Wednesday, 30 April 2014

सूक्त - 66

[ऋषि- शत वैखानस । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री- अनुष्टुप् ।]

8239
पवस्व विश्वचर्षणेSभि विश्वानि काव्या । सखा सखिभ्यः ईड्यः॥1॥

हे  परम - मित्र  हे  परमेश्वर  तुम  ही  तो  नित - नूतन  बिहान  हो ।
कवियों का शुभ - भाव हमें दो कवित्व-शक्ति के तुम निधान हो ॥1॥

8240
ताभ्यां विश्वस्य राजसि ये पवमान धामनी ।प्रतीची सोम तस्थतुः॥2॥

ज्ञान - मार्ग  के  माध्यम  से  तुम  जगती  को  आलोकित  करते ।
पुरा - विधा को रेखाञ्कित  कर  सबको  पावन  तुम्हीं  बनाते ॥2॥

8241
परि धामानि यानि ते त्वं सोमासि विश्वतः।पवमान ऋतुभिः कवे॥3॥

परिवर्तन  है  प्रकृति  प्रकृति  की  आना  रहना  और  फिर  जाना ।
काल - चक्र चलता रहता  है  कर्मानुसार  फल  मिलता माना ॥3॥

8242
पवस्व जनयन्निषोSभि विश्वानि वार्या। सखा सखिभ्य ऊतये॥4॥

जो  परमात्म - परायण  होते  प्रभु  सुख - मय  जीवन  देते  हैं ।
विविध - भॉति  के  वैभव  देते  पथ  का  कण्टक हर लेते हैं ॥4॥

8243
तव शुक्रासो अर्चयो दिवस्पृष्ठे वि तन्वते। पवित्रं सोम धामभिः॥5॥

यह  धरती  देदीप्य - मान  है  प्रभु  प्रकाश  से  सभी  प्रकाशित ।
अन्न - धान देती वसुन्धरा पावन - पवन परस्पर पुलकित ॥5॥

8244
तवेमे सप्त सिन्धवः प्रशिषं सोम सिस्त्रते । तुभ्यं धावन्ति धेनवः॥6॥

सप्त - सिन्धु अनुसरण  तुम्हारा अविरल ऊर्मि  धार  से  चलते ।
कर्म - निमग्न  सभी  प्राणी  हैं  गिरते  पडते  और  संभलते ॥6॥

8245
प्र सोम याहि धारया सुत इन्द्राय मत्सरः। दधानो अक्षिति श्रवः॥7॥

आनन्द - वृष्टि  से  नहलाओ  प्रभु  तुम  हो  खुद  आनन्द - स्वरूप ।
कण - कण  में  तुम  बसे  हुए  हो  तुम  अक्षय - यश  हो अनूप ॥7॥

8246
समु त्वा धीभिरस्वरन्हिन्वतीःसप्त जामयः।विप्रमाजा विवस्वतः॥8॥

प्रभु - उपासना  जो  करते  हैं  परमेश्वर  से  होता  साक्षात्कार ।
निर्विकल्प तक वे जाते हैं  फिर  करते  हैं  सबका  उपकार ॥8॥

8247
मृजन्ति त्वा समग्रुवोSव्ये जीरावधि ष्वणि। रेभो यदज्यसे वने॥9॥

कर्म - योग  का  पथ  उत्तम  है  आओ  सब  इसी  मार्ग  पर  आओ ।
आत्म -ज्ञान खुद  पा  जाओगे  सुख - सान्निध्य  सभी  पाओ ॥9॥

8248
पवमानस्य ते कवे वाजिन्त्सर्गा असृक्षत। अर्वन्तो न श्रवस्यवः॥10॥

हे  पावन  पूजनीय  परमेश्वर  तुम  ही  रखते  हो  सबका  ध्यान ।
वरद - हस्त  हम  पर  भी  रखना दीन - बन्धु हे दयानिधान॥10॥

8249
अच्छा कोशं मधुश्चुतमसृगं वारे अव्यये । अवावशन्त धीतयः॥11॥

तेरी  रचना अति - शय  सुन्दर  कितनी  सुन्दर  है  वसुन्धरा ।
पर मानव सबसे सुन्दर है उससे सुन्दर उसकी ऋतम्भरा॥11॥

8250
अच्छा समुद्रमिन्दवोSस्तं गावो न धेनवः।अग्मन्नृतस्य योनिमा॥12॥

वेद - ऋचायें  शब्दों  द्वारा  पावन - प्रभु  को  अविरल  भजती  हैं । 
शब्द- ब्रह्म  है  वह  परमेश्वर श्रुतियॉ  भी  ऐसा  ही कहती  हैं ॥12॥

8251
प्र ण इन्दो महे रण आपो अर्षन्ति सिन्धवः।यद् गोभिर्वासयिष्यसे॥13॥

ज्ञान -  कर्म  की  अद्भुत  संगति  दोनों  का  युग्म  परस्पर  है ।
कैसे  दोनों  का  साथ  निभायें  यह  हम  पर ही निर्भर है ॥13॥

8252
अस्य ते सख्ये वयमियक्षन्तस्त्वोतयः।इन्दो सखित्वमुश्मसि॥14॥

आत्म- ज्ञान जब  हो  जाता  है  परमेश्वर  सखा- सदृश  लगता  है ।
सख्य - भाव  से  ही  अपनायें  इसमें  अपना- पन  पलता  है ॥14॥

8253
आ पवस्व गविष्टये महे सोम नृचक्षसे । एन्द्रस्य जठरे विश॥15॥

हे  प्रभु  तन-मन  पावन  कर  दो जठरानल बन कर आ जाओ ।
माना  तुम  सर्वत्र  व्याप्त  हो  मेरे  मन  मन्दिर  में आओ ॥15॥

8254
महॉ असि सोम ज्येष्ठ उग्राणामिन्द ओजिष्ठः।युध्वा सञ्छश्वज्जिगेथ॥16॥

हे  परमेश्वर  तुम  महान  हो  तुम  ही  हो  अद्भुत  रचना  -   कार ।
अनन्त-शक्ति के तुम स्वामी हो अनुपम अतुलित निर्विकार॥16॥

8255
य उग्रेभ्यश्चिदोजीयाञ्छूरेभ्यश्चिच्छूरतरः। भूरिदाभ्यश्चिन्मंहीयान्॥17॥

तुम  हो  अजर  अमर  अविनाशी  अतुलित - बल  के  स्वामी  हो ।
तुम  तेजवान  तुम  ओजवान और  तुम  ही  अन्तर्यामी  हो ॥17॥

8256
त्वं सोम सूर एषस्तोकस्य साता तनूनाम्।वृणीमहे सख्याय वृणीमहे युज्याय॥18॥

मित्र  शब्द  में  स्नेह  सना  है  परमेश्वर  ही  है  सखा  हमारा ।
वह ही अपने-पन से मिलता है एकमात्र  है  वही  सहारा ॥18॥

8257
अग्न आयूंषि पवस आ सुवोर्जमिषं च नः।आरे बाधस्व दुच्छुनाम्॥19॥

दीर्घ - आयु  हमको  देना  प्रभु  यश - वैभव  का  देना  दान ।
असुरों से  तुम हमें बचाना दया - दृष्टि रखना भगवान ॥19॥

8258
अग्निरृषिः पवमानः पाञ्चजन्यःपुरोहितः।तमीमहे महागयम्॥20॥

सर्व - व्याप्त   है  वह  परमात्मा  शुध्द-बुध्द  है  मुक्त स्वभाव ।
कर्म - ज्ञान पथ पर हम जायें तुम्हीं समझना मेरा भाव ॥20॥

8259
अग्ने पवस्व स्वपा अस्मे वर्चःसुवीर्यम्।दधद्रयिं मयि पोषम्॥21॥

जो  प्रभु - उपासना  करते  हैं  प्रभु  का  अपना - पन  पाते  हैं ।
ऐश्वर्य धरा का उनको मिलता मोक्ष - मार्ग में वे जाते हैं ॥21॥

8260
पवमानो अति स्त्रिधोSभ्यर्षति सुष्टुतिम् । सूरो न विश्वदर्शतः॥22॥

जो  पावन - मन  परमेश्वर  की  उपासना  प्रतिदिन  करता  है ।
प्रभु उसको सुख-सन्तति देता दया-दृष्टि उस पर रखता है॥22॥

8261
स मर्मृजान आयुभिः प्रयस्वान्प्रयसे हितः । इन्दुरत्यो विचक्षणः॥23॥

जब उपासना करता है साधक तब निज-स्वरूप का होता भान ।
कर्म- योग  की  राह सरल  है साधक को मिलता सम्मान ॥23॥

8262
पवमान ऋतं बृहच्छुक्रं ज्योतिरजीजनत् । कृष्णा तमांसि जङ्घनत्॥24॥

अनन्त- शक्ति का वह स्वामी है अज्ञान-तमस को वही मिटाता ।
सत्पथ पर वह ले जाता है आलोक सत्य का वही दिखाता ॥24॥

8263
पवमानस्य जङ्घ्नतो हरेश्चन्द्रा असृक्षत । जीरा अजिरशोचिषः॥25॥

जो प्रभु  का  सुमिरन  करते  हैं  प्रभु उन्हें  बनाता  ज्ञान- वान ।
प्रभु  ब्राह्मी  प्रज्ञा देते उनको मोह त्याग कर  करते  ध्यान॥25॥

8264
पवमानो रथीतमः शुभ्रेभिः शुभ्रशस्तमः। हरिश्चन्द्रो मरुद्गणः॥26॥

प्रभु  आध्यात्मिक  बल  देते  हैं  सबको  देते  उज्ज्वल - मन । 
आत्म-ज्ञान का सुख देते हैं सत्पथ पर है सतत उन्नयन॥26॥

8265
पवमानो व्यश्नवद्रश्मिभिर्वाजसातमः। दधत्स्तोत्रे सुवीर्यम्॥27॥

हम  सब  कर्म - स्वतंत्र  यहॉ  हैं  प्रभु - प्रदत्त  है  यह  अधिकार ।
कर्मानुकूल सब फल पाते हैं  सत्कर्म  सदा  पाता  सत्कार ॥27॥

8266
प्र सुवान इन्दुरक्षा: पवित्रमत्यव्ययम् । पुनान इन्दुरिन्द्रमा॥28॥

यद्यपि  प्रभु  सबके  मन  में  हैं  पर  ज्ञानी- मन  में  वह रहते  हैं ।
आनन्द  की  वर्षा  करते  हैं अज्ञान  तिमिर को वह हरते हैं ॥28॥

8267
एष सोमो अधि त्वचि गवां क्रीळत्यद्रिभिः। इन्द्रं मदाय जोहुवत्॥29॥

कर्म - योग  में  जब  तक  साधक  करता  रहता  है  प्राणायाम ।
यह  मन  की अद्भुत  स्थिति  है  यह  है उपासना - आयाम॥29॥

8268
यस्य ते द्युम्नयत्पयः पवमानाभृतं दिवः। तेन नो मृळ जीवसे॥30॥

प्रभु  के  वैभव  के  अमृत  का  जब  तक साधक  करता  है  पान ।
दीर्घ- आयु  की अभिलाषा  से  प्रतिदिन  पाता नवा- बिहान॥30॥    

  
  
  


Tuesday, 29 April 2014

सूक्त - 67

[ऋषि- भरद्वाज बार्हस्पत्य। देवता-पवमान सोम।छन्द- गायत्री-उष्णिक्-अनुष्टुप्।]

8269
त्वं सोमासि धारयुर्मन्द्र ओजिष्ठो अध्वरे । पवस्व मंहयद्रयिः ॥1॥

हे ओजस्वी आनन्द-प्रदाता तुम ही हो हम सबके आधार ।
धन देना रक्षा करना  प्रभु  नमन  तुम्हें  है  बारम्बार ॥1॥

8270
त्वं सुतो नृमादनो दधन्वान्मत्सरिन्तमः। इन्द्राय सूरिरन्धसा॥2॥

हे  पावन  पूजनीय  परमेश्वर  तुम उद्योगी को  प्रेरित  करते ।
उसको  यश - वैभव  देते  हो उसकी विपदा तुम ही हरते ॥2॥

8271
त्वं सुष्वाणो अद्रिभिरभ्यर्ष कनिक्रदत । द्युमन्तं शुष्ममुत्तमम्॥3॥

परा - वाणी के द्वारा तुम ही सज्जन का  बल-वर्धन  करते  हो ।
साधक को सुख-कर जीवन देते उनकी विपदा तुम हरते हो॥3॥

8272
इन्दुर्हिन्वानो अर्षति तिरो वाराण्यव्यया । हरिर्वाजमचिक्रदत्॥4॥

हे  आलोक - प्रदाता  प्रभु - वर  तुम हम सबको  प्रेरित  करते  हो ।
अज्ञान-तमस को तुम्हीं मिटाते सबका ध्यान तुम्हीं रखते हो॥4॥

8273
इन्दो व्यव्यमर्षसि वि श्रवांसि वि सौभगा । वि वाजान्त्सोम गोमतः॥5॥

कर्मानुसार चयनित  होता  है पावन-प्राञ्जल-पात्र तुम्हारा ।
तुम उसको अनन्त-बल देते पाता सुख सौभाग्य सहारा॥5॥

8274
आ न इन्दो शतग्विनं रयिं गोमन्तमश्विनम् । भरा सोम सहस्त्रिणम्॥6॥

हे आनन्द आलोक प्रदाता तुम अनन्त-बल के स्वामी हो ।
धन-वैभव हमको भी देना तुम तो खुद अन्तर्यामी  हो॥6॥

8275
पवमानास इन्दवस्तिरः पवित्रमाशवः । इन्द्रं यामेभिराशत ॥7॥

कर्म-योग पथ-पर वह चलता जिसको प्रभु पात्र समझते हैं ।
प्रभु के निकट वही होता है परमेश्वर जिसे प्यार करते हैं॥7॥

8276
ककुहः सोम्यो रस इन्दुरिन्द्राय पूर्व्यः । आयुः पवत आयवे॥8॥

कर्म-योग और ज्ञान-योग के साधक-जन  प्रभु   को भाते  हैं ।
परमेश्वर इनके लिए सुलभ है जब भी बुलाओ आ जाते हैं॥8॥

8277
हिन्वन्ति सूरमुस्त्रयः पवमानं मधुश्चुतम् । अभि गिरा समस्वरन्॥9॥

उस पावन प्रभु परमेश्वर की ज्ञानी-जन स्तुति  करते  हैं ।
प्रभु आनन्द-वर्षा करते हैं साधक सब प्रसन्न रहते हैं॥9॥

8278
अविता नो अजाश्वः पूषा यामनियामनि । आ भक्षत्कन्यासु नः॥10॥

परमात्मा  सबका  रक्षक  है  सज्जन  का   रखता है  ध्यान ।
कल्याण सभी का वह करता है ऐसा है वह कृपा-निधान॥10॥

8279
अयं सोमः कपर्दिने घृतं न पवते मधुः । आ भक्षत्कन्यासु नः॥11॥

कर्म - मार्ग  पर  चलने  वाला  प्रभु  से  पाता   है  प्यार  मधुर ।
प्रभु का सान्निध्य वही पाता है वैभव पाता है अतुल-प्रचुर॥11॥

8280
अयं त आघृणे सुतो घृतं न पवते शुचि । आ भक्षत्कन्यासु नः॥12॥

हे  प्रभु  परम-पूज्य  परमेश्वर  जो  पर-हित  में  रत  रहते  हैं ।
प्रभु उन सबको सुख देते हैं  उनकी  विपदा  भी  हरते  हैं॥12॥

8281
वाचो जन्तुः कवीनां पवस्व सोम धारया । देवेषु रत्नाधि असि॥13॥

सबसे  पहले  शब्द- सर्जना  प्रभु- मुख  से प्रस्फुटित हुई है ।
सबने बस अनुकरण किया है अद्भुत उद्भट कवि कई हैं॥13॥

8282
आ कलशेषु धावति श्येनो वर्म वि गाहते। अभि द्रोणा कनिक्रदत्॥14॥

बिजली  निराकार  है  फिर  भी तेजस्वी ओजस्वी वाणी है ।
परमेश्वर भी निराकार है तेजस्वी है ओजस्वी वाणी है॥14॥

8283
परि प्र सोम ते रसोSसर्जि कलशे सुतः । श्येनो न तक्तो अर्षति॥15॥

सर्व- व्याप्त है वह परमेश्वर कण-कण में  वही  समाया  है ।
ब्रह्मानन्द सर्वत्र समाया सब साधक को वह  भाया  है॥15॥ 

8284
पवस्व सोम मन्दयन्निन्द्राय मधुमत्तमः ॥16॥

वह आनन्द की सरस ऊर्मि है सबका कल्याण वही करती है ।
कर्म-मार्ग में यह मिलती है सबको आह्लादित करती है ॥16॥

8285
असृगन्देववीतये वाजयन्तो रथा इव ॥17॥

अध्यात्म राह पर जो जाते हैं दृढ तन- मन वाले  ही  जाते  हैं ।
कर्मानुसार मन-काया मिलती कर्मानुकूल-फल वे पाते हैं॥17॥

8286
ते सुतासो मदिन्तमा: शुक्रा वायुमसृक्षत ॥18॥

कर्म - मार्ग  पर  वह  ही जाता  है  जो उद्योगी  है  पुरुषार्थी  है । 
यह सबके बस की बात नहीं कोई विरला ही आकॉक्षी  है ॥18॥

8287
ग्राव्णा तुन्नो अभिष्टुतःपवित्रं सोम गच्छसि।दधत्स्तोत्रे सुवीर्यम्॥19॥

जिज्ञासा  है  उपलब्धि  हमारी  समाधान  देता  सन्तोष ।
उपासना करने  वाले  भी परमेश्वर से पाते परितोष ॥19॥

8288
एष तुन्नो अभिष्टुतः पवित्रमति गाहते । रक्षोहा वारमव्ययम्॥20॥

परमेश्वर आलोक - प्रदाता अज्ञान- तमस  को  वही  मिटाता ।
दुष्टों को वह दण्डित करता है भक्तों को सन्मार्ग दिखाता॥20॥

8289
यदन्ति यच्च दूरके भयं विन्दति मामिह । पवमान वि तज्जहि॥21॥

हे  पावन  पूजनीय  परमेश्वर  जीवन  की  हर  बाधा तुम  हरना ।
मन के भय को तुम्हीं मिटाना  मन  में  जिजीविषा  भरना॥21॥

8290
पवमानः सो अद्य नः पवित्रेण विचर्षणिः । यः पोता सपुनातु नः॥22॥

सबको  पावन  वही  बनाता  सबका  करता  है  अवलोकन ।
पावन-तम जीवन हो कैसे इसका भी कर लें मूल्यॉकन॥22॥

8291
यत्ते पवित्रमर्चिष्यग्ने विततमन्तरा । ब्रह्म तेन पुनीहि नः॥23॥

हे पावन ज्योति-रूप- परमेश्वर तुम अनन्त - बल के स्वामी हो ।
हम  पावन  बन  जायें  ऐसा  कुछ  कर  दो  अन्तर्यामी हो ॥23॥

8292
यत्ते पवित्रमर्चिवदग्ने तेन पुनीहि नः। ब्रह्मसवैः पुनीहि नः॥24॥

तेरे  प्रकाश  से  सभी  प्रकाशित  सूरज आलोक तुम्हीं से पाता ।
तुम ही तेजस्वी हो प्रभु - वर तुम्हीं पिता हो तुम हो माता ॥24॥

8293
उभाभ्यॉ देव सवितःपवित्रेण सवेन च । मां पुनीहि विश्वतः॥25॥

जो  ज्ञान - कर्म  को  नहीं  जानते अपने  को  दीन  समझते  हैं । 
वे  प्रभु  से  सब  कुछ  कह  दें  प्रभु  समाधान  दे सकते  हैं ॥25॥

8294
त्रिभिष्ट्वं देव सवितर्वर्षिष्ठैः सोम धामभिः। अग्ने दक्षैः पुनीहि नः॥26॥

स्थूल  सूक्ष्म और  कारण  यह  इस  काया  के  तीन  रूप  हैं ।
इन  तीनों  की  महिमा अद्भुत  पावन हों तीनों अनूप हैं ॥26॥

8295
पुनन्तु  मां  देवजना: पुनन्तु  वसवो  धिया ।
विश्वे देवा:पुनीत मा जातवेदःपुनीहि मा॥27॥

विद्वत्- जन का सान्निध्य मिले सत्संगति में यह देश पले ।
योग -  छॉह - तरुवर- तले मेरा यह जीवन सुमन ढले ॥27॥

8296
प्र प्यायस्व प्र स्यन्दस्व सोम विश्वेभिरंशुभिः। देवेभ्य उत्तमं हविः॥28॥

हे प्रभु मन-मति उज्ज्वल देना अविरल दया-दृष्टि तुम रखना ।
सुन्दर सुख-कर सोच मुझे दो ज्ञान-योग- रस देते रहना ॥28॥

8297
उप प्रियं पनिप्नतं युवानमाहुतीवृधम् । अगन्म बिभ्रतो नमः॥29॥

फल - वाली डाली झुक जाती है विनय - भाव को हम अपनायें ।
कर्म - मार्ग पर रहें  समर्पित सस्वर वेद - ऋचा हम गायें ॥29॥

8298
अलाय्यस्य परशुर्ननाश तमा पवस्व देव सोम।आखुं चिदेव देव सोम॥30॥

दिव्य - गुणों का जो स्वामी है वह प्रभु  को  प्यारा  लगता है ।
जो अवगुण से भरा हुआ है वह प्रभु से स्वयं दूर रहता है॥30॥

8299
यः पावमानीरध्येत्यृषिभिः  सम्भृतं  रसम् ।
सर्वं स पूतमश्नाति स्वदितं मातरिश्वना॥31॥

जिस साधक में सद्गुण दिखता परमेश्वर उसे प्यार करता है ।
परमानन्द वही पा सकता प्रभु का वरद-हस्त रहता है ॥31॥

8300
पावमानीर्यो  अध्येतृषिभिः  सम्भृतं  रसम् ।
तस्मै सरस्वती दुहे क्षीरं सर्पिर्मधूदकम्॥32॥

जो  प्रभु- उपासना  करते  हैं  वे अतुलित  धन- बल  पाते  हैं ।
प्रभु से अद्भुत ममता मिलती है ब्रह्म- ज्ञान लेकर जाते हैं॥32॥      
 


 

 


   

Monday, 28 April 2014

सूक्त - 68

[ऋषि- वत्सप्रिभालन्दन । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती- त्रिषुप् ।]

8301
प्र  देवमच्छा मधुमन्त  इन्दवोSसिष्यदन्त गाव आ न धेनवः ।
बर्हिषदो वचनावन्त ऊधमिः परिस्त्रुतमुस्त्रिया निर्णिजं धिरे॥1॥

विनय- शील  होते  विद्वत् - जन  विनम्रता  से  करते  ध्यान ।
फल  से  लदी  डालियॉ  झुकती विनय-शीलता है पहचान॥1॥

8302
स  रोरुवदभि  पूर्वा अचिक्रददुपारुहः  श्रथयन्त्स्वादते  हरिः ।
तिरः पवित्रं  परियन्नुरु ज्रयो नि शर्याणि दधते  देव आ  वरम्॥2॥

योगी  का  दायित्व  यही  है  सबके  मन  का  तमस  मिटाना ।
विज्ञानी-ज्ञानी सँग आना जगती को नव -ज्योति दिखाना॥2॥

8303
वि यो ममे यम्या संयती मदः साकंवृधा पयसा पिन्वदक्षिता ।
मही अपारे रजसी विवेविददभिव्रजन्नक्षितं  पाज आ  ददे॥3॥

कर्म - योग आनन्द - मार्ग  है  चिन्ता  को  करता  है  ध्वस्त ।
यह ही यश - वैभव देता है  प्रगति - पन्थ  करता  प्रशस्त ॥3॥

8304
स मातरा विचरन्वाजयन्नपः प्र मेधिरः स्वधया पिन्वते पदम् ।
अंशुर्यवेन पिपिशे यतो नृभिः सं जामिभिर्नसते रक्षते शिरः॥4॥

जो  जन  अलसाए  पडे  हुए  हैं  कर्म - योग  ही  उन्हें  जगाता । 
सत्संगति सबको सुधारती हम  ही  हैं अपने भाग्य-विधाता॥4॥

8305
सं  दक्षेण  मनसा जायते कविरृतस्य  गर्भो  निहितो यमा परः ।
यूना ह सन्ता प्रथमं वि जज्ञतुर्गुहा हितं जनिम नेममुद्यतम्॥5॥

सर्व - व्याप्त  है  वह  परमात्मा  सबके  अन्तः मन  में  रहता ।
कर्म - मार्ग  है  सरल  इसी  से  हर राही इस पर ही चलता ॥5॥

8306
मन्द्रस्य रूपं विविदुर्मनीषिणः श्येनो यदन्धो अभरत्परावतः ।
तं मर्जयन्त सुवृधं नदीष्वॉ उशन्तमंशुं परियन्तमृग्मियम्॥6॥

ज्ञान - मार्ग  हो  कर्म - मार्ग  हो  परमेश्वर  मिल  ही  जाते  हैं ।
वह  प्रभु आनन्द  का सागर  है जिसने  जाना  वे  गाते  हैं ॥6॥

8307
त्वां मृजन्ति दश योषणःसुतं सोम ऋषिभिर्मतिभिर्धीतिभिर्हितम्।
अव्यो  वारेभिरुत  देवहूतिभिर्नृभिर्यतो  वाजमा  दर्षि  सातये ॥7॥

कर्म - मार्ग से ज्ञान- मार्ग से साधक को मिलता अतुलित - बल ।
आओ अब  इसी मार्ग को जानें सत् - कर्मों  का अद्भुत - फल ॥7॥

8308
परिप्रयन्तं  वय्यं  सुषंसदं  सोमं  मनीषा  अभ्यनूषत  स्तुभः ।
यो धारया मधुमॉ ऊर्मिणा दिव इयर्ति वाचं रयिशाळमर्त्यः॥8॥

परमेश्वर  परा - वाक्  से करते पावन  प्राञ्जल  प्रेरक  प्रवचन ।
आनन्द - लहर है वाणी उनकी सदुपदेश सम है नभ-गर्जन॥8॥

8309
अयं  दिव  इयर्ति  विश्वमा  रजः सोमः पुनानः कलशेषु सीदति ।
अद्भिर्गोभिर्मृज्यते अद्रिभिःसुतःपुनान इन्दुर्वरिवो विदत्प्रियम्॥9॥

चाहे  ज्ञान - मार्ग  हो  या  फिर  कर्म - योग  की  सुगढ - गली ।
पावन  परम्परा  पलती  है  यह  आनन्द  की  डगर  भली  ॥9॥

8310
एवा  नः  सोम  परिषिच्यमानो  वयो  दधच्चित्रतमं  पवस्व ।
अद्वेषे  द्यावापृथिवी  हुवेम  देवा धत्त रयिमस्मे सुवीरम्  ॥10॥

जो  साधक  सत्संगति  करते उनको  भी  मिलता  अनुदान ।
सुखमय जीवन वह जीता है यश - वैभव  देते  भगवान ॥10॥


Sunday, 27 April 2014

सूक्त - 69

[ऋषि- हिरण्यस्तूप आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती-त्रिष्टुप् ।]

8311
इषुर्न धन्वन् प्रति धीयते मतिर्वत्सो न मातुरुप सर्ज्यूधनि ।
उरुधारेव  दुहे अग्र आयत्यस्य  व्रतेष्वपि  सोम  इष्यते ॥1॥

लक्ष्य - भेद  करने  वाला  ज्यों  पूरे  मन  से  करता ध्यान ।
वैसे  ही  प्रभु  के  साधक  को  करना  होता  है अनुष्ठान ॥1॥

8312
उपो मतिः पृच्यते सिच्यते मधु मन्द्राजनी चोदते अन्तरासनि।
पवमानः संतनिः प्रघ्नतामिव मधुमान्द्रप्सःपरि वारमर्षति॥2॥

शूर - वीर  के  शर  समान  ही  परमेश्वर  का  रौद्र - रूप  है ।
सत्संगति अति शान्त-मधुर है भक्त हेतु सुख-कर अनूप है॥2॥

8313
अव्ये वधूयुः  पवते  परि  त्वचि  श्रथ्नीते  नप्तीरदितेरृतं   यते ।
हरिरक्रान्यजतःसंयतो मदो नृम्णा शिशानो महिषो न शोभते॥3॥

जो  निष्काम - कर्म  करते  हैं  सुन्दर सुख सन्तति पाते हैं ।
प्रभु उनकी  रक्षा  करते  हैं  सन्मार्ग उन्हें  दिखलाते  हैं ॥3॥

8314
उक्षा मिमाति प्रति यन्ति धेनवो देवस्य देवी-रुप यन्ति निष्कृतम् ।
अत्यक्रमीदर्जुनं वारमव्ययमत्कं न  निक्तं  परि  सोमो अव्यत ॥4॥

जो  मन  से और  काया  से  भी  सबल स्वस्थ बन जाता है ।
प्रभु उसको सत्पात्र बनाते प्रभु सान्निध्य वही पाता  है ॥4॥

8315
अमृक्तेन  रुशता  वाससा  हरिरमर्त्यो निर्णिजानः परि व्यत ।
दिवस्पृष्ठं बर्हणा निर्णिजे कृतोपस्तरणं चम्वोर्नभस्मयम्॥5॥

प्रकृति  सम्पदा  पुष्ट  बनाती  मानव  अन्न - धान  पाता  है ।
औषधियॉ  भी अजब  निराली  मनस्ताप  मिट जाता है ॥5॥

8316
सूर्यस्येव रश्मयो द्रावयित्नवो मत्सरासः प्रसुपः साकमीरते ।
तन्तुं ततं परि सर्गास आशवो नेन्द्रादृते पवते धाम किं चन॥6॥

परमेश्वर  अद्भुत  सर्जक  है  अत्यन्त  चतुर  है  रचना - कार ।
सूर्य-किरण सम गति है उसकी उसकी छुवन बसन्त-बहार॥6॥

8317
सिन्धोरिव प्रवणे निम्र आशवो वृषच्युता मदासो गातुमाशत ।
शं नो निवेशे द्विपदे चतुष्पदेSस्मे वाजा:सोम तिष्ठन्तु कृष्टयः॥7॥

सबका कल्याण वही करता है कृपा-सिन्धु करुणा का सागर ।
आओ उस  प्रभु  के  गुण  गायें  भर  जाए मेरा भी गागर ॥7॥

8318
आ नः पवस्व वसुमध्दिरण्यवदश्वावद् गोमद्यवमत्सुवीर्यम् ।
यूयं हि सोम पितरो मम स्थन दिवो मूर्धानःप्रस्थिता वयस्कृतः॥8॥

हे  परम - मित्र  हे  परमेश्वर  अन्न - धान  का  देना  दान ।
तुम  ही हो हम सबके पालक यश-वैभव देना भगवान ॥8॥

8319
एते  सोमा: पवमानास  इन्द्रं  रथाइव  प्र  ययुः  सातिमच्छ ।
सुता: पवित्रमति यन्त्यव्यं हित्वी वव्रिं हरितो वृष्टिमच्छ॥9॥

जीवन- रण  में  हम  विजयी हों कर्म - योग का मार्ग बताओ ।
भूल से भी कोई भूल न होवे सत्पथ पर चलना सिखलाओ॥9॥

8320
इन्दविन्द्राय  बृहते  पवस्व  सुमृळीको  अनवद्यो  रिशादा: ।
भरा चन्द्राणि गृणते वसूनि देवैर्द्यावापृथिवी प्रावतं नः॥10॥

यश - वैभव के तुम स्वामी हो हमको भी यश- वैभव  देना ।
कर्म-मार्ग पर सदा चलें हम अपने-पन से अपना लेना॥10॥   

Saturday, 26 April 2014

सूक्त - 70

[ऋषि- रेणु वैश्वामित्र । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती- त्रिष्टोप् ।]

8321
त्रिरस्मै  सप्त  धेनवो  दुदुह्रे  सत्यामाशिरं  पूर्व्ये  व्योमनि ।
चत्वार्यन्या भुवनानि निर्णिजे चारूणि चक्रे यदृतैरवर्धत्॥1॥

पञ्च - तन्मात्रा पञ्च- भूत से प्रकृति- पावनी आकृति पाई ।
वसुन्धरा हो गई सुगंधित सुरभित बयार बगिया बगराई॥1॥

8322
स भिक्षमाणो अमृतस्य चारुण उभे द्यावा काव्येना वि शश्रथे ।
तेजिष्ठा अपो मंहना परि व्यत यदी देवस्य श्रवसा सदा विदुः॥2॥

प्रकृति  पावनी  अमृत-सम  है  वसुन्धरा  हो  गई  सुसज्जित ।
जल और अन्न फूल और फल से पृथ्वी-माता बनी प्रतिष्ठित॥2॥

8323
ते  अस्य  सन्तु  केतवोSमृत्यवोSदाभ्यासो  जनुषी  उभे  अनु ।
येभिर्नृम्णा च देव्या च पुनत आदिद्राजानं मनना अगृभ्णत॥3॥

कर्म - प्रधान  विश्व  की  रचना  कर्मानुसार  मिलता  है  फल ।
सत्कर्म  करोगे  सुख  पाओगे आज  नहीं तो निश्चय कल ॥3॥ 

8324
स मृज्यमानो दशभिः सुकर्मभिः प्र मध्यमासु मातृसु प्रमे सचा ।
व्रतानि पानो अमृतस्य चारुण उभे नृचक्षा अनु पश्यते विशौ॥4॥

कण-कण  में  बसता  है  वह  प्रभु  कर्मों  का  करता अवलोकन ।
चलती  नहीं  यहॉ चतुराई  नियमानुसार  होता  मूल्याञ्कन॥4॥

8325
स मर्मृजान इन्द्रियाय धायस ओभे अन्ता रोदसी हर्षते हितः ।
वृषा शुष्मेण  बाधते  वि दुर्मतीरादेदिशानः शर्यहेव शुरुधः ॥5॥

पूर्ण- ब्रह्म  है  वह  परमात्मा  सच्चिदानन्द  बस यही नाम है ।
दुष्ट- दलन  वह  ही  करता  है  सज्जन- सेवा यही काम है ॥5॥

8326
स  मातरा  न  ददृशान उस्त्रियो नानददेति मरुताविव स्वनः ।
जानन्नृतं  प्रथमं यत्स्वर्णरं प्रशस्तये कमवृणीत सुक्रतः॥6॥

ब्रह्मामृत  की  वर्षा  करता  मनुज  सभी  कर  सकते  पान ।
बस  कर्मों  का हिसाब दे दे सत्कर्मों का यह अभियान ॥6॥

8327
रुवति भीमो वृषभस्तविष्यया श्रृङ्गे शिशानो हरिणी विचक्षणः।
आ योनिं सोमःसुकृतं नि षीदति गव्ययी त्वग्भवति निर्णिगव्ययी॥7॥

प्राणी- बल और प्रकृति- पावनी दोनों का ही वह स्वामी है ।
दोनों में रँग वही भरता है सर्जक भी वह अन्तर्यामी है ॥7॥

8328
शुचिः पुनानस्तन्वमरेपसमव्ये  हरिर्न्यधाविष्ट  सानवि ।
जुष्टो मित्राय वरुणाय वायवे त्रिधातु मधु क्रियते सुकर्मभिः॥8॥

तन - मन  पुनर्नवा   बन जाता जब हम करते हैं अनुष्ठान ।
साधक और निकट आता है और सरल हो जाता ध्यान॥8॥

8329
पवस्व सोम देववीतये वृषेन्द्रस्य हार्दि सोमधानमा विश ।
पुरा नो बाधाद् दुरिताति पारय क्षेत्रविध्दि दिश आहा विपृच्छते॥9॥

जो पावन मन से पूजा करते सत्पथ  पर  ही  जो चलते हैं ।
हट जाता है राह का कण्टक प्रभु उनकी विपदा हरते हैं ॥9॥

8330
हितो न सप्तरभि वाजमर्षेन्द्रस्येन्दो जठरमा पवस्व ।
नावा न सिन्धुमति पर्षि विद्वाञ्छूरो न युध्यन्नव नो निदः स्पः॥10॥

जैसे नाविक पार लगाते  उस  पार  नदी के पहुँचाते हैं ।
वैसे ही प्रभु सद्गति देते भव-सागर पार लागाते हैं ॥10॥  

Friday, 25 April 2014

सूक्त - 71

[ऋषि- ऋषभ वैश्वामित्र । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती - त्रिष्टुप् ।]

8331
आ दक्षिणा सृज्यते शुष्म्या3सदं वेति द्रुहो रक्षसःपाति जागृविः ।
हरिरोपशं कृणुते नभस्पय  उपस्तिरे  चम्वो  3र्ब्रह्म  निर्णिजे ॥1॥

सर्व - व्याप्त  है  वह  परमात्मा  वरद- हस्त  हम  पर  रखता  है ।
उपासना दक्षिणा - सदृश है नर कृतज्ञता - ज्ञापन करता  है ॥1॥

8332
प्र  कृष्टिहेव  शूष एति रोरुवदसुर्यं1 वर्णं नि रिणीते अस्य तम् ।
जहाति वव्रिं पितुरेति निष्कृतमुपप्रुतं कृणुते निर्णिजं तना॥2॥

परमात्मा  योध्दा  समान  ही  सबका  पालन-पोषण  करता ।
दुष्टों  से  रक्षा  करता  है  हम  सबकी  विपदा  वह  हरता ॥2॥

8333
अद्रिभिः सुतः पवते  गभस्त्योर्वृषायते  नभसा  वेपते  मती ।
स  मोदते  नसते  साधते गिरा नेनिक्ते  यजते  परीमणि ॥3॥

प्रभु  ही  ज्ञान - ज्योति  देते  हैं  वह ही हैं सत् चित् आनन्द ।
उद्योगी - जन  उनको  पाते  हैं  वे  हैं  पूरण - परमानन्द ॥3॥

8334
परि द्युक्षं सहसः पर्वतावृधं मध्वः सिञ्चन्ति हर्म्यस्य सक्षणिम् ।
आ यस्मिनगावःसुहुताद ऊधनि मूर्धञ्छ्रीणन्त्यग्रियं वरीमभिः॥4॥

क्षमा - शील  वह  परमात्मा  ही  देता  है  अविरल - आनन्द ।
खट- रागों  से  वही  बचाता  भक्तों  को  देता ब्रह्मा - नन्द ॥4॥

8335
समी  रथं  न  भुरिजोरहेषत  दश  स्वसारो  अदितेरुपस्थ आ ।
जिगादुप ज्रयति गोरपीच्यं पदं यदस्य मतुथा अजीजनन्॥5॥

दश - रथ  को  वे  प्रेरित  करते  पावन - पथ  पर  पहुँचाते  हैं ।
मनो - कामना  पूरी  करते  मोक्ष -  द्वार  वे  दिखलाते  हैं ॥5॥

8336
श्येनो न योनिं सदनं धिया कृतं हिरण्ययमासदं  देव  एषति ।
ए  रिणन्ति बर्हिषि प्रियं गिराश्वो न देवॉ अप्येति यज्ञियः॥6॥

आत्म- ज्ञान   में रुचि  हो  जिनकी  परमेश्वर का ध्यान करें ।
उषा - सदृश  सब ओर  वही  है  चलो उसी  की  डगर धरें ॥6॥

8337
परा  व्यक्तो अरुषो दिवः कविर्वृषा त्रिपृष्ठो अनविष्ट गा अभि ।
सहस्त्रणीतिर्यतिः परायती रेभो न पूर्वीरुषसो वि राजति॥7॥

परमेश्वर  आलोक -  प्रदाता  आनन्द  की  वर्षा  करता  है ।
अनन्त -शक्ति का वह स्वामी आलोक हमें देता रहता है॥7॥

8338
त्वेषं रूपं कृणुते वर्णो अस्य स यत्राशयत्समृता  सेधति  स्त्रिधः।
अप्सा याति स्वधया दैव्यं जनं सं सुष्टुती नसते सं गोअग्रया॥8॥

वह वन्दनीय है वह वरेण्य है रूप - ज्योति सबको देता  है ।
वह परिपूर्ण पूज्य परमेश्वर अपनेपन से अपना लेता है॥8॥

8339
उक्षेव  यूथा  परियन्नरावीदधि  त्विषीरधित  सूर्यस्य ।
दिव्यःसुपर्णोSव चक्षत क्षां सोमःपरि क्रतुना पश्यते जा:॥9॥

दिव्य-गुणों का वह मालिक है करता है सबका अवलोकन ।
उनकी दृष्टि सभी पर रहती कर्मानुरूप होता मूल्याञ्कन॥9॥    





Thursday, 24 April 2014

सूक्त - 72

[ऋषि- हरिमन्त आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती ।]

8340
हरिं  मृजन्त्यरुषो न युज्यते सं धेनुभिः कलशे सोमो अज्यते ।
उद्वाचमीरयति हिन्वते मती पुरुष्टुतस्य कति चित्परिप्रियः॥1॥

परमेश्वर  पावन  मन  देते  हैं  साधक  को  प्रेरित  करते  हैं ।
सज्जन के ध्यान में वे आते हैं प्रभु उसके मन में रहते हैं ॥1॥

8341
साकं  वदन्ति  बहवो  मनीषिण  इन्द्रस्य  सोमं जठरे यदादुहुः ।
यदी मृजन्ति सुभगस्तयो नरःसनीळाभिर्दशभिःकाम्यं मधु॥2॥

जब योगी प्रभु - दर्शन पाता सामाजिक -तन्द्रा होती ध्वस्त ।
जागरूक  हो  जाता  मानव  हर  कोई  बन  जाता  भक्त  ॥2॥

8342
अरममाणो  अत्येति  गा  अभि  सूर्यस्य  प्रियं  दुहितुस्तिरो  रवम् ।
अन्वस्मै जोषमभरद्विनंगृसःसं द्वयीभिःस्वसृभिःक्षेति जामिभिः॥3॥

ऐसी  जागरूक आत्मा  का  हर  समाज  करता अभिनन्दन ।
सबको सीढी मिल जाती है मिट जाता है मन का क्रन्दन॥3॥

8343
नृधूतो  अद्रिषुतो  बर्हिषि  प्रियः  पतिर्गवां   प्रदिव इन्दुरृत्वियः ।
पुरन्धिवान्मनुषो यज्ञसाधनः शुचिर्धिया पवते सोम इन्द्र ते॥4॥

जब  अदृश्य  ईश्वर  से  कोई  अपना  परिचित  हो  जाता  है ।
लगता है दिल्ली दूर नहीं है मन अद्भुत आन्न्द पाता  है ॥4॥

8344
नृबाहुभ्यां चोदितो धारया सुतोSनुष्वधं  पवते  सोम  इन्द्र  ते ।
आप्रा:क्रतून्त्समजैरध्वरे मतीर्वेर्न द्रुषच्चम्वो3रासदध्दरिः॥5॥

धीर - वीर  निर्भय  मानव  ही  दुष्टों -  पर  पडता  है  भारी ।
धर्म - युध्द तुम लडो परस्पर राम-राज्य की हो तैयारी ॥5॥

8345
अंशुं दुहन्ति स्तनयन्तमक्षितं कविं कवयोSपसो मनीषिणः ।
समी गावो मतयो यन्ति संयत ऋतस्य योना सदने पुनर्भुवः॥6॥

बुध्दि - शस्त्र  से  रण  जीतो  तुम  बारम्बार  करो  अभ्यास ।
परमात्मा को जानो समझो वह यहीं है तेरे आस - पास ॥6॥

8346
नाभा पृथिव्या धरुणो महो दिवो3Sपामूर्मौ सिन्धुष्वन्तरुक्षितः ।
इन्द्रस्य वज्रो वृषभो विभूवसुः सोमो हृदे पवते चारु मत्सरः॥7॥

प्रभु  पर  जिनकी अटल - भक्ति  है   वही मनुज आनन्द पाते हैं ।
अहंकार है सुख का दुश्मन इसको तज-कर हम  मुस्काते  हैं॥7॥

8347
स तू पवस्व परि पार्थिवं रजः स्तोत्रे शिक्षन्नाधून्वते च सुक्रतो ।
मा नो निर्भाग्वसुनःसादनस्पृशो रयिं पिशङगं बहुलं वसीमहि॥8॥

हे  प्रभु  पावन  मुझे  बना  दो  अन्न - धान  का  दे  दो  दान ।
वसुन्धरा का सब सुख देना साहस सुमति और सम्मान ॥8॥

8348
आ  तू  न  इन्दो  शतदात्वश्रृयं  सहत्रदातु  पशुमध्दिरण्यवत् ।
उप मास्व बृहती रेवतीरिषोSधि स्तोत्रस्य पवमान नो गहि॥9॥

कर्म- योग का पथिक निरन्तर बिना कामना करता ध्यान ।
वह है सच्चा - साधक उसको निश्चित अपनाते भगवान ॥9॥   

Wednesday, 23 April 2014

सूक्त - 73

[ऋषि- पवित्र आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती ।]

8349
स्त्रक्वे द्रप्सस्य धमतः समस्वरन्नृतस्य योना  समरन्त  नाभयः ।
त्रीन्त्स मूर्घ्नो असुरश्चक्र आरभे सत्यस्य नावः सुकृतमपीपरन्॥1॥

सच्चाई  की  नाव  सुशोभित  कर्म  -  योग  पथ   में   मिलती   है ।
खट् - रागों  से  वही  बचाती  कर्तव्य - कर्म  को  वह चुनती है  ॥1॥

8350
सम्यक सम्यञ्चो महिषा अहेषत सिन्धोरूर्मावधि वेना अवीविपन्।
मधोर्धाराभिर्जनयन्तो अर्कमित्प्रियामिन्द्रस्य तन्वमवीवृधन् ॥2॥

नदी  -  बीच   सुमिरन  करते  हैं  चाहे   जितनी   हो  तेज  -  धार ।
अद्भुत - आस  लिए  अनुरागी  करते  हैं  भव - सागर  को पार ॥2॥

8351
पवित्रवन्तः परि  वाचमासते  पितैषां  प्रत्नो अभि  रक्षति  व्रतम्  ।
महः  समुद्रं  वरुणस्तिरो  दधे  धीरा  इच्छेकुर्धरुणेष्वारभम्  ॥3॥

वेद  -  ऋचायें  आश्रय  देतीं  प्रभु  साधक  की  रक्षा  करते  हैं  । 
कोई  विरला  ही  पार  उतरता  महा - पुरुष  ऐसा  कहते  हैं  ॥3॥

8352
सहस्त्रधारेSव  ते  समस्वरन्दिवो  नाके  मधुजिह्वा  असश्चतः ।
अस्य स्पशो न नि मिषन्ति भूर्णयःपदेपदे पाशिनःसन्ति सेतवः॥4॥

प्रभु - प्रसाद आनन्द- लहर यह इधर-उधर बहती  रहती  है । 
जो परमात्म- परायण होते उस  तक  ऊर्मि  पहुँचती  है ॥4॥

8353
पितुर्मातुरध्या ये समस्वरन्नृचा शोचन्तः संदहन्तो अव्रतान् ।
इन्द्रद्विष्टामप धमन्ति मायया त्वचमसिक्नीं भूमनो दिवस्परि॥5॥

वेद - ऋचायें  राह  दिखातीं  यात्रा  पर  ले - कर  जातीं  हैं । 
जो शिक्षित- दीक्षित हैं उनको स्वयं ध्येय तक पहुँचाती हैं ॥5॥

8354
प्रत्नान्मानादध्या  ये समस्वरञ्छ्लोकयन्त्रासो  रभसस्य  मन्तवः।
अपानक्षासो बधिरा अहासत ऋतस्य पन्थां न तरन्ति दुष्कृतः॥6॥

जो  सत्पथ  पर  ही  चलते  हैं  वे  ही  करते  भव - सागर  पार ।
प्रभु - पूजा   करने   वालों  की  होती   नहीं  कभी  भी  हार  ॥6॥

8355
सहत्रधारे वितते पवित्र आ वाचं  पुनन्ति  कवयो  मनीषिणः ।
रुद्रास एषामिषिरासो अद्रुहःस्पशःस्वञ्चःसुदृशो नृचक्षसः॥7॥

अति  पावन  है  वह  परमेश्वर  जो  करते  हैं  उनका  ध्यान ।
वे ही ज्ञानी  बन  सकते  हैं  बन  सकते  हैं मनुज महान ॥7॥ 

8356
ऋतस्य गोपा न दभाय सुक्रतुस्त्री ष पवित्रा  हृद्य1न्तरा  दधे ।
विद्वान्त्स विश्वा भुवनानि पश्यत्यवाजुष्टान्विध्यति कर्ते अव्रतान्॥8॥ 

परमेश्वर  पर  करो  भरोसा  जो  करते  हैं  उन  पर  विश्वास ।
वे  निर्भय  हो- कर जीते  हैं  प्रभु स्वयं यहीं हैं आस- पास ॥8॥

8357
ऋतस्य तन्तुर्विततः पवित्र आ जिह्वाया अग्रे वरुणस्य मायया ।
धीराश्चित्तत्समिनक्षन्त  आशत्राता  कर्तमव   पदात्यप्रभुः  ॥9॥

कर्म - मार्ग  का  पथिक  सदा  ही अपनी  मञ्जिल को पाता है ।
प्रभु  बैठे  हैं अन्तर्मन  में  चहुँ ओर  सफल  वह हो जाता है ॥9॥    

Tuesday, 22 April 2014

सूक्त - 74

[ऋषि- कक्षीवान् दीर्घतमस । देवता- पवमान सोम । छन्द-जगती-त्रिष्टुप् ।]

8358
शिशुर्न  जातोSव  चक्रदद्वने  स्व1र्यद्वाज्यरुषः  सिषासति ।
दिवो रेतसा सचते पयोवृधा तमीमहे सुमती शर्म सप्रथः॥1॥

जब  साधक  शिशु  के  समान  परमेश्वर  के आगे  रोता  है ।
तब परमात्मा तुरत पहुँचता मानो मिला कोई न्यौता है॥1॥

8359
दिवो यः स्कम्भो धरुणः स्वातत आपूर्णो अंशुः पर्येति विश्वतः।
सेमे मही रोदसी यक्षदावृता समीचीने दाधार समिषःकविः॥2॥

सर्वत्र  व्याप्त  है  वह  परमेश्वर  वह  ही  तो  सबका आश्रय  है ।
वह सबको यश-वैभव देता वह सज्जन को सहज प्राप्य है॥2॥

8360
महि  प्सरः  सुकृतं  सोम्यं  मधूर्वी  गव्यूतिरदितेरृतं  यते ।
ईशे यो वृष्टेरित उस्त्रियो वृषाणां नेता य इतऊतिरृग्मियः॥3॥

वह  परमेश्वर  ही  प्रणम्य  है  वह  ही  है  आलोक - प्रदाता ।
वह  ही  हमें  सुरक्षा  देता  वह  कर्मानुरूप  फल - दाता ॥3॥

8361
आत्मन्वन्नभो दुह्यते घृतं पय ऋतस्य नाभिरमृतं वि जायते ।
समीचीना:सुदानवःप्रीणन्ति तं नरो हितमव मेहन्ति पेरवः॥4॥

जो  प्रभु  उपासना  करते  हैं  जो  नीति -  नेम  से  चलते  हैं ।
वे विविध-विधा से सुख पाते परमेश्वर प्रेम बहुत करते  हैं॥4॥

8362
अरावीदंशुः सचमान ऊर्मिणा देवाव्यं1 मनुषे पिन्वति त्वचम् ।
दधाति गर्भमदिते रुपस्थ आ येन तोकं च तनयं च धामहे॥5॥

परमेश्वर  आनन्द -  लहर  है   हम  सबको   देता   हैं  उपदेश । 
देव - भाव  मन  में  भरता  है  देता  है  सुख - मय परिवेश ॥5॥

8363
सहस्त्रधारेSव  ता  असश्चतस्तृतीये  सन्तु  रजसि  प्रजावतीः ।
चतस्त्रो नाभो निहिता अवो दिवो हविर्भरन्त्यमृतं घृतश्चुतः॥6॥

वह अनन्त वैभव का स्वामी  सबको  सुख - सम्पन्न  बनाता ।
साधक  तेजस्वी  बनता  है  कर्म-परायण  खुद  बन जाता ॥6॥

8364
श्वेतं रूपं कृणुते यत्सिषासति सोमो मीढ्वॉ असुरो वेद भूमनः ।
धिया शमी सचते सेमभि प्रवद्दिवस्कवन्धमव दर्षदुद्रिणम्॥7॥

दुष्ट - दलन  वह  ही  करता  है  सज्जन  का करता प्रति-पाल ।
दुष्ट  सज़ा  खुद  पा लेता है किञ्चित - कर्मों का है क़माल ॥7॥

8365
अध  श्वेतं  कलशं  गोभिरक्तं कार्ष्मन्ना वाज्यक्रमीत्ससवान् ।
आ हिन्विरे मनसा देवयन्तः कक्षीवते शतहिमाय गोनाम्॥8॥

साधक  सभी  सत् - गुणी  होते  पाते  हैं  प्रभु  का सान्निध्य ।
प्रभु  ही  प्रेरित  करते  रहते  देते  रहते  अपना  सामीप्य ॥8॥

8366
अद्भिः सोम पपृचानस्य ते रसोSव्यो वारं वि पवमान धावति ।
स मृज्यमानः कविभिर्मदिन्तम स्वदस्वेन्द्राय पवमान पीतये॥9॥

कर्म - योग  की  महिमा  अद्भुत  साधक  हो  जाता  वरणीय ।
प्रभु  ही  तृप्ति  उन्हें  देते  हैं  नटवर  नागर  हैं  नमनीय  ॥9॥

Monday, 21 April 2014

सूक्त - 75

[ऋषि- कवि भार्गव । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती ।]

8367
अभि प्रियाणि पवते चनोहितो नामानि यह्वो अधि येषु वर्धते ।
आ सूर्यस्य बृहतो बृहन्नधि रथं विष्वञ्चमरुहद्विचक्षणः ॥1॥

परमेश्वर  की  रचना  सुन्दर  वसुधा  तरु - वर  ताल  गगन ।
औषधियॉ अति आकर्षक  हैं  चलो उधर  ही  करें  गमन ॥1॥

8368
ऋतस्य जिह्वा पवते मधु प्रियं वक्ता पतिर्धियो अस्या अदाभ्यः।
दधाति पुत्रः पित्रोरपीच्यं1 नाम  तृतीयमधि  रोचने  दिवः ॥2॥

कर्म  स्वतंत्र  यहॉ  हम  सब  हैं  कर्मानुकूल  फल  हम पाते  हैं ।
पिता  वही  है  इसीलिए  हम  उसे  क़रीब  से  अपनाते  हैं  ॥2॥

8369
अव द्युतानः कलशॉ अचिक्रदन्नृभिर्येमानःकोश आ हिरण्यये ।
अभीमृतस्य दोहना अनूषताधि त्रिपृष्ठ उषसो  वि  राजति ॥3॥

प्रभु - उपासना  जो  करते  हैं  प्रभु  से  वे  तेज -ओज  पाते  हैं ।
परमेश्वर  अन्तः  मन  में  रहते  वही  प्रेम  से  अपनाते  हैं ॥3॥

8370
अद्रिभिः सुतो मतिभिश्चनोहितः प्ररोचयन्रोदसी मातरा शुचिः ।
रोमाण्यव्या समया वि धावति मधोर्धारा पिन्वमाना दिवेदिवे॥4॥

पावन  पूज्य  प्रणम्य  वही  है  सदा  प्यार  हमको  करता  है ।
हम  सबकी  रक्षा  करता  है  विपदा  भी  वह  ही  हरता है ॥4॥

8371
परि सोम प्र धन्वा स्वस्तये नृभिः पुनानो अभि वासयाशिरम् ।
ये ते मदा आहनसो विहायसस्तेभिरिन्द्रं चोदय दातवे मघम्॥5॥

जो  परमेश्वर  पर  ही  निर्भर  हैं  प्रभु  ही  देते  हैं  उन्हें  सहारा ।
वही  सुरक्षा  देता  सबको  वह  है  नटवर -  नागर -  न्यारा ॥5॥  

Sunday, 20 April 2014

सूक्त - 76

[ऋषि- कवि भार्गव । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती ।]

8372
धर्ता  दिवः पवते  कृत्व्यो  रसो  दक्षो  देवानामनुमाद्यो  नृभिः ।
हरिःसृजानो अत्यो न सत्वभिर्वृथा पाजांसि कृणुते नदीष्वा॥1॥

हम  जिसकी उपासना  करते  हैं  वह  प्रभु  है आनन्द - स्वरूप ।
वह  सज्जन  को  सुख  देता  है  सर्व - व्याप्त  है  वह  अनूप ॥1॥

8373
शूरो  न  धत्त आयुधा  गभस्त्योः स्व्रः सिषासन्रथिरो  गविष्टिषु ।
इन्द्रस्य शुष्ममीरयन्नपस्युभिरिन्दुर्हिन्वानो अज्यते मनीषिभिः॥2॥

परमेश्वर  से  प्रेरित  हो  कर  सत् - जन  करते  उसका  ध्यान ।
सुख - स्वरूप  है  वह  परमात्मा कर्मों का है यह अभियान ॥2॥

8374
इन्द्रस्य सोम पवमान ऊर्मिणा  तविष्यमाणो  जठरेष्वा  विश ।
प्र णः पिन्व विद्युदभ्रेव रोदसी धिया न वाजॉ उप मासि शश्वतः॥3॥

परमेश्वर  हमसे  कहते  रहते   हैं  कर्म  करो  और  पाओ  फल ।
सत्कर्मों  का  फल  मीठा  है आज  नहीं  तो  निश्चय  कल ॥3॥ 

8375
विश्वस्य  राजा  पवते स्वर्दृश ऋतस्य  धीतिमृषिषाळवीवशत् ।
यः  सूर्यस्यासिरेण  मृज्यते  पिता  मतीनामसमष्टकाव्यः ॥4॥

अखिल विश्व का वह स्वामी  है  सच्चा  मनुज उसे  है  प्यारा ।
सज्जन  को  वह  सुख  देता  है  एक-मात्र  है  वही सहारा ॥4॥

8376
वृषेव  यूथा  परि  कोशमर्षस्यपामुपस्थे  वृषभः  कनिक्रदत् ।
स इन्द्राय पवसे मत्सरिन्तमो यथा जेषाम समिथे त्वोतयः॥5॥

चरैवेति  के  पथ  पर  हम  हैं  तुम  हमको  सन्मार्ग बताना ।
जीवन- रण में हार न जायें हमको विजयी तुम्हीं बनाना॥5॥


सूक्त - 77

[ऋषि- कवि भार्गव । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती ।]

8377
एष  प्र  कोशे  मधुमॉ अचिक्रददिन्द्रस्य  वज्रो  वपुषो  वपुष्टरः ।
अभीमृतस्य सुदुघा घृतश्चुतो वाश्रा अर्षन्ति पयसेव धेनवः॥1॥

यह वाणी जल - ऊर्मि सदृश है करती है सतत मधुर - भाषण ।
आनन्द से अन्तर्मन भरता मन- मन से करता सम्भाषण॥1॥

8378
स  पूर्व्यः पवते  यं  दिवस्परि  श्येनो मथायदिषितस्तिरो  रजः ।
स मध्व आ युवते वेविजान इत्कृशानोरस्तुर्मनसाह बिभ्युष॥2॥

कितनी सुन्दर वसुन्धरा  है  सुन्दर  सब  सर - सरिता - सागर ।
आओ  हम  सब  इसे  बचायें  सूख  न  जाये अमृत - गागर ॥2॥

8379
ते  नः  पूर्वास उपरास इन्दवो  महे  वाजाय  धन्वन्तु  गोमते ।
ईक्षेण्यासो  अह्यो3न  चारवो  ब्रह्मब्रह्म  ये  जुजुषुर्हुविहर्विः  ॥3॥

बहुत  दिया  है  पूर्व - पिता  ने आगत  को  कुछ  देकर  जायें ।
जो भी पावन परम्परा है हम  भी अपना  दायित्व निभायें॥3॥

8380
अयं नो  विद्वान्वनवद्वनुष्यत इन्दुः सत्राचा  मनसा  पुरुष्टुतः ।
इनस्य यः सदने गर्भमादथे गवामुरुब्जमभ्यर्षति व्रजम् ॥4॥

मेरे  मन  में  जो शुभ-विचार  हैं  बैर - भाव  से  बहुत  बडे  हैं ।
जग को हम परिवार मानते  इसीलिए  हम  यहॉ  खडे  हैं ॥4॥

8381
चक्रिर्दिवः पवते  कृत्व्यो  रसो  महॉ  अदब्धो  वरुणो  हुरुग्यते ।
असावि मित्रो वृजनेषु यज्ञियोSत्यो न यूथे वृषयुःकनिक्रदत्॥5॥

वह  परमेश्वर  परम - मित्र  है  वह  ही  है  आनन्द - स्वरूप ।
वह  ही  दुष्ट - दलन  करता  है  वह परमेश्वर ही है अनूप ॥5॥

Saturday, 19 April 2014

सूक्त - 78

[ऋषि- कवि भार्गव । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती ।]

8382
प्र  राजा  वाचं  जनयन्नसिष्यददपो  वसानो  अभि  गा  इयक्षति ।
गृभ्णाति रिप्रमविरस्य तान्वा शुध्दो देवानामुप याति निष्कृतम्॥1॥

परमेश्वर  पर  जिसे  भरोसा  है  प्रभु  उसकी  रक्षा  करता  है ।
उसका  परिमार्जन  करता  है  उसके  दोषों  को  हरता  है ॥1॥

8383
इन्द्राय सोम परि षिच्यसे नृभिर्नृचक्षा ऊर्मिः कविरज्यसे वने ।
पूर्वीर्हि  ते स्त्रुतयः सन्ति यातवे सहस्त्रमश्वा  हरयश्चमूषदः ॥2॥

जो  प्रभु  पर  निर्भर  रहता  है  प्रभु उसका  सम्बल  बनता है ।
तेज - ओज सब कुछ देता है उसका बल- वर्धन  करता  है ॥2॥

8384
समुद्रिया अप्सरसो मनीषिणमासीना अन्तरभि सोममक्षरन् ।
ता ईं हिन्वन्ति हर्म्यस्य सक्षणिं याचन्ते सुम्नं पवमानमक्षितम्॥3॥

प्रभु  उपासना  जो  करते  हैं  प्रभु  उनको  प्रेरित  करते  हैं ।
उन्हें  समर्थ  बना  देते  हैं अपने निकट उन्हें रखते  हैं ॥3॥

8385
गोजिन्नःसोमो रथजिध्दिरण्यजित्स्वर्जिदब्जित्पवते सहस्त्रजित्।
यं  देवासश्चक्रिरे  पीतये  मदं  स्वादिष्ठं  द्रप्समरुणं  मयोभुवम् ॥4॥

प्रभु  की  तुलना  में  जगती  की  सभी  शक्तियॉ  तृण - समान  है ।
परमेश्वर  की  लीला  अद्भुत  है  परमेश्वर  सचमुच  महान  है  ॥4॥

8386
एतानि सोम पवमानो अस्मयुः सत्यानि कृण्वन्द्रविणान्यर्षसि ।
जहि शत्रुमन्तिके दूरके च य उर्वी गव्यूतिमभयं च नस्कृधि॥5॥

दुष्ट - दलन अति आवश्यक है प्रभु रिपु - दल  से  हमें  बचाना ।
तुम्हीं  सुरक्षा  देना  प्रभु - वर  हमें  साहसी अभय  बनाना ॥5॥

Friday, 18 April 2014

सूक्त - 79

[ऋषि- कवि भार्गव । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती ।]

8387
अचोदसो नो धन्वन्त्विन्दवः प्र  सुवानासो  बृहद्दिवेषु  हरयः ।
विं च नशन्न इषो अरातयोSर्यो नशन्त सनिषन्त नो धियः॥1॥

जो  प्रभु - प्रेरित  हो - कर  अपना  दायित्व  निभाते  रहते  हैं ।
प्रभु ही उनको सद् - गति देते हैं वह ही उनकी रक्षा करते हैं॥1॥

8388
प्र णो धन्वन्त्विन्दवो मदच्युतो  धना  वा  येभिरर्वतो  जुनीमसि।
तिरो मर्तस्य कस्य चित्परिह्वृतिं वयं धनानि विश्वधा भरेमहि॥2॥

सहज - सरल - सन्मार्ग  से  मिले  ऐसा  ही  धन  मुझे  चाहिए ।
अनीति- राह से मुझे बचाना मुझको तेरा सान्निध्य चाहिए॥2॥ 

8389
उत स्वस्या अरात्या अरिर्हि ष उतान्यस्या अरात्या वृको  हि षः।
धनवन्न तृष्णा समरीत तॉ अभि सोम जहि पवमान दुराध्यः॥3॥

परमेश्वर  पावन -  मन  देना  खट्  -  रागों  से  मुझे  बचाना ।
सत्पथ पर मुझको चलना है मञ्जिल तक मुझको पहुँचाना॥3॥

8390
दिवि ते नाभा परमो य आददे पृथिव्यास्ते रुरुहुः सानवि क्षिपः।
अद्रयस्त्वा बप्सति गोरधि त्वच्य1प्सु त्वा हस्तैर्दुदुहुर्मनीषिणः॥4॥

ज्ञान - योग और कर्म - योग के राज - मार्ग  पर  जो चलते हैं ।
वे  ही  प्रभु  से  वैभव  पाते  वह  ही  प्रभु - दर्शन  करते  हैं ॥4॥

8391
एवा  त  इन्दो  सुभ्वं  सुपेशसं रसं  तुञ्जन्ति  प्रथमा अभिश्रियः ।
निदंनिदं पवमान नि तारिष आविस्ते शुष्मो भवतु प्रियो मदः॥5॥

हे  प्रभु - वर आनन्द - प्रदाता  तुम  ही  देते  हो  सुख - आनन्द ।
तुम  ही  तो  सब  के प्रेरक हो सुधि ले लेना आनन्द - कन्द ॥5॥    

Thursday, 17 April 2014

सूक्त - 80

[ऋषि- वसु भारद्वाज । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती ।]

8392
सोमस्य  धारा  पवते  नृचक्षस  ऋतेन  देवान्हवते  दिवस्परि ।
बृहस्पते रवथेना वि दिद्युते समुद्रासो न सवनानि विव्यचुः॥1॥

शब्द - ब्रह्म  को  पहले  जानो  प्रभु - वैभव  का  हो  विस्तार ।
प्रभु - उपासना  जो  करते  हैं  उनका  बेडा  हो  जाता  पार॥1॥

8393
यं त्वा वाजिन्नघ्न्या अभ्यनूषतायोहतं योनिमा रोहसि द्युमान् ।
मघोनामायुः प्रतिरन्महि श्रव इन्द्राय सोम पवसे वृषा मदः ॥2॥

साधक  को  दीर्घ  आयु  मिलती  है उद्योगी  को  मिलता है बल ।
वह अनन्त है  शक्ति  विभूषित  सज्जन  पाते  हैं  शुभ-फल ॥2॥

8394
एन्द्रस्य  कुक्षा  पवते  मदिन्तम ऊर्जं वसानः श्रवसे सुमङ्गलः ।
प्रत्यङ् स विश्वा भुवनानि पप्रथे क्रीळन्हरिरत्यःस्यन्दते वृषा॥3॥

आनन्द - रूप  है  वह  परमात्मा आनन्द  की  वर्षा  करता  है ।
कण - कण  में  है  वास उसी का दोषों  को  वह ही हरता है ॥3॥

8395
तं  त्वा  देवेभ्यो  मधुमत्तमं  नरः सहस्त्रधारं  दुहते  दश  क्षिपः ।
नृभिःसोम प्रच्युतो ग्रावभिःसुतो विश्वॉदेवॉ आ पवस्वा सहस्त्रजित्॥4॥

परमेश्वर  आनन्द -  प्रदाता  निज  साधक  को  देते  आनन्द ।
दुष्ट - दलन  वे  ही  करते  हैं  साधक  पाता  है  परमानन्द ॥4॥

8396
तं त्वा हस्तिनो मधुमन्तमद्रिभिर्दुहन्त्यप्सु वृषभं दश क्षिपः ।
इन्द्रं सोम मादयन्दैव्यं जनं सिन्धोरिवोर्मिःपवमानो अर्षसि॥5॥

सबका अभीष्ट  पूरा  होता  है  बन्धन - मुक्त  मनुज जीता  है ।
जो ज्ञान-कर्म की राह पकडता आनन्द का अमृत पीता है॥5॥

Wednesday, 16 April 2014

सूक्त - 81

[ऋषि- वसु भारद्वाज । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती - त्रिष्टुप् ।]

8397
प्र  सोमस्य  पवमानस्योर्मय  इन्द्रस्य  यन्ति  जठरं  सुपेशसः ।
दध्ना यदीमुन्नीता यशसा गवां दानाय शूरमुदमन्दिषुःसुता:॥1॥

पूजनीय पावन परमेश्वर सज्जन को उत्साहित  करते  हैं ।
अन्तर्मन निर्मल करते हैं भक्तों को संस्कारित करते हैं॥1॥

8398
अच्छा हि सोमः कलशॉ असिष्यददत्यो न वोळ्हा रघुवर्तनिर्वृषा ।
अथा देवानामुभयस्य जन्मनो विद्वॉ अश्नोत्यमुत इतश्च यत् ॥2॥

यदि पथ पर आगे बढना है ज्ञान- कर्म दो ही  साधन  है ।
हे प्रभु तुम ही दीक्षित करना शतशः तेरा आराधन है ॥2॥

8399
आ नः सोम  पवमानः किरा  वस्विन्दो  भव  मघवा  राधसो  महः ।
शिक्षा वयोधो वसवे सु चेतना मा नो गयमारे अस्मत्परा सिचः॥3॥

वह  परमेश्वर  वैभव - शाली  है  हमें  भी  वैभव  का  दो  दान ।
ज्ञान-वान तुम हमें बनाओ शुभ-धन  हमको  करो प्रदान ॥3॥

8400
आ नः पूषा पवमानः सुरातयो मित्रो गच्छन्तु वरुणः सजोषसः।
बृहस्पतिर्मरुतो  वायुरश्विना त्वष्टा सविता सुयमा सरस्वती॥4॥

परमात्मा  हमसे  यह  कहते  हैं  सत् - संगति  है  सबसे  उत्तम । 
तुम नीति-निपुण बन  जाओ जग को पथ बतलाओ अनुपम॥4॥

8401
उभे द्यावापृथिवी विश्वमिन्वे अर्यमा देवो अदितिर्विधाता ।
भगो  नृशंस उर्व1न्तरिक्ष विश्वे देवा: पवमानं जुषन्त॥5॥

हे परमात्मा पावन मन दे दो अज्ञान तमस को तुम्हीं मिटाओ ।
तु सभी कलाओं के ज्ञाता हो हमको भी कुछ तो सिखलाओ॥5॥ 

Tuesday, 15 April 2014

सूक्त - 82

[ऋषि- वसु भारद्वाज । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती - त्रिष्टुप् ।]

8402
असावि सोमो अरुषो वृषा हरी राजेव दस्मो अभि गा अचिक्रदत् ।
पुनानो वारं पर्येत्यव्ययं  श्येनो  न  योनिं  घृतवन्तमासदम् ॥1॥

वह  परमात्मा  दर्शनीय  है  कण-कण  से  ध्वनित  हो  रहा  है ।
भक्तों  को  वह  दर्शन दे कर फिर चरैवेति चुपके  से  कहा  है ॥1॥

8403
कविर्वेधस्या  पर्येषि  माहिनमत्यो  न  मृष्टो  अभि  वाजमर्षसि ।
अपसेधन्दुरिता सोम मृळय घृतं वसानःपरि यास निर्णिजम्॥2॥

वह  सर्वज्ञ  समर्थ  बहुत  है  सज्जन  ही  उसको  पा सकते   हैं ।
खट्-रागों  से  वही  बचाते  सबको  सुख  देने आते  रहते  हैं ॥2॥

8404
पर्जन्यः पिता महिषस्य पर्णिनो नाभा पृथिव्या गिरिषु क्षयं दधे ।
स्वसार आपो अभि गा उतासरन्त्सं ग्रावभिर्नसते वीते अध्वरे॥3॥

परमेश्वर  ही  सुख - वैभव    देते  हम  सबकी  रक्षा  करते  हैं ।
यश  देते  प्रेरित  करते  हैं  धान  से  सबका  घर  भरते  हैं ॥3॥

8405
जायेव पत्यावधि शेव मंहसे पज्राया  गर्भ  श्रृणुहि ब्रवीमि  ते ।
अन्तर्वाणीषु  प्र चरा सु जीवसेSनिन्द्यो वृजने सोम जागृहि॥4॥

सत् - पथ  पर  वे  ही  पहुँचाते  कर्तव्य - बोध  सिखलाते  हैं ।
जागो  उठो  और  सब  पाओ  यही  मँत्र  दे  कर  जाते  हैं ॥4॥

8406
यथा पूर्व्येभ्यः शतसा अमृधः सहस्त्रसा: पर्यया वाजमिन्दो ।
एवा पवस्व सुविताय  नव्यसे  तव व्रतमन्वापः सचन्ते ॥5॥

कई  जन्म  से  आना  जाना  होता  रहा  जगत  में  अपना ।
अब जीवन सार्थक हो जाए वरद-हस्त तुम सिर पर रखना॥5॥

 

Monday, 14 April 2014

सूक्त - 83

[ऋषि- पवित्र आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती ।]

8407
पवित्रं  ते  विततं ब्रह्मणस्पते  प्रभुर्गात्राणि   पर्येषि  विश्वतः ।
अतप्ततनूर्न  तदामो अश्नुते शृतास इद्वहन्तस्तत्समाशत॥1॥

बिन तप  के  सन्तुष्टि  नहीं  है  जीवन  में  तप आवश्यक है ।
सत्पथ पर चलना है हमको सुख-स्वरूप अति व्यापक है॥1॥

8408
तपोष्पवित्रं विततं दिवस्पदे शोचन्तो अस्य तन्तवो व्यस्थिरन् ।
अवन्त्यस्य पवीतारमाशवो दिवस्पृष्ठमधि  तिष्ठन्ति  चेतसा॥2॥

जग  में  तप  ही  सर्वोपरि  है  बिना  तपस्या  जीवन  सूना ।
जो जीवन में तप करते हैं उनका सुख  बढ  जाता  दूना ॥2॥

8409
अरूरुचदुषसः  पृश्निरग्रिय  उक्षा  बिभर्ति  भुवनानि  वाजयुः ।
मायाविनो ममिरे अस्य मायया नृचक्षसःपितरो गर्भमा दधुः॥3॥

प्रभु उपासना  से  मिलता  है  जीवन  में  समुचित  आनन्द ।
कोई  तपस्वी  ही  पाता है प्रभु का प्रसाद आनन्द-कन्द ॥3॥

8410
गन्धर्व  इत्था  पदमस्य  रक्षति  पाति  देवानां  जनिमान्यद्भुतः ।
गृभ्णाति रिपुं निधया निधापतिःसुकृत्तमा मधुनो भक्षमाशत॥4॥

वह  सत्य - रूप  परमात्मा  ही  हम  सबकी  रक्षा  करता  है ।
प्रभु  का  वही उपासक  ही आनन्द  प्राप्त  कर  सकता  है ॥4॥

8411
हविर्हविष्मो महि सद्य दैव्यं नभो  वसानः परि  यास्यध्वरम् ।
राजा पवित्ररथो वाजमारुहः सहस्त्रभृष्टिर्जयसि श्रवो बृहत्॥5॥

तुम  ही  हवि  हो  तुम  ही  होता  दिव्य - गगन  है  तेरा  घर ।
हे  प्रभु  सर्व-व्याप्त  परमेश्वर  मुझ  पर सदा अनुग्रह कर ॥5॥ 

Sunday, 13 April 2014

सूक्त - 84

[ऋषि- प्रजापति वाच्य । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती ।]

8412
पवस्व  देवमादनो   विचर्षणिरप्सा  इन्द्राय   वरुणाय   वायवे ।
कृधी नो अद्य वरिवः स्वस्तिमदुरुक्षितौ गृहीणि दैव्यं जनम्॥1॥

हे  मनुज  बनो  तुम  विज्ञानी  आओ  आविष्कार  करें  हम ।
सबकी  दरिद्रता  मिट  जाए  कर  लो  ऐसा  कोई  उपक्रम॥1॥

8413
आ यस्तस्थौ भुवनान्यमर्त्यो विश्वानि सोमः परि  तान्यर्षति ।
कृण्वन्त्सञ्चृतं विचृतमभिष्टय इन्दुःसिषक्त्युषसं न सूर्यः॥2॥

विज्ञान-ज्ञान  से  आभा-मण्डल  स्वयं  तेज  से  भर  उठता  है ।
अन्वेषण अति आवश्यक  है  जगती  का  वैभव  बढता  है ॥2॥

8414
आ यो गोभिः सृज्यत ओषधीष्वा देवानां सुम्न इषयन्नुपावसुः ।
आ विद्युता पवते धारया सुत इन्द्रं सोमो मादयन्दैव्यं जनम्॥3॥

जो  जग - हित  में  रहे  समर्पित  प्रभु  उनकी  रक्षा  करते  हैं ।
उनका यश बढता रहता है जो पर-हित  में  जीते  मरते  हैं ॥3॥

8415
एष स्य सोमः पवते सहस्त्रजिध्दिन्वानो वाचमिषिरामुषर्बुधम् ।
इन्दुः समुद्रमुदिर्यति वायुभिरेन्द्रस्य हार्दि कलशेषु सीदति॥4॥

अनन्त  शक्ति-सम्पन्न  वही  है  जग  का  स्वामी है परमेश्वर ।
जो उषा - काल  में  हमें जगाता कहता जागो बढो परस्पर ॥4॥

8416
अभि त्यं गावःपयसा पयोवृधं सोमं श्रीणन्ति मतिभिःस्वर्विदम ।
धनञ्जयः पवते कृत्व्यो रसो विप्रः कविः काव्येना स्वर्चना: ॥5॥

परमात्मा  आनन्द - रूप  है  आनन्द - वेग  सम्मुख  बहता  है ।
ज्ञान-योग का पथिक निरन्तर प्रभु की गोद में  ही  पलता है॥5॥

Saturday, 12 April 2014

सूक्त - 85

[ऋषि- वेन भार्गव । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती - त्रिष्टुप् ।]

8417
इन्द्राय  सोम  सुषुतः  परि  स्त्रवाSपामीवा  भवतु  रक्षसा  सह ।
मा ते रसस्य मत्सत द्वयाविनो द्रविणस्वन्त इह सन्त्विन्दवः॥1॥

सच  पर  हो  विश्वास  हमारा  हम  असत्य  का  त्याग  करें ।
सत्यासत्य  विवेक  जरूरी  निज-मन  में  यह  भाव  भरें॥1॥

8418
अस्मान्त्समर्ये पवमान चोदय दक्षो देवानामसि हि प्रियो मदः ।
जहि शत्रूँरभ्या भन्दनायतः पिबेन्द्र सोममव नो मृधो जहि ॥2॥

दुष्ट- दमन अति आवश्यक  है  हर  मनुज  जिए  निर्भय होकर ।
अपने अभीष्ट का ध्यान धरे  वह  करे  भरोसा  परमेश्वर  पर॥2॥

8419
अदब्ध  इन्दो  पवसे मदिन्तम आत्मेन्द्रस्य भवसि धासिरुत्तमः ।
अभि स्वरन्ति बहवो मनीषिणो राजानमस्य भुवनस्य निंसते॥3॥

सोम  नाम  है  परमेश्वर  का  सर्व -व्याप्त  है  वह  परमेश्वर ।
परमेश्वर आनन्द - रूप  है  प्रेरित  करने  को  है  तत्पर ॥3॥

8420
सहस्त्रणीथः  शतधारो अद्भुत  इन्द्रायेन्दुः  पवते  काम्यं मधु ।
जयन्क्षेत्रमभ्यर्षा जयन्नप उरुं नो गातुं कृणु सोम मीढ्वः॥4॥

प्रभु  अनन्त आनन्द- श्रोत  है अद्भुत - वैभव  का  स्वामी  है ।
आनन्द  की  झडी  लगा देता  है  परमेश्वर अन्तर्यामी  है ॥4॥

8421
कनिक्रदत्कलशे गोभिरज्यसे व्य1व्ययं समया वारमर्षसि ।
मर्मृज्यमानो अत्यो न सानसिरिन्द्रस्य सोम जठरे समक्षरः॥5॥

आत्म-ज्ञान  परमात्म-प्राप्ति  है  वह  अति निकट वही है दूर ।
वह  सज्जन  के अति  समीप  है और  दुष्ट  से है अति दूर ॥5॥

8422
स्वादुः पवस्व दिव्याय जन्मने स्वादुरिन्द्राय सुहवीतुनाम्ने ।
स्वादुर्मित्राय वरुणाय वायवे बृहस्पतये मधुमॉ अदाभ्यः ॥6॥

सभी  दोष  उनके  मिट  जाते  जो  प्रभु  का  करते  हैं ध्यान ।
वह  परमेश्वर  सबके  प्रिय  हैं  सब हैं उसके लिए समान ॥6॥

8423
अत्यं मृजन्ति कलशे दश क्षिपः प्र विप्राणां मतयो वाच ईरते ।
पवमाना अभ्यर्षन्ति सुष्टुतिमेन्द्रं विशन्ति मदिरास इन्दवः॥7॥

उज्ञोगी  प्रभु  को  पाता  है  वह  धीर - वीर  बन  जाता  है ।
सद् - विद्या पथ पर जाकर वह ब्रह्म-ज्ञान को  पाता  है ॥7॥

8424
पवमानो  अभ्यर्षा  सुवीर्यमुर्वीं  गव्यूतिं  महि  शर्म  सप्रथः ।
माकिर्नो अस्य परिषूतिरीशतेन्दो जयेम त्वया धनंधनम्॥8॥

जो  ईर्ष्या - द्वेष  नहीं  करते  हैं  वे  ही  यश - वैभव  पाते  हैं ।
निज  विवेक  से  जो चलते हैं प्रभु उसको ही अपनाते हैं ॥8॥

8425
अधि द्यामस्थाद्वृषभो विचक्षणोSरूरुचद्वि दिवो रोचना कविः।
राजा  पवित्रमत्येति  रोरुवद्दिवः पीयूषं  दुहते नृचक्षसः ॥9॥

वह  आलोक - रूप  परमात्मा अक्षय  अमृत  का  है  धाम ।
सुख-साधन  वह  ही  देता  है  सद्-गति दे देता है नाम ॥9॥

8426
दिवो नाके मधुजिह्वा असश्चतो वेना दुहन्त्युक्षणं गिरिष्ठाम् ।
अप्सु द्रप्सं वावृधानं समुद्र आ सिन्धोरूर्मा मधुमन्तं पवित्र आ॥10॥

नित्य-मुक्ति के अभिलाषी-जन धरते हैं प्रभु का ही ध्यान ।
प्रभु उनके दोष मिटा देते हैं वह हैं आखिर सखा-समान॥10॥

8427
नाके   सुपर्णमुपपप्तिवांसं   गिरो   वेनानामकृपन्त   पूर्वीः ।
शिशुं रिहन्ति मतयः पनिप्नतं हिरण्ययं शकुनं क्षामणि स्थाम्॥11॥

सर्व-शक्ति से  युक्त  शकुन  है  सभी  गुणों  का  वह  निधान  है ।
ऋषियों  की  वाणी  के  द्वारा  मनुज  हृदय में विद्यमान है ॥11॥

8428
ऊर्ध्वो गन्धर्वो अधि नाके अस्थाद्विश्वा रूपा प्रतिचक्षाणो अस्य ।
भानुः शुक्रेण शोचिषा व्यद्यौत्प्रारूरुचद्रोदसी मातरा शुचिः॥12॥

प्रभु  प्रकाश  से  सभी  प्रकाशित  वह  सर्वज्ञ  समर्थ  वही  है ।
कण-कण में वह बसा हुआ है चर में अचर में कहॉ नहीं है ॥12॥     


Friday, 11 April 2014

सूक्त - 86

[ऋषि- अकृष्टामाष ऋषिगण । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती ।]

8429
प्र  त  आशवः  पवमान  धीजवो  मदा  अर्षन्ति  रघुजा  इव त्मना ।
दिव्या: सुपर्णा मधुमन्त इन्दवो मदिन्तमासः परि कोशमासते॥1॥

जो  माया  से  बच - कर  केवल  परब्रह्म  को  ही  भजते  हैं ।
प्रभु उनके मन में आ कर के खुद ही उजियारा करते हैं ॥1॥

8430
प्र   ते   मदासो  मदिरास आशवोSसृक्षत  रथ्यासो  यथा  पृथक् ।
धेनुर्न वत्सं पयसाभि वज्रिणमिन्द्रमिन्दवो मधुमन्त ऊर्मयः॥2॥

जैसे  रथ  के  पहिए  से  ही  उस  रथ  की  गति  बढ  सकती  है ।
वैसे  ही  चित्त - वृत्ति  ही  हमको  पथ  पर अग्रेषित  करती  है॥2॥

8431
अत्यो  न हियानो अभि वाजमर्ष स्वर्वित्कोशं दिवो अद्रिमातरम् ।
वृषा पवित्रे अधि सानो अव्यये सोमः पुनान इन्द्रियाय धायसे॥3॥

पावन  मन  वाला  मानुष  ही  प्रभु  से  सब  कुछ  पा  सकता  है ।
यश-वैभव का मालिक हमको अपना वैभव दिखला सकता है ॥3॥

8432
प्र त आश्विनीः पवमान धीजुवो दिव्या असृग्रन्पयसा धरीमणि ।
प्रान्तरृषयः स्थाविरीरसृक्षत ये त्वा मृजन्त्यृषिषाण वेधसः॥4॥

जो  प्रभु  की  पूजा  करते  हैं  उनके  ध्यान  में  प्रभु  आते  हैं ।
सूक्ष्म  बुध्दि  द्वारा  ही  उनको  हम अन्तर्मन  में  पाते  हैं ॥4॥ 

8433
विश्वा धामानि विश्वचक्ष ऋभ्वसःप्रभोस्ते सतःपरि यन्ति केतवः।
व्यानशिः पवसे सोम धर्मभिः पतिर्विश्वस्य भुवनस्य राजसि ॥5॥

प्रभु  अतुलित  बल  के  स्वामी  हैं  पात्रानुकूल  बल  देते  हैं ।
वे नित्य शुध्द वे नित्य बुध्द साधक को वही परखते हैं ॥5॥

8434
उभयतः पवमानस्य  रश्मयो  ध्रुवस्य  सतः परि  यन्ति  केतवः ।
यदी पवित्रे अधि मृज्यते हरिः सत्ता नि योना कलशेषु सीदति॥6॥

साधक  सत्कर्म  गली  में  जाते  प्रभु  प्रति - बिम्बित  होते  हैं ।
सज्जन  सहज  सरल  होते  हैं  वे  ही  पर- दुख  में  रोते  हैं ॥6॥

8435
यज्ञस्य केतुः पवते स्वध्वरः सोमो देवानामुप याति निष्कृतम् ।
सहस्त्रधारः  परि  कोशमर्षति  वृषा  पवित्रमत्येति  रोरुवत् ॥7॥

अहिंसा  सबसे  बडा  धर्म  है  धर्म-कर्म  में  प्रभु  बसता  है ।
वह परमेश्वर अति पावन है निर्मल मन में वह रहता है ॥7॥

8436
राजा समुद्रं नद्यो3 वि गाहतेSपामूर्मिं सचते सिन्धुषु श्रितः ।
अध्यस्थात्सानु पवमानो अव्ययं नाभा पृथिव्या धरुणो महो दिवः॥8॥

कितनी सुन्दर उसकी रचना कितने सुन्दर सरिता सागर ।
सबका आश्रय परमेश्वर है वह  ही  है अमृत  का गागर ॥8॥

8437
दिवो न सानु स्तनयन्नचिक्रदद् द्यौश्च यस्य  पृथिवी  च  धर्मभिः।
इन्द्रस्य सख्यं पवते विवेविदत्सोमः पुनानः कलशेति सीदति॥9॥

पृथ्वी  परिक्रमा  करती  है  सूरज  है  आलोक - प्रदाता ।
हमको पावन वही बनाता वही पिता है वह ही माता ॥9॥

8438
ज्योतिर्यज्ञस्य  पवते मधु प्रियं पिता देवानां जनिता विभूवसुः ।
दधातु रत्नं स्वधयोरपीच्यं मदिन्तमो मत्सर इन्द्रियो रसः॥10॥

यज्ञ - ज्योति  है  वह  परमात्मा  जो  प्रभु  से  करते  हैं  प्रेम ।
यश-वैभव  के  वे  मालिक  हैं  सदा  निभाते  हैं  वे  नेम ॥10॥

8439
अभिक्रन्दन्कलशं  वाज्यर्षति  पतिर्दिवः  शतधारो  विचक्षणः ।
हरिर्मित्रस्य सदनेषु सीदति मर्मृजानोSविभिःसिन्धुभिर्वृषा॥11॥

प्रभु  अनन्त  आनन्द  श्रोत  है  करता  है  सबका  अवलोकन ।
पात्र - मनुज के मन में रहता वह ही करता है पालन-पोषन॥11॥

8440
अग्रे  सिन्धूनां पवमानो अर्षत्यग्रे वाचो अग्रियो गोषु गच्छति ।
अग्रे वाजस्य भजते महाधनं स्वायुधः सोतृभिः पूयते वृषा॥12॥

परमात्मा  ने  हमें  दिया  है  शब्द  स्पर्श  रूप  रस  गन्ध ।
वह ही सुख-साधन देता है तरह-तरह के दिये सुगन्ध॥12॥

8441
अयं  मतवाञ्छकुनो  यथा  हितोSव्ये  ससार  पवमान  ऊर्मिणा ।
तव क्रत्वा रोदसी अन्तरा कवे शुचिर्धिया पवते सोम इन्द्र ते॥13॥

कर्मानुकूल  वह  फल  देता  है  शुभ -  कर्मों  का  वही  प्रदाता ।
श्रेष्ठ-कर्म हम करें निरंतर हम ही हैं अपने भाग्य-विधाता॥13॥

8442
द्रापिं  वसानो  यजतो  दिविस्पृशमन्तरिक्षप्रा  भुवनेष्वर्पितः ।
स्वर्जज्ञानो नभसाभ्यक्रमीत्प्रत्नमस्य पितरमा विवासति॥14॥

सत्कर्म  हमारे  कवच  सदृश  हैं  संकट  से  वही  बचाते  हैं ।
वे   ही  यश  - वैभव  देते  हैं  सज्जन  वही  बनाते  हैं  ॥14॥ 

8443
सो अस्य विशे महि शर्म यच्छति यो अस्य धाम प्रथमं व्यानशे ।
पदं यदस्य परमे व्योमन्यतो विश्वा अभि सं याति संयतः ॥15॥

जो  प्रभु  पर  निर्भर  रहते  हैं  प्रभु  रखते  हैं  उनका  ध्यान ।
सत्पथ पर उसको ले जाते बन जाता  है  मनुज महान ॥15॥ 

8444
प्रो अयासीदिन्दुरिन्द्रस्य निष्कृतं सखा सख्युर्न प्र मिनाति सङ्गिरम्।
मर्यइव   युवतिभिः  समर्षति  सोमः  कलशे   शतयाम्ना   पथा ॥16॥ 

कर्म  मार्ग  के अनुयायी  पर  वह  प्रभु  दया - दृष्टि  रखता  है ।
वह हम सबका सखा-सदृश है नेम-नियम वह तय करता है॥16॥

8445
प्र  यो  धियो  मन्द्रयुवो  विपन्युवः  पनस्युवः  संवसनेष्वक्रमुः ।
सोमं मनीषा अभ्यनूषत स्तुभोSभि धेनवः पयसेमशिश्रयुः॥17॥ 

साधक  प्रभु  की  पूजा  करते  हैं  वे  सत्संग  किया  करते  हैं ।
तीव्र-मन्द जिस गति से चलते वैसा ही फल भी चखते हैं ॥17॥

8446
आ नः सोम संयतं पिप्युषीमिषमिन्दो पवस्व पवमानो अस्रिधम्।
या  नो  दोहते त्रिरहन्नसश्चुषी  क्षुमद्वाजवन्मधुमत्सुवीर्यम् ॥18॥

हे  आलोक -  रूप  परमात्मा  तुम  हमको  अक्षय  वैभव  दो ।
गत आगत वर्तमान तीनों को महापराक्रम से तुम भर दो॥18॥

8447
वृषा  मतीनां  पवते  विचक्षणः  सोमो  अह्नः प्रतरीतोषसो  दिवः ।
क्राणा सिन्धूनां कलशॉ अवीवशदिन्द्रस्य हार्द्याविशन्मनीषिभिः॥19॥

प्रभु  योगी  के  मन  में  रहता  वही  जगह उसको  रुचती  है ।
सभी कामना पूरी करता श्रुति  भी  यही  कहा  करती है ॥19॥

8448
मनीषिभिः पवते पूर्व्यः कविर्नृभिर्यतः परि कोशॉ अचिक्रदत् ।
त्रितस्य नाम जनयन्मधु क्षरदिन्द्रस्य वायोः सख्याय कर्तवे॥20॥

कर्म-योग   के ज्ञान-योग  के साधक  सख्य-भाव  से  भजते ।
अद्वैत-भाव में साधक रहता प्रभु आनन्द प्रवाहित करते॥20॥

8449
अयं  पुनान  उषसो  वि रोचयदयं सिन्धुभ्यो अभवदु लोककृत् ।
अयं त्रिः सप्त दुदुहान आशिरं सोमो हृदे पवते चारु मत्सरः॥21॥

उषा-किरण  ले  कर  आती  है  प्रतिदिन  पलता  पावन  प्रभात ।
प्रकृति - सुन्दरी  क्रीडा  करती  वैभव  का  देती  है  प्रपात ॥21॥ 

8450
पवस्व सोम दिव्येषु धामसु सृजान इन्दो कलशे पवित्र आ ।
सीदन्निन्द्रस्य जठरे कनिक्रदन्नुभिर्यतः सूर्यमारोहयो दिवि॥22॥

यह  जगती  प्रभु  की  सत्ता  है विविध-विधा से होती रचना ।
कर्म-योग का पाठ-पढाती कहती उद्यम - घर में बसना ॥22॥

8451
अद्रिभिः सुतः पवसे  पवित्र  ऑ  इन्दविन्द्रस्य  जठरेष्वाविशन् ।
त्वं नृचक्षा अभवो विचक्षण सोम गोत्रमङ्गिरोभ्योSवृणोरप॥23॥

उज्ञोगी  को  प्रेरित  करता  है  उसके  अन्तर्मन  में  बस जाता ।
वह सर्वज्ञ सर्व-व्यापक है सज्जन-रक्षा का वचन निभाता॥23॥

8452
त्वां  सोम  पवमानं  स्वाध्योSनु  विप्रासो  अमदन्नवस्यवः ।
त्वां सुपर्ण आभरद्दिवस्परीन्दो विश्वाभिर्मतिभिःपरिष्कृतम्॥24॥

जो  साधक  सूझ-बूझ  से  अपना  करता  रहता  है  परिष्कार ।
वही आत्म-दर्शन  पाता  है  जो  तप  करता  है  निर्विकार॥24॥

8453
अव्ये  पुनानं  परि  वार ऊर्मिणा हरिं नवन्ते अभि सप्त धेनवः ।
अपामुपस्थे अध्यायवःकविमृतस्य योना महिषा अहेषत॥25॥

जो  परमात्मा  को  भजता  है  वह  ही  है  बस  चतुर  सुजान ।
वह  सत्पथ  पर चलता है पूरा करता अभिनव अभियान॥25॥

8454
इन्दुः पुनानो अति गाहते मृधो विश्वानि कृण्वन्त्सुपथानि यज्यवे ।
गा: कृण्वानो निर्णिजं हर्यतः कविरत्यो न क्रीळन्परि वारमर्षति॥26॥

प्रभु  उपासना  जो  करते  हैं  प्रभु  रखते  हैं  उनका  ध्यान ।
पथ  के  कण्टक  वही  हटाते  कर देते हैं पथ-आसान ॥26॥

8455
असश्चतः शतधारा अभिश्रियो हरिं नवन्तेSव ता उदन्युवः ।
क्षिपो मृजन्ति परि गोभिरावृतं तृतीये पृष्ठे अधि रोचने दिवः॥27॥

आलोक-पुञ्ज उस परमात्मा का चित्त-वृत्ति करती है ध्यान ।
मानव परमानन्द पाता है बन जाता है मनुज महान ॥27॥

8456
तवेमा: प्रजा दिव्यस्य रेतसस्त्वं विश्वस्य भुवनस्य राजसि ।
अथेदं विश्वं पवमान ते वशे त्वमिन्दो प्रथमो धामधा असि॥28॥

हे  समर्थ  परमेश्वर  मेरे  हमको  दो  अपना  सान्निध्य ।
मेरा मन तेरे वश में हो मुझे चाहिए  बस  सामीप्य॥28॥

8457
त्वं समुद्रो असि विश्ववित्कवे तवेमा: पञ्च प्रदिशो विधर्मणि ।
त्वं द्यां च पृथिवीं चाति जभ्रिषे तव ज्योतींषि पवमान सूर्यः॥29॥

हे  परमेश्वर  तुम  समुद्र  हो  तुम  ही  पालक - पोषक  हो ।
तुम ही जगती के स्वामी हो तुम हम सबके रक्षक हो ॥29॥

8458
त्वं  पवित्रे  रजसो  विधर्मणि   देवेभ्यः सोम  पवमान  पूयसे ।
त्वामुशिजःप्रथमा अगृभ्णत तुभ्येमा विश्वा भुवनानि येमिरे॥30॥

हे  प्रभु  जग  को  पावन  कर  दो  हम  सब भी पावन हो जायें ।
तेरे प्रकाश से सभी प्रकाशित तुझसे हम भी कुछ तो पायें॥30॥

8459
प्र  रेभ  एत्यति  वारमव्ययं  वृषा  वनेष्वव  चक्रदध्दरिः ।
सं धीतयो वावशाना अनूषत शिशुं रिहन्ति मतयः पनिप्नतम्॥31॥

जो  परमेश्वर  की  सत्ता  को  मन  से  करते  हैं  स्वीकार ।
वे ही प्रभु को पा सकते हैं जीवन बन जाता सत्कार ॥31॥

8460
स  सूर्यस्य  रश्मिभिः  परि  व्यत  तन्तुं  तन्वानस्त्रिवृतं  यथा  विदे ।
नयन्नृतस्य प्रशिषो नवीयसीः पतिर्जनीनामुप याति निष्कृतम्॥32॥

शुभ - संस्कृति  का  ही  प्रवाह  हो  देश  धर्म  का  हो  उत्थान ।
अन्वेषण  अत्यावश्यक  है  जिससे  वसुधा  बने  महान ॥32॥

8461
राजा सिन्धूनां पवते पतिर्दिव ऋतस्य याति पथिभिः कनिक्रदत् ।
सहस्त्रधारः परि षिच्यते हरिः पुनानो वाचं जनयन्नुपावसुः॥33॥

अनन्त- शक्ति  का  वह  स्वामी  है  सत्पथ  पर प्रेरित  करता  है ।
वेद-गिरा के माध्यम से  वह  हम  पर  दया-दृष्टि  रखता  है ॥33॥

8462
पवमान मह्यर्णो वि धावसि सूरो न चित्रो अव्ययानि पव्यया ।
गभस्तिपूतो नृभिरद्रिभिः सुतो महे वाजाय धन्याय धन्वसि॥34॥

जैसे सूर्य-किरण लाती सुख-कर स्वर्णिम आलोक धरा पर ।
बस वैसे ही ज्ञान-मार्ग से साधक को वर देते परमेश्वर॥34॥

8463
इषमूर्जं  पवमानाभ्यर्षसि  श्येनो  न  वंसु  कलशेषु  सीदसि ।
इन्द्राय मद्वा मद्यो मदः सुतो दिवो विष्टम्भ उपमो विचक्षणः॥35॥

प्रभु  पावन  मन  में  रहते  हैं  पुरुषार्थी  है  उनको  प्यारा ।
परमात्मा आनन्द-रूप हैं उस पर है अधिकार हमारा ॥35॥

8464
सप्त स्वसारो अभि मातरः शिशुं नवं जज्ञानं जेन्यं विपश्चितम् ।
अपां गन्धर्वं दिव्यं नृचक्षसं सोमं विश्वस्य भुवनस्य राजसे॥36॥

दिव्य - दृष्टि  प्रभु  ही  देते  हैं  वे  साधक  का  रखते  ध्यान ।
विज्ञान -ज्ञान जगती में फैले बन जायें हम सचमुच महान ॥36॥

8465
ईशान  इमा  भुवनानि  वीयसे  युजान  इन्दो  हरितः  सुपर्ण्यः ।
तास्ते क्षरन्तु मधुमद्घृतं पयस्तव व्रते सोम तिष्ठन्तु कृष्टयः॥37॥

चर  में  अचर  में  तुम  ही  तुम  हो परमेश्वर तुम सर्व-व्याप्त हो ।
तुम हमें प्रेम से प्रेरित करते तुम हम सबको सहज प्राप्त हो॥37॥

8466
त्वं नृचक्षा असि सोम विश्वतः पवमान वृषभ ता वि धावसि ।
स नः पवस्व वसुमध्दिरण्यवद्वयं स्याम भुवनेषु जीवसे॥38॥

हे  सोम  शक्ति-वर्धन  करना  सतत अनुग्रह हम पर करना ।
सबको सुख-कर जीवन देना धन-धान सदा देते रहना ॥38॥

8467
गोवित्पवस्व   वसुविध्दिरण्यविद्रेतोधा   इन्दो   भुवनेष्वर्पितः ।
त्वं सुवीरो असि सोम विश्ववित्तं त्वा विप्रा उप गिरेम आसते॥39॥

सभी  सम्पदा  के  तुम  स्वामी   सबका साहस तुम्हीं बढाते ।
तुम सर्वज्ञ समर्थ तुम्हीं हो तुम्हीं पराक्रम पाठ - पढाते ॥39॥

8468
उन्मध्व ऊर्मिर्वनना अतिष्ठिपदपो वसानो महिषो वि गाहते ।
राजा पवित्ररथो वाजमारुहत्सहस्त्रभृष्टिर्जयति श्रवो बृहत्॥40॥

वेद - ऊर्मि  है  मधुर  सुनहरी  वेद- ऋचायें  नव - बिहान हैं ।
जगती को आलोकित करती काल-जयी हैं वर्त्तमान  हैं ॥40॥

8469
स  भन्दना  उदियर्ति  प्रजावतीर्विश्वायुर्विश्वा:  अहर्दिवि ।
ब्रह्म प्रजावद्रयिमश्वपस्त्यं पीत इन्दविन्द्रमस्मभ्यं याचतात्॥41॥

हे  आलोक - रूप  परमात्मा  काल - जयी  है  वेद - धरोहर ।
धर्म अर्थ और काम मोक्ष है आज भी ताजा रहे निरन्तर ॥41॥

8470
सो अग्रे अह्नां हरिर्हर्यतो मदः प्र चेतसा चेतयते अनु द्युभिः ।
द्वा जना यातयन्नन्तरीयते नरा च शंसं दैव्यं च धर्तरि॥42॥

परमात्मा  जगती  का  रक्षक  नित-नूतन  वैभव  देता  है ।
ज्ञान-योग हो कर्म-योग  हो  दोनों  को अपना लेता है ॥42॥

8471
अञ्जते व्यञ्जते समञ्जते क्रतुं रिहन्ति मधुनाभ्यञ्जते ।
सिन्धोरुच्छ्वासे पतयन्तमुक्षणं हिरण्यपावा: पशुमासु गृभ्णते॥43॥

उस प्रभु की गति ज्ञान-वान है आनन्द-रूप है सर्व-व्याप्त है ।
हम चाहे जैसे भी हों पर हम सबको उसकी कृपा प्राप्त है॥43॥

8472
विपश्चिते  पवमानाय  गायत  मही  न  धारात्यन्धो  अर्षति ।
अहिर्न जूर्णामति सर्पति त्वचमत्यो न क्रीळन्नसरद्वृषा हरिः॥44॥

उस  अनन्त  का  वैभव अद्भुत आओ  उस  प्रभु  का  गायें  गीत ।
अति विचित्र वैज्ञानिक है वह उसका परिचय पावन पुनीत॥44॥

8473
अग्रेगो  राजाप्यस्तविष्यते  विमानो  अह्नां  भुवनेष्वर्पितः ।
हरिर्घृतस्नुः सुदृशीको अर्णवो ज्योतीरथः पवते राय ओक्यः॥45॥

परमेश्वर  जगती  का  मालिक  सबको  करता  है  वह  प्रेम ।
वह सुख-सागर है हम सबका वह ही सिखलाता है नेम॥45॥

8474
असर्जि  स्कम्भो  दिव  उद्यतो  मदः  परि  त्रिधातुर्भुवनान्यर्षति ।
अंशुं रिहन्ति मतयः पनिप्नतं गिरा यदि निर्णिजमृग्मिणो ययुः॥46॥

आनन्द रूप है वह परमात्मा काल-जयी है उसकी महिमा ।
साधक परमानन्द पाता है गूँज रही है उसकी गरिमा ॥46॥

8475
प्र ते धारा अत्यण्वानि मेष्यः पुनानस्य संयतो यन्ति रंहयः ।
यद् गोभिरिन्दो चम्वोः समज्यस आ सुवानः सोम कलशेषु सीदसि॥47॥

जब  साधक  अन्तर्मुख  होकर  परमात्मा  का  करता ध्यान ।
प्रेम-भाव  में  बह  जाता  है  वह  परमेश्वर कृपा-निधान ॥47॥

8476
पवस्व सोम क्रतुविन्न उक्थ्योSव्यो वारे परि धाव मधु प्रियम् ।
जहि विश्वान् रक्षस इन्दो अत्रिणो बृहद्वदेम विदथे सुवीरा:॥48॥

दुष्ट - दलन  अति  आवश्यक  है  हे  प्रभु  रक्षा  करो  हमारी ।
सब  दोषों  से  हमें  बचाना  हे  कृपा-सिन्धु  हे  गिरधारी ॥48॥