[ऋषि- गौपायन । देवता- जीव । छन्द- अनुष्टुप् - गायत्री - पंक्ति ।]
9394
आ जनं त्वेषसन्दृशं माहीनानामुपस्तुतम् ।
अगन्म बिभ्रतो नमः॥1॥
यह इन्द्रिय ही मानव तन में विनम्र-भाव से रहती है ।
उसके माध्यम से यह काया जीवन भर सुख से चलती है॥1॥
9395
असमातिं नितोशनं त्वेषं निययिनं रथम् ।
भजेरथस्य सत्पतिम् ॥2॥
इन्द्रियॉ मनोरथ पूरा करती अपने में डूबी रहती हैं ।
पर आत्मा है पृथक सर्वदा ये उस तक नहीं पहुँचती हैं॥2॥
9396
यो हनानॉमहिषॉ इवातितस्थौ पवीरवान्।
उतापवीरवान्युधा ॥3॥
सदा हारता आया मन से हे प्रभु तुम्हीं दिलाओ जीत ।
करो अनुग्रह मुझ पर भगवन आत्मिक-बल का गाऊँ गीत॥3॥
9397
यस्येक्ष्वाकुरुप व्रते रेवान्मराय्येधते ।
दिवीव पञ्च कृष्टयः ॥4॥
प्रभु मैं भी आत्मा को जानूँ कर्म-योग मुझको सिखलाओ ।
आत्मा ही तो परमात्मा है इस रहस्य को तुम समझाओ॥4॥
9398
इन्द्र क्षत्रासमातिषु रथप्रोष्ठेषु धारय ।
दिवीव सूर्यं दृशे ॥5॥
तन से जुडी इन्द्रियॉ एवम् मति से दूर जो रहती है ।
उस दिव्य-शक्ति से मिलवाओ दुनियॉ जिसे आत्मा कहती है॥5॥
9399
अगस्त्यस्य नद्भ्यः सप्ती युनक्षि रोहिता ।
पणीन्न्यक्रमीरभि विश्वान्राजन्नराधसः॥6॥
इन्द्रिय पर अँकुश रख पाए ऐसी मति मुझको दो प्रभुवर ।
कीचड में भी कमल बन सकूँ ऐसी जुगत बताओ नटवर॥6॥
9400
अयं मातायं पितायं जीवातुरागमत् ।
इदं तव प्रसर्पणं सुबन्धवेहि निरिहि॥7॥
प्राण ही मातु - पिता है मेरा सर्वस्व इसी को में मानूँ ।
मैं तुमसे कभी मिला ही नहीं आत्मा तुमको कैसे जानूँ॥7॥
9401
यथा युगं वरत्रया नह्यन्ति धरुणाय कम् ।
एवा दाधारं ते मनो जीवातवे न मृत्यवेSथो अरिष्टतातये॥8॥
यदि प्राण की रक्षा करनी हो तो आत्मा से इसको मिलवा दो।
इससे प्राण की उम्र बढेगी आत्मा से परिचय करवा दो ॥8॥
9402
यथेयं पृथिवी मही दाधारेमान्वनस्पतीन् ।
एवा दाधारं ते मनो जीवातये न मृत्यवेSथो अरिष्टतातये॥9॥
तन में इन्द्रिय मन आत्मा है विविध मार्ग में यह चलता है ।
मन से यदि आत्मा जुड जाए तो अद्वितीय पौरुष पलता है॥9॥
9403
यमादहं वैवस्वतात्सुबन्धोर्मन आभरम् ।
जीवातवे न मृत्यवेSथो अरिष्टतातये॥10॥
मृत्युलोक में सब मरते हैं कोई अमर नहीं हो सकता ।
पर जीवन स्थिर हो जाए सब कुछ संभव हो सकता है॥10॥
9404
न्य1ग्वातोSव वाति न्यक्तपति सूर्यः ।
नीचीनमघ्न्या दुहे न्यग्भवतु ते रपः॥11॥
यह जीव पवन सम फिरता है रवि-किरण रोग-कण ले जाए ।
गौ-माता का आशीष मिले तो मेरा रोग-शोक मिट जाए॥11॥
9405
अयं मे हस्तो भगवानयं मे भगवत्तरः ।
अयं मे विश्वभेषजोSयं शिवाभिमर्शनः॥12॥
मेरे ये दोनों हाथ ब्रह्म है ईश्वर से भी यह उत्तम है ।
इसी हाथ में हर औषधि है यह हितकर मंगल अनुपम है॥12॥
9394
आ जनं त्वेषसन्दृशं माहीनानामुपस्तुतम् ।
अगन्म बिभ्रतो नमः॥1॥
यह इन्द्रिय ही मानव तन में विनम्र-भाव से रहती है ।
उसके माध्यम से यह काया जीवन भर सुख से चलती है॥1॥
9395
असमातिं नितोशनं त्वेषं निययिनं रथम् ।
भजेरथस्य सत्पतिम् ॥2॥
इन्द्रियॉ मनोरथ पूरा करती अपने में डूबी रहती हैं ।
पर आत्मा है पृथक सर्वदा ये उस तक नहीं पहुँचती हैं॥2॥
9396
यो हनानॉमहिषॉ इवातितस्थौ पवीरवान्।
उतापवीरवान्युधा ॥3॥
सदा हारता आया मन से हे प्रभु तुम्हीं दिलाओ जीत ।
करो अनुग्रह मुझ पर भगवन आत्मिक-बल का गाऊँ गीत॥3॥
9397
यस्येक्ष्वाकुरुप व्रते रेवान्मराय्येधते ।
दिवीव पञ्च कृष्टयः ॥4॥
प्रभु मैं भी आत्मा को जानूँ कर्म-योग मुझको सिखलाओ ।
आत्मा ही तो परमात्मा है इस रहस्य को तुम समझाओ॥4॥
9398
इन्द्र क्षत्रासमातिषु रथप्रोष्ठेषु धारय ।
दिवीव सूर्यं दृशे ॥5॥
तन से जुडी इन्द्रियॉ एवम् मति से दूर जो रहती है ।
उस दिव्य-शक्ति से मिलवाओ दुनियॉ जिसे आत्मा कहती है॥5॥
9399
अगस्त्यस्य नद्भ्यः सप्ती युनक्षि रोहिता ।
पणीन्न्यक्रमीरभि विश्वान्राजन्नराधसः॥6॥
इन्द्रिय पर अँकुश रख पाए ऐसी मति मुझको दो प्रभुवर ।
कीचड में भी कमल बन सकूँ ऐसी जुगत बताओ नटवर॥6॥
9400
अयं मातायं पितायं जीवातुरागमत् ।
इदं तव प्रसर्पणं सुबन्धवेहि निरिहि॥7॥
प्राण ही मातु - पिता है मेरा सर्वस्व इसी को में मानूँ ।
मैं तुमसे कभी मिला ही नहीं आत्मा तुमको कैसे जानूँ॥7॥
9401
यथा युगं वरत्रया नह्यन्ति धरुणाय कम् ।
एवा दाधारं ते मनो जीवातवे न मृत्यवेSथो अरिष्टतातये॥8॥
यदि प्राण की रक्षा करनी हो तो आत्मा से इसको मिलवा दो।
इससे प्राण की उम्र बढेगी आत्मा से परिचय करवा दो ॥8॥
9402
यथेयं पृथिवी मही दाधारेमान्वनस्पतीन् ।
एवा दाधारं ते मनो जीवातये न मृत्यवेSथो अरिष्टतातये॥9॥
तन में इन्द्रिय मन आत्मा है विविध मार्ग में यह चलता है ।
मन से यदि आत्मा जुड जाए तो अद्वितीय पौरुष पलता है॥9॥
9403
यमादहं वैवस्वतात्सुबन्धोर्मन आभरम् ।
जीवातवे न मृत्यवेSथो अरिष्टतातये॥10॥
मृत्युलोक में सब मरते हैं कोई अमर नहीं हो सकता ।
पर जीवन स्थिर हो जाए सब कुछ संभव हो सकता है॥10॥
9404
न्य1ग्वातोSव वाति न्यक्तपति सूर्यः ।
नीचीनमघ्न्या दुहे न्यग्भवतु ते रपः॥11॥
यह जीव पवन सम फिरता है रवि-किरण रोग-कण ले जाए ।
गौ-माता का आशीष मिले तो मेरा रोग-शोक मिट जाए॥11॥
9405
अयं मे हस्तो भगवानयं मे भगवत्तरः ।
अयं मे विश्वभेषजोSयं शिवाभिमर्शनः॥12॥
मेरे ये दोनों हाथ ब्रह्म है ईश्वर से भी यह उत्तम है ।
इसी हाथ में हर औषधि है यह हितकर मंगल अनुपम है॥12॥
अपने बारे में जिज्ञासा स्वाभाविक है।
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