[ऋषि- गौरवीति शाक्य । देवता- इन्द्र । छन्द- त्रिष्टुप् ।]
9575
जनिष्ठा उग्रः सहसे तुराय मन्द्र ओजिष्ठो बहुलाभिमानः ।
अवर्धन्निन्द्रं मरुतश्चिदत्र माता यद्वीरं दधनध्दनिष्ठा॥1॥
वीर-पुरुष जब मातृभूमि का रक्षक बन-कर आ जाता है ।
वह शौर्य-धैर्य से सजा हुआ जननी का मान बढाता है॥1॥
9576
द्रुहो निषत्ता पृशनी चिदेवैः पुरु शंसेन वावृधुष्ट इन्द्रम् ।
अभीवृतेव ता महापदेन ध्वान्तात्प्रपित्वादुदरन्त गर्भा:॥2॥
दुश्मन भी हतप्रभ हो जाते हैं सेना का बल बढ जाता है ।
प्रजा सुरक्षित हो जाती है सब संशय मिट जाता है ॥2॥
9577
ऋष्वा ते पादा प्र यज्जिगास्यवर्धन्वाजा उत ये चिदत्र ।
त्वमिन्द्र सालावृकान्त्सहस्त्रमासन् दधिषे अश्विना ववृत्या:॥3॥
राजन तुम शुभ बनकर आना रहना जनता के आस-पास ।
पात्रानुसार पदवी बॉटो पर सेना हो बहुत-बहुत ही खास॥3॥
9578
समना तूर्णिरूप यासि यज्ञमा नासत्या सख्याय वक्षि ।
वसाव्यामिन्द्र धारयः सहस्त्राश्विना शूर ददतुर्मघानि॥4॥
तीव्र-वेग-गामी राजन का रण में भी मन विचलित न होए ।
योग्य व्यक्ति कुर्सी पर बैठे उच्चासन भी आपा न खोए॥4॥
9579
मन्दमान ऋतादधि प्रजायै सखिभिरिन्द्र इषिरेबभिरर्थम् ।
आभिर्हि माया उप दस्युमागान्मिह:प्र तम्रा अवपत्तमांसि॥5॥
सखा-सँग राजा मोद-मनाए जन-जन को बॉटे धन और धान।
देश-धर्म पर मर-मिटता हो मिट जाए तमस और अज्ञान॥5॥
9580
सनामाना चिद् दध्वसयो न्यस्मा अवाहन्निन्द्र उषसो यथानः।
ऋष्वैरगच्छः सखिभिर्निकामैः साकं प्रतिष्ठा हृद्या जघन्थ॥6॥
दुष्ट - दमन अति आवश्यक है दण्डित करे निभाए धर्म ।
दुश्मन पर जो अँकुश रखे करे सतत सेवा का कर्म ॥6॥
9581
त्वं जघन्थं नमुचिं मखस्युं दासं कृण्वान ऋषये विमायम् ।
त्वं चकर्थ मनवे स्योनान्पतथो देवत्राञ्जसेव यानान् ॥7॥
असुरों से रक्षा करे हमारी राजा हो अतिशय बलशाली ।
वह सबको अपना लगता हो वह देश बना दे गौरवशाली ॥7॥
9582
त्वमेतानि पप्रिषे वि नामेशान इन्द्र दधिषे गभस्तौ ।
अनु त्वा देवा: शवसा मदन्त्युपरिबुध्नान्वनिनश्चकर्थ॥8॥
हे परम-मित्र हे परमेश्वर तुम सबको आश्रय देते हो ।
जल भी हमें तुम्हीं देते हो सबको तुम अपना लेते हो ॥8॥
9583
चक्रं यदस्याप्स्वा निषत्तमुतो तदस्मै मध्विच्चच्छद्यात् ।
पृथिव्यामतिषितं यदूधः पयो गोष्वदधा ओषधीषु ॥9॥
पृथ्वी पर जब वर्षा होती है तिल में तेल वही बनता है ।
गन्ना में वह गुड बन जाता फल-रस बन पोषण करता है॥9॥
9584
अश्वादियायेति यद्वदन्त्योजसो जातमुत मन्य एनम् ।
मन्योरियाय हर्म्येषु तस्थौ यतः प्रजज्ञ इन्द्रो अस्य वेद॥10॥
राजा बन-कर जो भी आए वह शूर-वीर तेजस्वी हो ।
पूरे मन से दायित्व निभाए पर-हित सोचे ओजस्वी हो ॥10॥
9585
वयः सुपर्णा उप सेदुरिन्द्रं प्रियमेधा ऋषयो नाधमाना: ।
अप ध्वान्तमूर्णुहि पूर्धि चक्षुर्मुममुग्ध्य1स्मान्निदधयेव बध्दान्॥11॥
हे परमेश्वर तमस मिटाओ जननी - जन्मभूमि जस पाए ।
सबका चिन्तन देश- धर्म हो जन-जन-जननी का गौरव गाए॥11॥
9575
जनिष्ठा उग्रः सहसे तुराय मन्द्र ओजिष्ठो बहुलाभिमानः ।
अवर्धन्निन्द्रं मरुतश्चिदत्र माता यद्वीरं दधनध्दनिष्ठा॥1॥
वीर-पुरुष जब मातृभूमि का रक्षक बन-कर आ जाता है ।
वह शौर्य-धैर्य से सजा हुआ जननी का मान बढाता है॥1॥
9576
द्रुहो निषत्ता पृशनी चिदेवैः पुरु शंसेन वावृधुष्ट इन्द्रम् ।
अभीवृतेव ता महापदेन ध्वान्तात्प्रपित्वादुदरन्त गर्भा:॥2॥
दुश्मन भी हतप्रभ हो जाते हैं सेना का बल बढ जाता है ।
प्रजा सुरक्षित हो जाती है सब संशय मिट जाता है ॥2॥
9577
ऋष्वा ते पादा प्र यज्जिगास्यवर्धन्वाजा उत ये चिदत्र ।
त्वमिन्द्र सालावृकान्त्सहस्त्रमासन् दधिषे अश्विना ववृत्या:॥3॥
राजन तुम शुभ बनकर आना रहना जनता के आस-पास ।
पात्रानुसार पदवी बॉटो पर सेना हो बहुत-बहुत ही खास॥3॥
9578
समना तूर्णिरूप यासि यज्ञमा नासत्या सख्याय वक्षि ।
वसाव्यामिन्द्र धारयः सहस्त्राश्विना शूर ददतुर्मघानि॥4॥
तीव्र-वेग-गामी राजन का रण में भी मन विचलित न होए ।
योग्य व्यक्ति कुर्सी पर बैठे उच्चासन भी आपा न खोए॥4॥
9579
मन्दमान ऋतादधि प्रजायै सखिभिरिन्द्र इषिरेबभिरर्थम् ।
आभिर्हि माया उप दस्युमागान्मिह:प्र तम्रा अवपत्तमांसि॥5॥
सखा-सँग राजा मोद-मनाए जन-जन को बॉटे धन और धान।
देश-धर्म पर मर-मिटता हो मिट जाए तमस और अज्ञान॥5॥
9580
सनामाना चिद् दध्वसयो न्यस्मा अवाहन्निन्द्र उषसो यथानः।
ऋष्वैरगच्छः सखिभिर्निकामैः साकं प्रतिष्ठा हृद्या जघन्थ॥6॥
दुष्ट - दमन अति आवश्यक है दण्डित करे निभाए धर्म ।
दुश्मन पर जो अँकुश रखे करे सतत सेवा का कर्म ॥6॥
9581
त्वं जघन्थं नमुचिं मखस्युं दासं कृण्वान ऋषये विमायम् ।
त्वं चकर्थ मनवे स्योनान्पतथो देवत्राञ्जसेव यानान् ॥7॥
असुरों से रक्षा करे हमारी राजा हो अतिशय बलशाली ।
वह सबको अपना लगता हो वह देश बना दे गौरवशाली ॥7॥
9582
त्वमेतानि पप्रिषे वि नामेशान इन्द्र दधिषे गभस्तौ ।
अनु त्वा देवा: शवसा मदन्त्युपरिबुध्नान्वनिनश्चकर्थ॥8॥
हे परम-मित्र हे परमेश्वर तुम सबको आश्रय देते हो ।
जल भी हमें तुम्हीं देते हो सबको तुम अपना लेते हो ॥8॥
9583
चक्रं यदस्याप्स्वा निषत्तमुतो तदस्मै मध्विच्चच्छद्यात् ।
पृथिव्यामतिषितं यदूधः पयो गोष्वदधा ओषधीषु ॥9॥
पृथ्वी पर जब वर्षा होती है तिल में तेल वही बनता है ।
गन्ना में वह गुड बन जाता फल-रस बन पोषण करता है॥9॥
9584
अश्वादियायेति यद्वदन्त्योजसो जातमुत मन्य एनम् ।
मन्योरियाय हर्म्येषु तस्थौ यतः प्रजज्ञ इन्द्रो अस्य वेद॥10॥
राजा बन-कर जो भी आए वह शूर-वीर तेजस्वी हो ।
पूरे मन से दायित्व निभाए पर-हित सोचे ओजस्वी हो ॥10॥
9585
वयः सुपर्णा उप सेदुरिन्द्रं प्रियमेधा ऋषयो नाधमाना: ।
अप ध्वान्तमूर्णुहि पूर्धि चक्षुर्मुममुग्ध्य1स्मान्निदधयेव बध्दान्॥11॥
हे परमेश्वर तमस मिटाओ जननी - जन्मभूमि जस पाए ।
सबका चिन्तन देश- धर्म हो जन-जन-जननी का गौरव गाए॥11॥
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