Thursday, 2 January 2014

सूक्त - 73

[ऋषि- गौरवीति शाक्य । देवता- इन्द्र । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

9575
जनिष्ठा उग्रः सहसे तुराय मन्द्र ओजिष्ठो बहुलाभिमानः ।
अवर्धन्निन्द्रं मरुतश्चिदत्र माता यद्वीरं दधनध्दनिष्ठा॥1॥

वीर-पुरुष जब मातृभूमि का रक्षक बन-कर आ जाता है ।
वह शौर्य-धैर्य से सजा हुआ जननी का मान बढाता है॥1॥

9576
द्रुहो  निषत्ता  पृशनी  चिदेवैः पुरु  शंसेन वावृधुष्ट इन्द्रम् ।
अभीवृतेव ता महापदेन ध्वान्तात्प्रपित्वादुदरन्त गर्भा:॥2॥

दुश्मन भी हतप्रभ हो जाते हैं सेना का बल बढ जाता है ।
प्रजा  सुरक्षित  हो  जाती है सब संशय मिट जाता है ॥2॥

9577
ऋष्वा  ते  पादा  प्र  यज्जिगास्यवर्धन्वाजा  उत ये चिदत्र ।
त्वमिन्द्र सालावृकान्त्सहस्त्रमासन् दधिषे अश्विना ववृत्या:॥3॥

राजन तुम शुभ बनकर आना रहना जनता के आस-पास ।
पात्रानुसार पदवी बॉटो पर सेना हो बहुत-बहुत ही खास॥3॥

9578
समना   तूर्णिरूप   यासि  यज्ञमा  नासत्या  सख्याय  वक्षि ।
वसाव्यामिन्द्र   धारयः  सहस्त्राश्विना   शूर  ददतुर्मघानि॥4॥

तीव्र-वेग-गामी राजन  का  रण में भी मन विचलित न होए ।
योग्य  व्यक्ति  कुर्सी पर बैठे उच्चासन भी आपा  न खोए॥4॥

9579
मन्दमान  ऋतादधि  प्रजायै  सखिभिरिन्द्र  इषिरेबभिरर्थम् ।
आभिर्हि माया उप दस्युमागान्मिह:प्र तम्रा अवपत्तमांसि॥5॥

सखा-सँग राजा मोद-मनाए जन-जन को बॉटे धन और धान।
देश-धर्म पर मर-मिटता हो मिट जाए तमस और अज्ञान॥5॥

9580
सनामाना चिद् दध्वसयो न्यस्मा अवाहन्निन्द्र उषसो यथानः।
ऋष्वैरगच्छः सखिभिर्निकामैः साकं  प्रतिष्ठा  हृद्या  जघन्थ॥6॥

दुष्ट - दमन  अति  आवश्यक  है  दण्डित  करे  निभाए  धर्म ।
दुश्मन  पर  जो  अँकुश  रखे  करे  सतत  सेवा  का  कर्म ॥6॥

9581
त्वं  जघन्थं  नमुचिं  मखस्युं दासं कृण्वान ऋषये विमायम् ।
त्वं  चकर्थ  मनवे  स्योनान्पतथो  देवत्राञ्जसेव  यानान् ॥7॥ 

असुरों  से   रक्षा  करे  हमारी  राजा  हो  अतिशय  बलशाली ।
वह  सबको  अपना लगता हो वह देश बना दे गौरवशाली ॥7॥

9582
त्वमेतानि  पप्रिषे   वि   नामेशान   इन्द्र   दधिषे  गभस्तौ ।
अनु  त्वा देवा: शवसा  मदन्त्युपरिबुध्नान्वनिनश्चकर्थ॥8॥

हे  परम-मित्र  हे  परमेश्वर  तुम   सबको   आश्रय   देते  हो ।
जल  भी  हमें  तुम्हीं  देते हो सबको तुम अपना लेते हो ॥8॥

9583
चक्रं  यदस्याप्स्वा  निषत्तमुतो  तदस्मै  मध्विच्चच्छद्यात् ।
पृथिव्यामतिषितं   यदूधः   पयो   गोष्वदधा   ओषधीषु ॥9॥

पृथ्वी  पर  जब  वर्षा  होती  है  तिल  में  तेल  वही  बनता है ।
गन्ना में वह गुड बन जाता फल-रस बन पोषण करता है॥9॥

9584
अश्वादियायेति   यद्वदन्त्योजसो   जातमुत   मन्य   एनम्  ।
मन्योरियाय हर्म्येषु तस्थौ यतः प्रजज्ञ इन्द्रो अस्य वेद॥10॥

राजा  बन-कर  जो  भी  आए  वह  शूर-वीर  तेजस्वी  हो ।
पूरे मन से दायित्व निभाए पर-हित सोचे ओजस्वी हो ॥10॥

9585
वयः  सुपर्णा  उप  सेदुरिन्द्रं  प्रियमेधा  ऋषयो  नाधमाना: ।
अप ध्वान्तमूर्णुहि पूर्धि चक्षुर्मुममुग्ध्य1स्मान्निदधयेव बध्दान्॥11॥

हे  परमेश्वर  तमस  मिटाओ  जननी - जन्मभूमि  जस  पाए ।
सबका चिन्तन देश- धर्म हो जन-जन-जननी का गौरव गाए॥11॥  
    

   
 

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