Saturday, 12 April 2014

सूक्त - 85

[ऋषि- वेन भार्गव । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती - त्रिष्टुप् ।]

8417
इन्द्राय  सोम  सुषुतः  परि  स्त्रवाSपामीवा  भवतु  रक्षसा  सह ।
मा ते रसस्य मत्सत द्वयाविनो द्रविणस्वन्त इह सन्त्विन्दवः॥1॥

सच  पर  हो  विश्वास  हमारा  हम  असत्य  का  त्याग  करें ।
सत्यासत्य  विवेक  जरूरी  निज-मन  में  यह  भाव  भरें॥1॥

8418
अस्मान्त्समर्ये पवमान चोदय दक्षो देवानामसि हि प्रियो मदः ।
जहि शत्रूँरभ्या भन्दनायतः पिबेन्द्र सोममव नो मृधो जहि ॥2॥

दुष्ट- दमन अति आवश्यक  है  हर  मनुज  जिए  निर्भय होकर ।
अपने अभीष्ट का ध्यान धरे  वह  करे  भरोसा  परमेश्वर  पर॥2॥

8419
अदब्ध  इन्दो  पवसे मदिन्तम आत्मेन्द्रस्य भवसि धासिरुत्तमः ।
अभि स्वरन्ति बहवो मनीषिणो राजानमस्य भुवनस्य निंसते॥3॥

सोम  नाम  है  परमेश्वर  का  सर्व -व्याप्त  है  वह  परमेश्वर ।
परमेश्वर आनन्द - रूप  है  प्रेरित  करने  को  है  तत्पर ॥3॥

8420
सहस्त्रणीथः  शतधारो अद्भुत  इन्द्रायेन्दुः  पवते  काम्यं मधु ।
जयन्क्षेत्रमभ्यर्षा जयन्नप उरुं नो गातुं कृणु सोम मीढ्वः॥4॥

प्रभु  अनन्त आनन्द- श्रोत  है अद्भुत - वैभव  का  स्वामी  है ।
आनन्द  की  झडी  लगा देता  है  परमेश्वर अन्तर्यामी  है ॥4॥

8421
कनिक्रदत्कलशे गोभिरज्यसे व्य1व्ययं समया वारमर्षसि ।
मर्मृज्यमानो अत्यो न सानसिरिन्द्रस्य सोम जठरे समक्षरः॥5॥

आत्म-ज्ञान  परमात्म-प्राप्ति  है  वह  अति निकट वही है दूर ।
वह  सज्जन  के अति  समीप  है और  दुष्ट  से है अति दूर ॥5॥

8422
स्वादुः पवस्व दिव्याय जन्मने स्वादुरिन्द्राय सुहवीतुनाम्ने ।
स्वादुर्मित्राय वरुणाय वायवे बृहस्पतये मधुमॉ अदाभ्यः ॥6॥

सभी  दोष  उनके  मिट  जाते  जो  प्रभु  का  करते  हैं ध्यान ।
वह  परमेश्वर  सबके  प्रिय  हैं  सब हैं उसके लिए समान ॥6॥

8423
अत्यं मृजन्ति कलशे दश क्षिपः प्र विप्राणां मतयो वाच ईरते ।
पवमाना अभ्यर्षन्ति सुष्टुतिमेन्द्रं विशन्ति मदिरास इन्दवः॥7॥

उज्ञोगी  प्रभु  को  पाता  है  वह  धीर - वीर  बन  जाता  है ।
सद् - विद्या पथ पर जाकर वह ब्रह्म-ज्ञान को  पाता  है ॥7॥

8424
पवमानो  अभ्यर्षा  सुवीर्यमुर्वीं  गव्यूतिं  महि  शर्म  सप्रथः ।
माकिर्नो अस्य परिषूतिरीशतेन्दो जयेम त्वया धनंधनम्॥8॥

जो  ईर्ष्या - द्वेष  नहीं  करते  हैं  वे  ही  यश - वैभव  पाते  हैं ।
निज  विवेक  से  जो चलते हैं प्रभु उसको ही अपनाते हैं ॥8॥

8425
अधि द्यामस्थाद्वृषभो विचक्षणोSरूरुचद्वि दिवो रोचना कविः।
राजा  पवित्रमत्येति  रोरुवद्दिवः पीयूषं  दुहते नृचक्षसः ॥9॥

वह  आलोक - रूप  परमात्मा अक्षय  अमृत  का  है  धाम ।
सुख-साधन  वह  ही  देता  है  सद्-गति दे देता है नाम ॥9॥

8426
दिवो नाके मधुजिह्वा असश्चतो वेना दुहन्त्युक्षणं गिरिष्ठाम् ।
अप्सु द्रप्सं वावृधानं समुद्र आ सिन्धोरूर्मा मधुमन्तं पवित्र आ॥10॥

नित्य-मुक्ति के अभिलाषी-जन धरते हैं प्रभु का ही ध्यान ।
प्रभु उनके दोष मिटा देते हैं वह हैं आखिर सखा-समान॥10॥

8427
नाके   सुपर्णमुपपप्तिवांसं   गिरो   वेनानामकृपन्त   पूर्वीः ।
शिशुं रिहन्ति मतयः पनिप्नतं हिरण्ययं शकुनं क्षामणि स्थाम्॥11॥

सर्व-शक्ति से  युक्त  शकुन  है  सभी  गुणों  का  वह  निधान  है ।
ऋषियों  की  वाणी  के  द्वारा  मनुज  हृदय में विद्यमान है ॥11॥

8428
ऊर्ध्वो गन्धर्वो अधि नाके अस्थाद्विश्वा रूपा प्रतिचक्षाणो अस्य ।
भानुः शुक्रेण शोचिषा व्यद्यौत्प्रारूरुचद्रोदसी मातरा शुचिः॥12॥

प्रभु  प्रकाश  से  सभी  प्रकाशित  वह  सर्वज्ञ  समर्थ  वही  है ।
कण-कण में वह बसा हुआ है चर में अचर में कहॉ नहीं है ॥12॥     


1 comment:

  1. प्रभु अनन्त आनन्द- श्रोत है अद्भुत - वैभव का स्वामी है ।
    आनन्द की झडी लगा देता है परमेश्वर अन्तर्यामी है ॥4॥
    ....शाश्वत सत्य...असीम शान्ति मिलती है यहाँ आ कर...आभार

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