Sunday, 20 April 2014

सूक्त - 76

[ऋषि- कवि भार्गव । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती ।]

8372
धर्ता  दिवः पवते  कृत्व्यो  रसो  दक्षो  देवानामनुमाद्यो  नृभिः ।
हरिःसृजानो अत्यो न सत्वभिर्वृथा पाजांसि कृणुते नदीष्वा॥1॥

हम  जिसकी उपासना  करते  हैं  वह  प्रभु  है आनन्द - स्वरूप ।
वह  सज्जन  को  सुख  देता  है  सर्व - व्याप्त  है  वह  अनूप ॥1॥

8373
शूरो  न  धत्त आयुधा  गभस्त्योः स्व्रः सिषासन्रथिरो  गविष्टिषु ।
इन्द्रस्य शुष्ममीरयन्नपस्युभिरिन्दुर्हिन्वानो अज्यते मनीषिभिः॥2॥

परमेश्वर  से  प्रेरित  हो  कर  सत् - जन  करते  उसका  ध्यान ।
सुख - स्वरूप  है  वह  परमात्मा कर्मों का है यह अभियान ॥2॥

8374
इन्द्रस्य सोम पवमान ऊर्मिणा  तविष्यमाणो  जठरेष्वा  विश ।
प्र णः पिन्व विद्युदभ्रेव रोदसी धिया न वाजॉ उप मासि शश्वतः॥3॥

परमेश्वर  हमसे  कहते  रहते   हैं  कर्म  करो  और  पाओ  फल ।
सत्कर्मों  का  फल  मीठा  है आज  नहीं  तो  निश्चय  कल ॥3॥ 

8375
विश्वस्य  राजा  पवते स्वर्दृश ऋतस्य  धीतिमृषिषाळवीवशत् ।
यः  सूर्यस्यासिरेण  मृज्यते  पिता  मतीनामसमष्टकाव्यः ॥4॥

अखिल विश्व का वह स्वामी  है  सच्चा  मनुज उसे  है  प्यारा ।
सज्जन  को  वह  सुख  देता  है  एक-मात्र  है  वही सहारा ॥4॥

8376
वृषेव  यूथा  परि  कोशमर्षस्यपामुपस्थे  वृषभः  कनिक्रदत् ।
स इन्द्राय पवसे मत्सरिन्तमो यथा जेषाम समिथे त्वोतयः॥5॥

चरैवेति  के  पथ  पर  हम  हैं  तुम  हमको  सन्मार्ग बताना ।
जीवन- रण में हार न जायें हमको विजयी तुम्हीं बनाना॥5॥


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