Friday, 10 January 2014

सूक्त - 65

[ऋषि- वसुकर्ण वासुक्र । देवता- विश्वेदेवा । छन्द- जगती- त्रिष्टुप् ।]

9478
अग्निरिन्द्रो वरुणो मित्रो अर्यमा वायुः पूषा सरस्वती सजोषसः ।
आदित्या विष्णुर्मरुतः स्वर्बृहत् सोमो रुद्रो अदितिर्ब्रह्मणस्पतिः॥1॥

अन्तरिक्ष आकाश अनिल और अनल - दामिनी नभ - स्थित हैं ।
औषधि - प्राण - वनस्पतियों  का परमात्मा पालक-पोषक है॥1॥

9479
इन्द्राग्नी  वृत्रहत्येषु सत्पती मिथो हिन्वाना तन्वा3 समोकसा ।
अन्तरिक्षं  मह्या  पप्रुरोजसा  सोमो  घृतश्रीर्महिमानमीरयन् ॥2॥

अग्नि  -  देव  सज्जन  के  रक्षक  दुष्टों  को  दण्डित  करते  हैं ।
सोम  से  उनका तेजस बढता वे नभ को आलोकित करते  हैं॥2॥

9480
तेषां  हि  मह्ना महतामनर्वणां स्तोमॉ इयर्म्यृतज्ञा ऋताविधाम् ।
ये  अप्सवमर्णवं चित्रराधसस्ते नो रासन्तां महये सुमित्र्या:॥3॥

वे  अति-विशिष्ट  हैं  परम-मित्र  हैं  जो  जल-दान  हमें करते हैं ।
जल से विविध अन्न मिलता है सुख से जीवन भर चलते हैं॥3॥

9481
स्वर्णरमन्तरिक्षाणि रोचना द्यावाभूमी पृथिवीं स्कम्भुरोजसा ।
पृक्षा इव महयन्तः सुरातयो देवा: स्तवन्ते मनुषाय सूरयः॥4॥

आदित्य - देव  आलोक  बॉटते  रवि-किरण छटा बिखराती है ।
इह-पर  दोनों  सार्थक  करते इनकी स्तुति दुनियॉ गाती है॥4॥
 
9482
मित्राय शिक्ष वरुणाय दाशुषे या सम्राजा मनसा न प्रयुच्छतः।
ययोर्धाम धर्मणा रोचते बृहद् ययोरुभे रोदसी नाधसी वृतौ॥5॥

आदित्य - वरुण  हैं  मित्र  हमारे  ये  कर्म-योग  सिखलाते हैं ।
धरती  को  समृध्द  बनाते  प्राञ्जल  -  पाठ  -  पढाते  हैं ॥5॥

9483
या   गौर्वर्तनिं   पर्येति   निष्कृतं   पयो  दुहाना  व्रतनीरवारतः ।
सा पब्रुवाणा वरुणाय दाशुषे देवेभ्यो दाशध्दविषा विवस्वते॥6॥

मन्त्र  मार्ग   की   नौकायें   हैं   साधक   पार   उतर   जाता   है ।
जो हविष्यान्न अर्पित करता है वह निज को निर्भय पाता है॥6॥

9484
दिवक्षसो अग्निजिह्वा ऋतावृध ऋतस्य योनिं विमृशन्त आसते।
द्यां स्कभित्व्य1प आ चक्रुरोजसा यज्ञं जनित्वी तन्वी3 नि मामृजु:॥7॥

हे  अग्नि - देवता  हे  तेजस्वी  जल  थल  नभ  में है वास तुम्हारा ।
तेरे  हवि - भोग  ग्रहण  करने  पर  हुआ सुवासित ये जग सारा॥7॥

9485
परिक्षिता  पितरा  पूर्वजावरी  ऋतस्य  योना  क्षयतः  समोकसा ।
द्यावापृथिवी  वरुणाय  सव्रते  घृतवत्पयो  महिषाय  पिन्वतः॥8॥

परमेश्वर   हैं   पिता   हमारे   वे   निज - दायित्व   निभाते   हैं ।
सर्व-व्याप्त  है  वह  परमात्मा  जब  भी  बुलाओ  आ  जाते हैं ॥8॥

9486
पर्जन्यावाता   वृषभा   पुरीषिणेन्द्रवायू   वरुणो   मित्रो   अर्यमा ।
देवॉ आदित्यॉ अदितिं हवामहे ये पार्थिवासो दिव्यासो अप्सु ये॥9॥

मेघ   देव   और   पवन   देव   ये   दोनों   ही   जल -  दायक   हैं ।
हम   प्रेम  से   इन्हें   बुलाते  हैं  ये  मँगल - फल - दायक  हैं ॥9॥

9487
त्वष्टारं  वायुमृभवो  य  ओहते  दैव्या  होतारा  उषसं  स्वस्तये ।
बृहस्पतिं  वृत्रखादं  सुमेधसमिन्द्रियं सोमं धनसा उ ईमहे ॥10॥

सूर्य  वायु  और  ऊषा  मनुज  को  नव - जीवन  देने  आते  हैं ।
सबका कल्याण सदा करते हैं हम उनसे यश-वैभव पाते हैं ॥10॥

9488
ब्रह्म  गामश्वं  जनयन्त  ओषधीर्वनस्पतीन्पृथिवीं  पर्वतॉ  अपः ।
सूर्यं दिवि रोहयन्तः सुदानव आर्या व्रता विसृजन्तो अधि क्षमि॥11॥

सदियों  से  यह  ऋचा  कह  रही  तुम दुनियॉ को यह समझाओ ।
यम  -  नियमों  के  संदेशों  को  पूरी  पृथ्वी  पर   पहुँचाओ ॥11॥

9489
भुज्युमंहसः पिपृथो निरश्विना श्यावं पुत्रं वध्रिमत्या अजिन्वतम्।
कमद्युवं  विमदायोहथुर्युवं  विष्णाप्वं1  विश्वकायाव सृजथः ॥12॥

जग  को  विपदा  से  वही  बचाते  सबको  देते  हैं  धन - धान ।
सुख - सन्तति  वे  ही  देते  हैं  परमेश्वर  हैं  कृपा - निधान ॥12॥

9490
पावीरवी  तन्युतुरेकपादजो  दिवो  धर्ता  सिन्धुरापः  समुद्रियः ।
विश्वे देवासःशृणवन्वचांसि मे सरस्वती सह धीभिःपुरन्ध्या॥13॥

हे  प्रभु  वाणी  का  वैभव  देना  दिव्य - शक्तियों  का  दो  दान ।
हे सरस्वती मेरे मन में विराजो हमको भी दे दो दिव्य-ज्ञान॥13॥

9491
विश्वे  देवा: सह  धीभिः पुरन्ध्या  मनोर्यजत्रा अमृता ऋतज्ञा: ।
रातिषाचो अभिषाचः स्वर्विदः स्व1र्गिरो ब्रह्म सूक्तं जुषेरत ॥14॥

ज्ञान - कर्म  के  अनगिन  ज्ञाता  हर  युग  में  धरती पर आए ।
सद्गुण से सुख-साधन पाए सत्कर्म सुफल सबको समझाए॥14॥

9492
देवान्वसिष्ठो  अमृतान्ववन्दे  ये  विश्वा  भुवनाभि  प्रतस्थु: ।
ते नो रासन्तामुरुगायमद्य यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥15॥

गुरुवों  का  अभिवादन  करते हैं जिनसे सीखा है ज्ञान-ध्यान ।
हे  प्रभु  सदा  सुरक्षा  देना  शुभ  गुण  कर्मों  का  दो दान ॥15॥

 

No comments:

Post a Comment