Saturday, 26 April 2014

सूक्त - 70

[ऋषि- रेणु वैश्वामित्र । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती- त्रिष्टोप् ।]

8321
त्रिरस्मै  सप्त  धेनवो  दुदुह्रे  सत्यामाशिरं  पूर्व्ये  व्योमनि ।
चत्वार्यन्या भुवनानि निर्णिजे चारूणि चक्रे यदृतैरवर्धत्॥1॥

पञ्च - तन्मात्रा पञ्च- भूत से प्रकृति- पावनी आकृति पाई ।
वसुन्धरा हो गई सुगंधित सुरभित बयार बगिया बगराई॥1॥

8322
स भिक्षमाणो अमृतस्य चारुण उभे द्यावा काव्येना वि शश्रथे ।
तेजिष्ठा अपो मंहना परि व्यत यदी देवस्य श्रवसा सदा विदुः॥2॥

प्रकृति  पावनी  अमृत-सम  है  वसुन्धरा  हो  गई  सुसज्जित ।
जल और अन्न फूल और फल से पृथ्वी-माता बनी प्रतिष्ठित॥2॥

8323
ते  अस्य  सन्तु  केतवोSमृत्यवोSदाभ्यासो  जनुषी  उभे  अनु ।
येभिर्नृम्णा च देव्या च पुनत आदिद्राजानं मनना अगृभ्णत॥3॥

कर्म - प्रधान  विश्व  की  रचना  कर्मानुसार  मिलता  है  फल ।
सत्कर्म  करोगे  सुख  पाओगे आज  नहीं तो निश्चय कल ॥3॥ 

8324
स मृज्यमानो दशभिः सुकर्मभिः प्र मध्यमासु मातृसु प्रमे सचा ।
व्रतानि पानो अमृतस्य चारुण उभे नृचक्षा अनु पश्यते विशौ॥4॥

कण-कण  में  बसता  है  वह  प्रभु  कर्मों  का  करता अवलोकन ।
चलती  नहीं  यहॉ चतुराई  नियमानुसार  होता  मूल्याञ्कन॥4॥

8325
स मर्मृजान इन्द्रियाय धायस ओभे अन्ता रोदसी हर्षते हितः ।
वृषा शुष्मेण  बाधते  वि दुर्मतीरादेदिशानः शर्यहेव शुरुधः ॥5॥

पूर्ण- ब्रह्म  है  वह  परमात्मा  सच्चिदानन्द  बस यही नाम है ।
दुष्ट- दलन  वह  ही  करता  है  सज्जन- सेवा यही काम है ॥5॥

8326
स  मातरा  न  ददृशान उस्त्रियो नानददेति मरुताविव स्वनः ।
जानन्नृतं  प्रथमं यत्स्वर्णरं प्रशस्तये कमवृणीत सुक्रतः॥6॥

ब्रह्मामृत  की  वर्षा  करता  मनुज  सभी  कर  सकते  पान ।
बस  कर्मों  का हिसाब दे दे सत्कर्मों का यह अभियान ॥6॥

8327
रुवति भीमो वृषभस्तविष्यया श्रृङ्गे शिशानो हरिणी विचक्षणः।
आ योनिं सोमःसुकृतं नि षीदति गव्ययी त्वग्भवति निर्णिगव्ययी॥7॥

प्राणी- बल और प्रकृति- पावनी दोनों का ही वह स्वामी है ।
दोनों में रँग वही भरता है सर्जक भी वह अन्तर्यामी है ॥7॥

8328
शुचिः पुनानस्तन्वमरेपसमव्ये  हरिर्न्यधाविष्ट  सानवि ।
जुष्टो मित्राय वरुणाय वायवे त्रिधातु मधु क्रियते सुकर्मभिः॥8॥

तन - मन  पुनर्नवा   बन जाता जब हम करते हैं अनुष्ठान ।
साधक और निकट आता है और सरल हो जाता ध्यान॥8॥

8329
पवस्व सोम देववीतये वृषेन्द्रस्य हार्दि सोमधानमा विश ।
पुरा नो बाधाद् दुरिताति पारय क्षेत्रविध्दि दिश आहा विपृच्छते॥9॥

जो पावन मन से पूजा करते सत्पथ  पर  ही  जो चलते हैं ।
हट जाता है राह का कण्टक प्रभु उनकी विपदा हरते हैं ॥9॥

8330
हितो न सप्तरभि वाजमर्षेन्द्रस्येन्दो जठरमा पवस्व ।
नावा न सिन्धुमति पर्षि विद्वाञ्छूरो न युध्यन्नव नो निदः स्पः॥10॥

जैसे नाविक पार लगाते  उस  पार  नदी के पहुँचाते हैं ।
वैसे ही प्रभु सद्गति देते भव-सागर पार लागाते हैं ॥10॥  

2 comments:

  1. सुन्दर कथ्य...

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  2. तन - मन पुनर्नवा बन जाता जब हम करते हैं अनुष्ठान ।
    साधक और निकट आता है और सरल हो जाता ध्यान॥8॥
    पुनः पुनः उसकी ओर लौटना है..

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