी-जन अग्नि-देव का धरते ध्यान ।
हम पर दया-दृष्टि रखना प्रभु हमको देना आलोक महान ॥10॥
स्तुतियाँ सिद्धान्त को गाढ़ा कर जाती हैं।
ReplyDeleteजलती आग अग्नि का मुख है वे हवि-वहन कर्म करते हैं ।
ReplyDeleteपावक पावन प्रभु प्रणम्य हैं वे जग की पीडा हरते हैं ॥8॥
अग्निदेव जीवन का आधार हैं..