[ऋषि- शत वैखानस । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री- अनुष्टुप् ।]
8239
पवस्व विश्वचर्षणेSभि विश्वानि काव्या । सखा सखिभ्यः ईड्यः॥1॥
हे परम - मित्र हे परमेश्वर तुम ही तो नित - नूतन बिहान हो ।
कवियों का शुभ - भाव हमें दो कवित्व-शक्ति के तुम निधान हो ॥1॥
8240
ताभ्यां विश्वस्य राजसि ये पवमान धामनी ।प्रतीची सोम तस्थतुः॥2॥
ज्ञान - मार्ग के माध्यम से तुम जगती को आलोकित करते ।
पुरा - विधा को रेखाञ्कित कर सबको पावन तुम्हीं बनाते ॥2॥
8241
परि धामानि यानि ते त्वं सोमासि विश्वतः।पवमान ऋतुभिः कवे॥3॥
परिवर्तन है प्रकृति प्रकृति की आना रहना और फिर जाना ।
काल - चक्र चलता रहता है कर्मानुसार फल मिलता माना ॥3॥
8242
पवस्व जनयन्निषोSभि विश्वानि वार्या। सखा सखिभ्य ऊतये॥4॥
जो परमात्म - परायण होते प्रभु सुख - मय जीवन देते हैं ।
विविध - भॉति के वैभव देते पथ का कण्टक हर लेते हैं ॥4॥
8243
तव शुक्रासो अर्चयो दिवस्पृष्ठे वि तन्वते। पवित्रं सोम धामभिः॥5॥
यह धरती देदीप्य - मान है प्रभु प्रकाश से सभी प्रकाशित ।
अन्न - धान देती वसुन्धरा पावन - पवन परस्पर पुलकित ॥5॥
8244
तवेमे सप्त सिन्धवः प्रशिषं सोम सिस्त्रते । तुभ्यं धावन्ति धेनवः॥6॥
सप्त - सिन्धु अनुसरण तुम्हारा अविरल ऊर्मि धार से चलते ।
कर्म - निमग्न सभी प्राणी हैं गिरते पडते और संभलते ॥6॥
8245
प्र सोम याहि धारया सुत इन्द्राय मत्सरः। दधानो अक्षिति श्रवः॥7॥
आनन्द - वृष्टि से नहलाओ प्रभु तुम हो खुद आनन्द - स्वरूप ।
कण - कण में तुम बसे हुए हो तुम अक्षय - यश हो अनूप ॥7॥
8246
समु त्वा धीभिरस्वरन्हिन्वतीःसप्त जामयः।विप्रमाजा विवस्वतः॥8॥
प्रभु - उपासना जो करते हैं परमेश्वर से होता साक्षात्कार ।
निर्विकल्प तक वे जाते हैं फिर करते हैं सबका उपकार ॥8॥
8247
मृजन्ति त्वा समग्रुवोSव्ये जीरावधि ष्वणि। रेभो यदज्यसे वने॥9॥
कर्म - योग का पथ उत्तम है आओ सब इसी मार्ग पर आओ ।
आत्म -ज्ञान खुद पा जाओगे सुख - सान्निध्य सभी पाओ ॥9॥
8248
पवमानस्य ते कवे वाजिन्त्सर्गा असृक्षत। अर्वन्तो न श्रवस्यवः॥10॥
हे पावन पूजनीय परमेश्वर तुम ही रखते हो सबका ध्यान ।
वरद - हस्त हम पर भी रखना दीन - बन्धु हे दयानिधान॥10॥
8249
अच्छा कोशं मधुश्चुतमसृगं वारे अव्यये । अवावशन्त धीतयः॥11॥
तेरी रचना अति - शय सुन्दर कितनी सुन्दर है वसुन्धरा ।
पर मानव सबसे सुन्दर है उससे सुन्दर उसकी ऋतम्भरा॥11॥
8250
अच्छा समुद्रमिन्दवोSस्तं गावो न धेनवः।अग्मन्नृतस्य योनिमा॥12॥
वेद - ऋचायें शब्दों द्वारा पावन - प्रभु को अविरल भजती हैं ।
शब्द- ब्रह्म है वह परमेश्वर श्रुतियॉ भी ऐसा ही कहती हैं ॥12॥
8251
प्र ण इन्दो महे रण आपो अर्षन्ति सिन्धवः।यद् गोभिर्वासयिष्यसे॥13॥
ज्ञान - कर्म की अद्भुत संगति दोनों का युग्म परस्पर है ।
कैसे दोनों का साथ निभायें यह हम पर ही निर्भर है ॥13॥
8252
अस्य ते सख्ये वयमियक्षन्तस्त्वोतयः।इन्दो सखित्वमुश्मसि॥14॥
आत्म- ज्ञान जब हो जाता है परमेश्वर सखा- सदृश लगता है ।
सख्य - भाव से ही अपनायें इसमें अपना- पन पलता है ॥14॥
8253
आ पवस्व गविष्टये महे सोम नृचक्षसे । एन्द्रस्य जठरे विश॥15॥
हे प्रभु तन-मन पावन कर दो जठरानल बन कर आ जाओ ।
माना तुम सर्वत्र व्याप्त हो मेरे मन मन्दिर में आओ ॥15॥
8254
महॉ असि सोम ज्येष्ठ उग्राणामिन्द ओजिष्ठः।युध्वा सञ्छश्वज्जिगेथ॥16॥
हे परमेश्वर तुम महान हो तुम ही हो अद्भुत रचना - कार ।
अनन्त-शक्ति के तुम स्वामी हो अनुपम अतुलित निर्विकार॥16॥
8255
य उग्रेभ्यश्चिदोजीयाञ्छूरेभ्यश्चिच्छूरतरः। भूरिदाभ्यश्चिन्मंहीयान्॥17॥
तुम हो अजर अमर अविनाशी अतुलित - बल के स्वामी हो ।
तुम तेजवान तुम ओजवान और तुम ही अन्तर्यामी हो ॥17॥
8256
त्वं सोम सूर एषस्तोकस्य साता तनूनाम्।वृणीमहे सख्याय वृणीमहे युज्याय॥18॥
मित्र शब्द में स्नेह सना है परमेश्वर ही है सखा हमारा ।
वह ही अपने-पन से मिलता है एकमात्र है वही सहारा ॥18॥
8257
अग्न आयूंषि पवस आ सुवोर्जमिषं च नः।आरे बाधस्व दुच्छुनाम्॥19॥
दीर्घ - आयु हमको देना प्रभु यश - वैभव का देना दान ।
असुरों से तुम हमें बचाना दया - दृष्टि रखना भगवान ॥19॥
8258
अग्निरृषिः पवमानः पाञ्चजन्यःपुरोहितः।तमीमहे महागयम्॥20॥
सर्व - व्याप्त है वह परमात्मा शुध्द-बुध्द है मुक्त स्वभाव ।
कर्म - ज्ञान पथ पर हम जायें तुम्हीं समझना मेरा भाव ॥20॥
8259
अग्ने पवस्व स्वपा अस्मे वर्चःसुवीर्यम्।दधद्रयिं मयि पोषम्॥21॥
जो प्रभु - उपासना करते हैं प्रभु का अपना - पन पाते हैं ।
ऐश्वर्य धरा का उनको मिलता मोक्ष - मार्ग में वे जाते हैं ॥21॥
8260
पवमानो अति स्त्रिधोSभ्यर्षति सुष्टुतिम् । सूरो न विश्वदर्शतः॥22॥
जो पावन - मन परमेश्वर की उपासना प्रतिदिन करता है ।
प्रभु उसको सुख-सन्तति देता दया-दृष्टि उस पर रखता है॥22॥
8261
स मर्मृजान आयुभिः प्रयस्वान्प्रयसे हितः । इन्दुरत्यो विचक्षणः॥23॥
जब उपासना करता है साधक तब निज-स्वरूप का होता भान ।
कर्म- योग की राह सरल है साधक को मिलता सम्मान ॥23॥
8262
पवमान ऋतं बृहच्छुक्रं ज्योतिरजीजनत् । कृष्णा तमांसि जङ्घनत्॥24॥
अनन्त- शक्ति का वह स्वामी है अज्ञान-तमस को वही मिटाता ।
सत्पथ पर वह ले जाता है आलोक सत्य का वही दिखाता ॥24॥
8263
पवमानस्य जङ्घ्नतो हरेश्चन्द्रा असृक्षत । जीरा अजिरशोचिषः॥25॥
जो प्रभु का सुमिरन करते हैं प्रभु उन्हें बनाता ज्ञान- वान ।
प्रभु ब्राह्मी प्रज्ञा देते उनको मोह त्याग कर करते ध्यान॥25॥
8264
पवमानो रथीतमः शुभ्रेभिः शुभ्रशस्तमः। हरिश्चन्द्रो मरुद्गणः॥26॥
प्रभु आध्यात्मिक बल देते हैं सबको देते उज्ज्वल - मन ।
आत्म-ज्ञान का सुख देते हैं सत्पथ पर है सतत उन्नयन॥26॥
8265
पवमानो व्यश्नवद्रश्मिभिर्वाजसातमः। दधत्स्तोत्रे सुवीर्यम्॥27॥
हम सब कर्म - स्वतंत्र यहॉ हैं प्रभु - प्रदत्त है यह अधिकार ।
कर्मानुकूल सब फल पाते हैं सत्कर्म सदा पाता सत्कार ॥27॥
8266
प्र सुवान इन्दुरक्षा: पवित्रमत्यव्ययम् । पुनान इन्दुरिन्द्रमा॥28॥
यद्यपि प्रभु सबके मन में हैं पर ज्ञानी- मन में वह रहते हैं ।
आनन्द की वर्षा करते हैं अज्ञान तिमिर को वह हरते हैं ॥28॥
8267
एष सोमो अधि त्वचि गवां क्रीळत्यद्रिभिः। इन्द्रं मदाय जोहुवत्॥29॥
कर्म - योग में जब तक साधक करता रहता है प्राणायाम ।
यह मन की अद्भुत स्थिति है यह है उपासना - आयाम॥29॥
8268
यस्य ते द्युम्नयत्पयः पवमानाभृतं दिवः। तेन नो मृळ जीवसे॥30॥
प्रभु के वैभव के अमृत का जब तक साधक करता है पान ।
दीर्घ- आयु की अभिलाषा से प्रतिदिन पाता नवा- बिहान॥30॥
8239
पवस्व विश्वचर्षणेSभि विश्वानि काव्या । सखा सखिभ्यः ईड्यः॥1॥
हे परम - मित्र हे परमेश्वर तुम ही तो नित - नूतन बिहान हो ।
कवियों का शुभ - भाव हमें दो कवित्व-शक्ति के तुम निधान हो ॥1॥
8240
ताभ्यां विश्वस्य राजसि ये पवमान धामनी ।प्रतीची सोम तस्थतुः॥2॥
ज्ञान - मार्ग के माध्यम से तुम जगती को आलोकित करते ।
पुरा - विधा को रेखाञ्कित कर सबको पावन तुम्हीं बनाते ॥2॥
8241
परि धामानि यानि ते त्वं सोमासि विश्वतः।पवमान ऋतुभिः कवे॥3॥
परिवर्तन है प्रकृति प्रकृति की आना रहना और फिर जाना ।
काल - चक्र चलता रहता है कर्मानुसार फल मिलता माना ॥3॥
8242
पवस्व जनयन्निषोSभि विश्वानि वार्या। सखा सखिभ्य ऊतये॥4॥
जो परमात्म - परायण होते प्रभु सुख - मय जीवन देते हैं ।
विविध - भॉति के वैभव देते पथ का कण्टक हर लेते हैं ॥4॥
8243
तव शुक्रासो अर्चयो दिवस्पृष्ठे वि तन्वते। पवित्रं सोम धामभिः॥5॥
यह धरती देदीप्य - मान है प्रभु प्रकाश से सभी प्रकाशित ।
अन्न - धान देती वसुन्धरा पावन - पवन परस्पर पुलकित ॥5॥
8244
तवेमे सप्त सिन्धवः प्रशिषं सोम सिस्त्रते । तुभ्यं धावन्ति धेनवः॥6॥
सप्त - सिन्धु अनुसरण तुम्हारा अविरल ऊर्मि धार से चलते ।
कर्म - निमग्न सभी प्राणी हैं गिरते पडते और संभलते ॥6॥
8245
प्र सोम याहि धारया सुत इन्द्राय मत्सरः। दधानो अक्षिति श्रवः॥7॥
आनन्द - वृष्टि से नहलाओ प्रभु तुम हो खुद आनन्द - स्वरूप ।
कण - कण में तुम बसे हुए हो तुम अक्षय - यश हो अनूप ॥7॥
8246
समु त्वा धीभिरस्वरन्हिन्वतीःसप्त जामयः।विप्रमाजा विवस्वतः॥8॥
प्रभु - उपासना जो करते हैं परमेश्वर से होता साक्षात्कार ।
निर्विकल्प तक वे जाते हैं फिर करते हैं सबका उपकार ॥8॥
8247
मृजन्ति त्वा समग्रुवोSव्ये जीरावधि ष्वणि। रेभो यदज्यसे वने॥9॥
कर्म - योग का पथ उत्तम है आओ सब इसी मार्ग पर आओ ।
आत्म -ज्ञान खुद पा जाओगे सुख - सान्निध्य सभी पाओ ॥9॥
8248
पवमानस्य ते कवे वाजिन्त्सर्गा असृक्षत। अर्वन्तो न श्रवस्यवः॥10॥
हे पावन पूजनीय परमेश्वर तुम ही रखते हो सबका ध्यान ।
वरद - हस्त हम पर भी रखना दीन - बन्धु हे दयानिधान॥10॥
8249
अच्छा कोशं मधुश्चुतमसृगं वारे अव्यये । अवावशन्त धीतयः॥11॥
तेरी रचना अति - शय सुन्दर कितनी सुन्दर है वसुन्धरा ।
पर मानव सबसे सुन्दर है उससे सुन्दर उसकी ऋतम्भरा॥11॥
8250
अच्छा समुद्रमिन्दवोSस्तं गावो न धेनवः।अग्मन्नृतस्य योनिमा॥12॥
वेद - ऋचायें शब्दों द्वारा पावन - प्रभु को अविरल भजती हैं ।
शब्द- ब्रह्म है वह परमेश्वर श्रुतियॉ भी ऐसा ही कहती हैं ॥12॥
8251
प्र ण इन्दो महे रण आपो अर्षन्ति सिन्धवः।यद् गोभिर्वासयिष्यसे॥13॥
ज्ञान - कर्म की अद्भुत संगति दोनों का युग्म परस्पर है ।
कैसे दोनों का साथ निभायें यह हम पर ही निर्भर है ॥13॥
8252
अस्य ते सख्ये वयमियक्षन्तस्त्वोतयः।इन्दो सखित्वमुश्मसि॥14॥
आत्म- ज्ञान जब हो जाता है परमेश्वर सखा- सदृश लगता है ।
सख्य - भाव से ही अपनायें इसमें अपना- पन पलता है ॥14॥
8253
आ पवस्व गविष्टये महे सोम नृचक्षसे । एन्द्रस्य जठरे विश॥15॥
हे प्रभु तन-मन पावन कर दो जठरानल बन कर आ जाओ ।
माना तुम सर्वत्र व्याप्त हो मेरे मन मन्दिर में आओ ॥15॥
8254
महॉ असि सोम ज्येष्ठ उग्राणामिन्द ओजिष्ठः।युध्वा सञ्छश्वज्जिगेथ॥16॥
हे परमेश्वर तुम महान हो तुम ही हो अद्भुत रचना - कार ।
अनन्त-शक्ति के तुम स्वामी हो अनुपम अतुलित निर्विकार॥16॥
8255
य उग्रेभ्यश्चिदोजीयाञ्छूरेभ्यश्चिच्छूरतरः। भूरिदाभ्यश्चिन्मंहीयान्॥17॥
तुम हो अजर अमर अविनाशी अतुलित - बल के स्वामी हो ।
तुम तेजवान तुम ओजवान और तुम ही अन्तर्यामी हो ॥17॥
8256
त्वं सोम सूर एषस्तोकस्य साता तनूनाम्।वृणीमहे सख्याय वृणीमहे युज्याय॥18॥
मित्र शब्द में स्नेह सना है परमेश्वर ही है सखा हमारा ।
वह ही अपने-पन से मिलता है एकमात्र है वही सहारा ॥18॥
8257
अग्न आयूंषि पवस आ सुवोर्जमिषं च नः।आरे बाधस्व दुच्छुनाम्॥19॥
दीर्घ - आयु हमको देना प्रभु यश - वैभव का देना दान ।
असुरों से तुम हमें बचाना दया - दृष्टि रखना भगवान ॥19॥
8258
अग्निरृषिः पवमानः पाञ्चजन्यःपुरोहितः।तमीमहे महागयम्॥20॥
सर्व - व्याप्त है वह परमात्मा शुध्द-बुध्द है मुक्त स्वभाव ।
कर्म - ज्ञान पथ पर हम जायें तुम्हीं समझना मेरा भाव ॥20॥
8259
अग्ने पवस्व स्वपा अस्मे वर्चःसुवीर्यम्।दधद्रयिं मयि पोषम्॥21॥
जो प्रभु - उपासना करते हैं प्रभु का अपना - पन पाते हैं ।
ऐश्वर्य धरा का उनको मिलता मोक्ष - मार्ग में वे जाते हैं ॥21॥
8260
पवमानो अति स्त्रिधोSभ्यर्षति सुष्टुतिम् । सूरो न विश्वदर्शतः॥22॥
जो पावन - मन परमेश्वर की उपासना प्रतिदिन करता है ।
प्रभु उसको सुख-सन्तति देता दया-दृष्टि उस पर रखता है॥22॥
8261
स मर्मृजान आयुभिः प्रयस्वान्प्रयसे हितः । इन्दुरत्यो विचक्षणः॥23॥
जब उपासना करता है साधक तब निज-स्वरूप का होता भान ।
कर्म- योग की राह सरल है साधक को मिलता सम्मान ॥23॥
8262
पवमान ऋतं बृहच्छुक्रं ज्योतिरजीजनत् । कृष्णा तमांसि जङ्घनत्॥24॥
अनन्त- शक्ति का वह स्वामी है अज्ञान-तमस को वही मिटाता ।
सत्पथ पर वह ले जाता है आलोक सत्य का वही दिखाता ॥24॥
8263
पवमानस्य जङ्घ्नतो हरेश्चन्द्रा असृक्षत । जीरा अजिरशोचिषः॥25॥
जो प्रभु का सुमिरन करते हैं प्रभु उन्हें बनाता ज्ञान- वान ।
प्रभु ब्राह्मी प्रज्ञा देते उनको मोह त्याग कर करते ध्यान॥25॥
8264
पवमानो रथीतमः शुभ्रेभिः शुभ्रशस्तमः। हरिश्चन्द्रो मरुद्गणः॥26॥
प्रभु आध्यात्मिक बल देते हैं सबको देते उज्ज्वल - मन ।
आत्म-ज्ञान का सुख देते हैं सत्पथ पर है सतत उन्नयन॥26॥
8265
पवमानो व्यश्नवद्रश्मिभिर्वाजसातमः। दधत्स्तोत्रे सुवीर्यम्॥27॥
हम सब कर्म - स्वतंत्र यहॉ हैं प्रभु - प्रदत्त है यह अधिकार ।
कर्मानुकूल सब फल पाते हैं सत्कर्म सदा पाता सत्कार ॥27॥
8266
प्र सुवान इन्दुरक्षा: पवित्रमत्यव्ययम् । पुनान इन्दुरिन्द्रमा॥28॥
यद्यपि प्रभु सबके मन में हैं पर ज्ञानी- मन में वह रहते हैं ।
आनन्द की वर्षा करते हैं अज्ञान तिमिर को वह हरते हैं ॥28॥
8267
एष सोमो अधि त्वचि गवां क्रीळत्यद्रिभिः। इन्द्रं मदाय जोहुवत्॥29॥
कर्म - योग में जब तक साधक करता रहता है प्राणायाम ।
यह मन की अद्भुत स्थिति है यह है उपासना - आयाम॥29॥
8268
यस्य ते द्युम्नयत्पयः पवमानाभृतं दिवः। तेन नो मृळ जीवसे॥30॥
प्रभु के वैभव के अमृत का जब तक साधक करता है पान ।
दीर्घ- आयु की अभिलाषा से प्रतिदिन पाता नवा- बिहान॥30॥