[ऋषि- वेन भार्गव । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती - त्रिष्टुप् ।]
8417
इन्द्राय सोम सुषुतः परि स्त्रवाSपामीवा भवतु रक्षसा सह ।
मा ते रसस्य मत्सत द्वयाविनो द्रविणस्वन्त इह सन्त्विन्दवः॥1॥
सच पर हो विश्वास हमारा हम असत्य का त्याग करें ।
सत्यासत्य विवेक जरूरी निज-मन में यह भाव भरें॥1॥
8418
अस्मान्त्समर्ये पवमान चोदय दक्षो देवानामसि हि प्रियो मदः ।
जहि शत्रूँरभ्या भन्दनायतः पिबेन्द्र सोममव नो मृधो जहि ॥2॥
दुष्ट- दमन अति आवश्यक है हर मनुज जिए निर्भय होकर ।
अपने अभीष्ट का ध्यान धरे वह करे भरोसा परमेश्वर पर॥2॥
8419
अदब्ध इन्दो पवसे मदिन्तम आत्मेन्द्रस्य भवसि धासिरुत्तमः ।
अभि स्वरन्ति बहवो मनीषिणो राजानमस्य भुवनस्य निंसते॥3॥
सोम नाम है परमेश्वर का सर्व -व्याप्त है वह परमेश्वर ।
परमेश्वर आनन्द - रूप है प्रेरित करने को है तत्पर ॥3॥
8420
सहस्त्रणीथः शतधारो अद्भुत इन्द्रायेन्दुः पवते काम्यं मधु ।
जयन्क्षेत्रमभ्यर्षा जयन्नप उरुं नो गातुं कृणु सोम मीढ्वः॥4॥
प्रभु अनन्त आनन्द- श्रोत है अद्भुत - वैभव का स्वामी है ।
आनन्द की झडी लगा देता है परमेश्वर अन्तर्यामी है ॥4॥
8421
कनिक्रदत्कलशे गोभिरज्यसे व्य1व्ययं समया वारमर्षसि ।
मर्मृज्यमानो अत्यो न सानसिरिन्द्रस्य सोम जठरे समक्षरः॥5॥
आत्म-ज्ञान परमात्म-प्राप्ति है वह अति निकट वही है दूर ।
वह सज्जन के अति समीप है और दुष्ट से है अति दूर ॥5॥
8422
स्वादुः पवस्व दिव्याय जन्मने स्वादुरिन्द्राय सुहवीतुनाम्ने ।
स्वादुर्मित्राय वरुणाय वायवे बृहस्पतये मधुमॉ अदाभ्यः ॥6॥
सभी दोष उनके मिट जाते जो प्रभु का करते हैं ध्यान ।
वह परमेश्वर सबके प्रिय हैं सब हैं उसके लिए समान ॥6॥
8423
अत्यं मृजन्ति कलशे दश क्षिपः प्र विप्राणां मतयो वाच ईरते ।
पवमाना अभ्यर्षन्ति सुष्टुतिमेन्द्रं विशन्ति मदिरास इन्दवः॥7॥
उज्ञोगी प्रभु को पाता है वह धीर - वीर बन जाता है ।
सद् - विद्या पथ पर जाकर वह ब्रह्म-ज्ञान को पाता है ॥7॥
8424
पवमानो अभ्यर्षा सुवीर्यमुर्वीं गव्यूतिं महि शर्म सप्रथः ।
माकिर्नो अस्य परिषूतिरीशतेन्दो जयेम त्वया धनंधनम्॥8॥
जो ईर्ष्या - द्वेष नहीं करते हैं वे ही यश - वैभव पाते हैं ।
निज विवेक से जो चलते हैं प्रभु उसको ही अपनाते हैं ॥8॥
8425
अधि द्यामस्थाद्वृषभो विचक्षणोSरूरुचद्वि दिवो रोचना कविः।
राजा पवित्रमत्येति रोरुवद्दिवः पीयूषं दुहते नृचक्षसः ॥9॥
वह आलोक - रूप परमात्मा अक्षय अमृत का है धाम ।
सुख-साधन वह ही देता है सद्-गति दे देता है नाम ॥9॥
8426
दिवो नाके मधुजिह्वा असश्चतो वेना दुहन्त्युक्षणं गिरिष्ठाम् ।
अप्सु द्रप्सं वावृधानं समुद्र आ सिन्धोरूर्मा मधुमन्तं पवित्र आ॥10॥
नित्य-मुक्ति के अभिलाषी-जन धरते हैं प्रभु का ही ध्यान ।
प्रभु उनके दोष मिटा देते हैं वह हैं आखिर सखा-समान॥10॥
8427
नाके सुपर्णमुपपप्तिवांसं गिरो वेनानामकृपन्त पूर्वीः ।
शिशुं रिहन्ति मतयः पनिप्नतं हिरण्ययं शकुनं क्षामणि स्थाम्॥11॥
सर्व-शक्ति से युक्त शकुन है सभी गुणों का वह निधान है ।
ऋषियों की वाणी के द्वारा मनुज हृदय में विद्यमान है ॥11॥
8428
ऊर्ध्वो गन्धर्वो अधि नाके अस्थाद्विश्वा रूपा प्रतिचक्षाणो अस्य ।
भानुः शुक्रेण शोचिषा व्यद्यौत्प्रारूरुचद्रोदसी मातरा शुचिः॥12॥
प्रभु प्रकाश से सभी प्रकाशित वह सर्वज्ञ समर्थ वही है ।
कण-कण में वह बसा हुआ है चर में अचर में कहॉ नहीं है ॥12॥
8417
इन्द्राय सोम सुषुतः परि स्त्रवाSपामीवा भवतु रक्षसा सह ।
मा ते रसस्य मत्सत द्वयाविनो द्रविणस्वन्त इह सन्त्विन्दवः॥1॥
सच पर हो विश्वास हमारा हम असत्य का त्याग करें ।
सत्यासत्य विवेक जरूरी निज-मन में यह भाव भरें॥1॥
8418
अस्मान्त्समर्ये पवमान चोदय दक्षो देवानामसि हि प्रियो मदः ।
जहि शत्रूँरभ्या भन्दनायतः पिबेन्द्र सोममव नो मृधो जहि ॥2॥
दुष्ट- दमन अति आवश्यक है हर मनुज जिए निर्भय होकर ।
अपने अभीष्ट का ध्यान धरे वह करे भरोसा परमेश्वर पर॥2॥
8419
अदब्ध इन्दो पवसे मदिन्तम आत्मेन्द्रस्य भवसि धासिरुत्तमः ।
अभि स्वरन्ति बहवो मनीषिणो राजानमस्य भुवनस्य निंसते॥3॥
सोम नाम है परमेश्वर का सर्व -व्याप्त है वह परमेश्वर ।
परमेश्वर आनन्द - रूप है प्रेरित करने को है तत्पर ॥3॥
8420
सहस्त्रणीथः शतधारो अद्भुत इन्द्रायेन्दुः पवते काम्यं मधु ।
जयन्क्षेत्रमभ्यर्षा जयन्नप उरुं नो गातुं कृणु सोम मीढ्वः॥4॥
प्रभु अनन्त आनन्द- श्रोत है अद्भुत - वैभव का स्वामी है ।
आनन्द की झडी लगा देता है परमेश्वर अन्तर्यामी है ॥4॥
8421
कनिक्रदत्कलशे गोभिरज्यसे व्य1व्ययं समया वारमर्षसि ।
मर्मृज्यमानो अत्यो न सानसिरिन्द्रस्य सोम जठरे समक्षरः॥5॥
आत्म-ज्ञान परमात्म-प्राप्ति है वह अति निकट वही है दूर ।
वह सज्जन के अति समीप है और दुष्ट से है अति दूर ॥5॥
8422
स्वादुः पवस्व दिव्याय जन्मने स्वादुरिन्द्राय सुहवीतुनाम्ने ।
स्वादुर्मित्राय वरुणाय वायवे बृहस्पतये मधुमॉ अदाभ्यः ॥6॥
सभी दोष उनके मिट जाते जो प्रभु का करते हैं ध्यान ।
वह परमेश्वर सबके प्रिय हैं सब हैं उसके लिए समान ॥6॥
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अत्यं मृजन्ति कलशे दश क्षिपः प्र विप्राणां मतयो वाच ईरते ।
पवमाना अभ्यर्षन्ति सुष्टुतिमेन्द्रं विशन्ति मदिरास इन्दवः॥7॥
उज्ञोगी प्रभु को पाता है वह धीर - वीर बन जाता है ।
सद् - विद्या पथ पर जाकर वह ब्रह्म-ज्ञान को पाता है ॥7॥
8424
पवमानो अभ्यर्षा सुवीर्यमुर्वीं गव्यूतिं महि शर्म सप्रथः ।
माकिर्नो अस्य परिषूतिरीशतेन्दो जयेम त्वया धनंधनम्॥8॥
जो ईर्ष्या - द्वेष नहीं करते हैं वे ही यश - वैभव पाते हैं ।
निज विवेक से जो चलते हैं प्रभु उसको ही अपनाते हैं ॥8॥
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अधि द्यामस्थाद्वृषभो विचक्षणोSरूरुचद्वि दिवो रोचना कविः।
राजा पवित्रमत्येति रोरुवद्दिवः पीयूषं दुहते नृचक्षसः ॥9॥
वह आलोक - रूप परमात्मा अक्षय अमृत का है धाम ।
सुख-साधन वह ही देता है सद्-गति दे देता है नाम ॥9॥
8426
दिवो नाके मधुजिह्वा असश्चतो वेना दुहन्त्युक्षणं गिरिष्ठाम् ।
अप्सु द्रप्सं वावृधानं समुद्र आ सिन्धोरूर्मा मधुमन्तं पवित्र आ॥10॥
नित्य-मुक्ति के अभिलाषी-जन धरते हैं प्रभु का ही ध्यान ।
प्रभु उनके दोष मिटा देते हैं वह हैं आखिर सखा-समान॥10॥
8427
नाके सुपर्णमुपपप्तिवांसं गिरो वेनानामकृपन्त पूर्वीः ।
शिशुं रिहन्ति मतयः पनिप्नतं हिरण्ययं शकुनं क्षामणि स्थाम्॥11॥
सर्व-शक्ति से युक्त शकुन है सभी गुणों का वह निधान है ।
ऋषियों की वाणी के द्वारा मनुज हृदय में विद्यमान है ॥11॥
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ऊर्ध्वो गन्धर्वो अधि नाके अस्थाद्विश्वा रूपा प्रतिचक्षाणो अस्य ।
भानुः शुक्रेण शोचिषा व्यद्यौत्प्रारूरुचद्रोदसी मातरा शुचिः॥12॥
प्रभु प्रकाश से सभी प्रकाशित वह सर्वज्ञ समर्थ वही है ।
कण-कण में वह बसा हुआ है चर में अचर में कहॉ नहीं है ॥12॥
प्रभु अनन्त आनन्द- श्रोत है अद्भुत - वैभव का स्वामी है ।
ReplyDeleteआनन्द की झडी लगा देता है परमेश्वर अन्तर्यामी है ॥4॥
....शाश्वत सत्य...असीम शान्ति मिलती है यहाँ आ कर...आभार