[ऋषि- रेणु वैश्वामित्र । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती- त्रिष्टोप् ।]
8321
त्रिरस्मै सप्त धेनवो दुदुह्रे सत्यामाशिरं पूर्व्ये व्योमनि ।
चत्वार्यन्या भुवनानि निर्णिजे चारूणि चक्रे यदृतैरवर्धत्॥1॥
पञ्च - तन्मात्रा पञ्च- भूत से प्रकृति- पावनी आकृति पाई ।
वसुन्धरा हो गई सुगंधित सुरभित बयार बगिया बगराई॥1॥
8322
स भिक्षमाणो अमृतस्य चारुण उभे द्यावा काव्येना वि शश्रथे ।
तेजिष्ठा अपो मंहना परि व्यत यदी देवस्य श्रवसा सदा विदुः॥2॥
प्रकृति पावनी अमृत-सम है वसुन्धरा हो गई सुसज्जित ।
जल और अन्न फूल और फल से पृथ्वी-माता बनी प्रतिष्ठित॥2॥
8323
ते अस्य सन्तु केतवोSमृत्यवोSदाभ्यासो जनुषी उभे अनु ।
येभिर्नृम्णा च देव्या च पुनत आदिद्राजानं मनना अगृभ्णत॥3॥
कर्म - प्रधान विश्व की रचना कर्मानुसार मिलता है फल ।
सत्कर्म करोगे सुख पाओगे आज नहीं तो निश्चय कल ॥3॥
8324
स मृज्यमानो दशभिः सुकर्मभिः प्र मध्यमासु मातृसु प्रमे सचा ।
व्रतानि पानो अमृतस्य चारुण उभे नृचक्षा अनु पश्यते विशौ॥4॥
कण-कण में बसता है वह प्रभु कर्मों का करता अवलोकन ।
चलती नहीं यहॉ चतुराई नियमानुसार होता मूल्याञ्कन॥4॥
8325
स मर्मृजान इन्द्रियाय धायस ओभे अन्ता रोदसी हर्षते हितः ।
वृषा शुष्मेण बाधते वि दुर्मतीरादेदिशानः शर्यहेव शुरुधः ॥5॥
पूर्ण- ब्रह्म है वह परमात्मा सच्चिदानन्द बस यही नाम है ।
दुष्ट- दलन वह ही करता है सज्जन- सेवा यही काम है ॥5॥
8326
स मातरा न ददृशान उस्त्रियो नानददेति मरुताविव स्वनः ।
जानन्नृतं प्रथमं यत्स्वर्णरं प्रशस्तये कमवृणीत सुक्रतः॥6॥
ब्रह्मामृत की वर्षा करता मनुज सभी कर सकते पान ।
बस कर्मों का हिसाब दे दे सत्कर्मों का यह अभियान ॥6॥
8327
रुवति भीमो वृषभस्तविष्यया श्रृङ्गे शिशानो हरिणी विचक्षणः।
आ योनिं सोमःसुकृतं नि षीदति गव्ययी त्वग्भवति निर्णिगव्ययी॥7॥
प्राणी- बल और प्रकृति- पावनी दोनों का ही वह स्वामी है ।
दोनों में रँग वही भरता है सर्जक भी वह अन्तर्यामी है ॥7॥
8328
शुचिः पुनानस्तन्वमरेपसमव्ये हरिर्न्यधाविष्ट सानवि ।
जुष्टो मित्राय वरुणाय वायवे त्रिधातु मधु क्रियते सुकर्मभिः॥8॥
तन - मन पुनर्नवा बन जाता जब हम करते हैं अनुष्ठान ।
साधक और निकट आता है और सरल हो जाता ध्यान॥8॥
8329
पवस्व सोम देववीतये वृषेन्द्रस्य हार्दि सोमधानमा विश ।
पुरा नो बाधाद् दुरिताति पारय क्षेत्रविध्दि दिश आहा विपृच्छते॥9॥
जो पावन मन से पूजा करते सत्पथ पर ही जो चलते हैं ।
हट जाता है राह का कण्टक प्रभु उनकी विपदा हरते हैं ॥9॥
8330
हितो न सप्तरभि वाजमर्षेन्द्रस्येन्दो जठरमा पवस्व ।
नावा न सिन्धुमति पर्षि विद्वाञ्छूरो न युध्यन्नव नो निदः स्पः॥10॥
जैसे नाविक पार लगाते उस पार नदी के पहुँचाते हैं ।
वैसे ही प्रभु सद्गति देते भव-सागर पार लागाते हैं ॥10॥
8321
त्रिरस्मै सप्त धेनवो दुदुह्रे सत्यामाशिरं पूर्व्ये व्योमनि ।
चत्वार्यन्या भुवनानि निर्णिजे चारूणि चक्रे यदृतैरवर्धत्॥1॥
पञ्च - तन्मात्रा पञ्च- भूत से प्रकृति- पावनी आकृति पाई ।
वसुन्धरा हो गई सुगंधित सुरभित बयार बगिया बगराई॥1॥
8322
स भिक्षमाणो अमृतस्य चारुण उभे द्यावा काव्येना वि शश्रथे ।
तेजिष्ठा अपो मंहना परि व्यत यदी देवस्य श्रवसा सदा विदुः॥2॥
प्रकृति पावनी अमृत-सम है वसुन्धरा हो गई सुसज्जित ।
जल और अन्न फूल और फल से पृथ्वी-माता बनी प्रतिष्ठित॥2॥
8323
ते अस्य सन्तु केतवोSमृत्यवोSदाभ्यासो जनुषी उभे अनु ।
येभिर्नृम्णा च देव्या च पुनत आदिद्राजानं मनना अगृभ्णत॥3॥
कर्म - प्रधान विश्व की रचना कर्मानुसार मिलता है फल ।
सत्कर्म करोगे सुख पाओगे आज नहीं तो निश्चय कल ॥3॥
8324
स मृज्यमानो दशभिः सुकर्मभिः प्र मध्यमासु मातृसु प्रमे सचा ।
व्रतानि पानो अमृतस्य चारुण उभे नृचक्षा अनु पश्यते विशौ॥4॥
कण-कण में बसता है वह प्रभु कर्मों का करता अवलोकन ।
चलती नहीं यहॉ चतुराई नियमानुसार होता मूल्याञ्कन॥4॥
8325
स मर्मृजान इन्द्रियाय धायस ओभे अन्ता रोदसी हर्षते हितः ।
वृषा शुष्मेण बाधते वि दुर्मतीरादेदिशानः शर्यहेव शुरुधः ॥5॥
पूर्ण- ब्रह्म है वह परमात्मा सच्चिदानन्द बस यही नाम है ।
दुष्ट- दलन वह ही करता है सज्जन- सेवा यही काम है ॥5॥
8326
स मातरा न ददृशान उस्त्रियो नानददेति मरुताविव स्वनः ।
जानन्नृतं प्रथमं यत्स्वर्णरं प्रशस्तये कमवृणीत सुक्रतः॥6॥
ब्रह्मामृत की वर्षा करता मनुज सभी कर सकते पान ।
बस कर्मों का हिसाब दे दे सत्कर्मों का यह अभियान ॥6॥
8327
रुवति भीमो वृषभस्तविष्यया श्रृङ्गे शिशानो हरिणी विचक्षणः।
आ योनिं सोमःसुकृतं नि षीदति गव्ययी त्वग्भवति निर्णिगव्ययी॥7॥
प्राणी- बल और प्रकृति- पावनी दोनों का ही वह स्वामी है ।
दोनों में रँग वही भरता है सर्जक भी वह अन्तर्यामी है ॥7॥
8328
शुचिः पुनानस्तन्वमरेपसमव्ये हरिर्न्यधाविष्ट सानवि ।
जुष्टो मित्राय वरुणाय वायवे त्रिधातु मधु क्रियते सुकर्मभिः॥8॥
तन - मन पुनर्नवा बन जाता जब हम करते हैं अनुष्ठान ।
साधक और निकट आता है और सरल हो जाता ध्यान॥8॥
8329
पवस्व सोम देववीतये वृषेन्द्रस्य हार्दि सोमधानमा विश ।
पुरा नो बाधाद् दुरिताति पारय क्षेत्रविध्दि दिश आहा विपृच्छते॥9॥
जो पावन मन से पूजा करते सत्पथ पर ही जो चलते हैं ।
हट जाता है राह का कण्टक प्रभु उनकी विपदा हरते हैं ॥9॥
8330
हितो न सप्तरभि वाजमर्षेन्द्रस्येन्दो जठरमा पवस्व ।
नावा न सिन्धुमति पर्षि विद्वाञ्छूरो न युध्यन्नव नो निदः स्पः॥10॥
जैसे नाविक पार लगाते उस पार नदी के पहुँचाते हैं ।
वैसे ही प्रभु सद्गति देते भव-सागर पार लागाते हैं ॥10॥
सुन्दर कथ्य...
ReplyDeleteतन - मन पुनर्नवा बन जाता जब हम करते हैं अनुष्ठान ।
ReplyDeleteसाधक और निकट आता है और सरल हो जाता ध्यान॥8॥
पुनः पुनः उसकी ओर लौटना है..