[ऋषि- कवि भार्गव । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती ।]
8372
धर्ता दिवः पवते कृत्व्यो रसो दक्षो देवानामनुमाद्यो नृभिः ।
हरिःसृजानो अत्यो न सत्वभिर्वृथा पाजांसि कृणुते नदीष्वा॥1॥
हम जिसकी उपासना करते हैं वह प्रभु है आनन्द - स्वरूप ।
वह सज्जन को सुख देता है सर्व - व्याप्त है वह अनूप ॥1॥
8373
शूरो न धत्त आयुधा गभस्त्योः स्व्रः सिषासन्रथिरो गविष्टिषु ।
इन्द्रस्य शुष्ममीरयन्नपस्युभिरिन्दुर्हिन्वानो अज्यते मनीषिभिः॥2॥
परमेश्वर से प्रेरित हो कर सत् - जन करते उसका ध्यान ।
सुख - स्वरूप है वह परमात्मा कर्मों का है यह अभियान ॥2॥
8374
इन्द्रस्य सोम पवमान ऊर्मिणा तविष्यमाणो जठरेष्वा विश ।
प्र णः पिन्व विद्युदभ्रेव रोदसी धिया न वाजॉ उप मासि शश्वतः॥3॥
परमेश्वर हमसे कहते रहते हैं कर्म करो और पाओ फल ।
सत्कर्मों का फल मीठा है आज नहीं तो निश्चय कल ॥3॥
8375
विश्वस्य राजा पवते स्वर्दृश ऋतस्य धीतिमृषिषाळवीवशत् ।
यः सूर्यस्यासिरेण मृज्यते पिता मतीनामसमष्टकाव्यः ॥4॥
अखिल विश्व का वह स्वामी है सच्चा मनुज उसे है प्यारा ।
सज्जन को वह सुख देता है एक-मात्र है वही सहारा ॥4॥
8376
वृषेव यूथा परि कोशमर्षस्यपामुपस्थे वृषभः कनिक्रदत् ।
स इन्द्राय पवसे मत्सरिन्तमो यथा जेषाम समिथे त्वोतयः॥5॥
चरैवेति के पथ पर हम हैं तुम हमको सन्मार्ग बताना ।
जीवन- रण में हार न जायें हमको विजयी तुम्हीं बनाना॥5॥
8372
धर्ता दिवः पवते कृत्व्यो रसो दक्षो देवानामनुमाद्यो नृभिः ।
हरिःसृजानो अत्यो न सत्वभिर्वृथा पाजांसि कृणुते नदीष्वा॥1॥
हम जिसकी उपासना करते हैं वह प्रभु है आनन्द - स्वरूप ।
वह सज्जन को सुख देता है सर्व - व्याप्त है वह अनूप ॥1॥
8373
शूरो न धत्त आयुधा गभस्त्योः स्व्रः सिषासन्रथिरो गविष्टिषु ।
इन्द्रस्य शुष्ममीरयन्नपस्युभिरिन्दुर्हिन्वानो अज्यते मनीषिभिः॥2॥
परमेश्वर से प्रेरित हो कर सत् - जन करते उसका ध्यान ।
सुख - स्वरूप है वह परमात्मा कर्मों का है यह अभियान ॥2॥
8374
इन्द्रस्य सोम पवमान ऊर्मिणा तविष्यमाणो जठरेष्वा विश ।
प्र णः पिन्व विद्युदभ्रेव रोदसी धिया न वाजॉ उप मासि शश्वतः॥3॥
परमेश्वर हमसे कहते रहते हैं कर्म करो और पाओ फल ।
सत्कर्मों का फल मीठा है आज नहीं तो निश्चय कल ॥3॥
8375
विश्वस्य राजा पवते स्वर्दृश ऋतस्य धीतिमृषिषाळवीवशत् ।
यः सूर्यस्यासिरेण मृज्यते पिता मतीनामसमष्टकाव्यः ॥4॥
अखिल विश्व का वह स्वामी है सच्चा मनुज उसे है प्यारा ।
सज्जन को वह सुख देता है एक-मात्र है वही सहारा ॥4॥
8376
वृषेव यूथा परि कोशमर्षस्यपामुपस्थे वृषभः कनिक्रदत् ।
स इन्द्राय पवसे मत्सरिन्तमो यथा जेषाम समिथे त्वोतयः॥5॥
चरैवेति के पथ पर हम हैं तुम हमको सन्मार्ग बताना ।
जीवन- रण में हार न जायें हमको विजयी तुम्हीं बनाना॥5॥
No comments:
Post a Comment