[ऋषि- प्रजापति वाच्य । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती ।]
8412
पवस्व देवमादनो विचर्षणिरप्सा इन्द्राय वरुणाय वायवे ।
कृधी नो अद्य वरिवः स्वस्तिमदुरुक्षितौ गृहीणि दैव्यं जनम्॥1॥
हे मनुज बनो तुम विज्ञानी आओ आविष्कार करें हम ।
सबकी दरिद्रता मिट जाए कर लो ऐसा कोई उपक्रम॥1॥
8413
आ यस्तस्थौ भुवनान्यमर्त्यो विश्वानि सोमः परि तान्यर्षति ।
कृण्वन्त्सञ्चृतं विचृतमभिष्टय इन्दुःसिषक्त्युषसं न सूर्यः॥2॥
विज्ञान-ज्ञान से आभा-मण्डल स्वयं तेज से भर उठता है ।
अन्वेषण अति आवश्यक है जगती का वैभव बढता है ॥2॥
8414
आ यो गोभिः सृज्यत ओषधीष्वा देवानां सुम्न इषयन्नुपावसुः ।
आ विद्युता पवते धारया सुत इन्द्रं सोमो मादयन्दैव्यं जनम्॥3॥
जो जग - हित में रहे समर्पित प्रभु उनकी रक्षा करते हैं ।
उनका यश बढता रहता है जो पर-हित में जीते मरते हैं ॥3॥
8415
एष स्य सोमः पवते सहस्त्रजिध्दिन्वानो वाचमिषिरामुषर्बुधम् ।
इन्दुः समुद्रमुदिर्यति वायुभिरेन्द्रस्य हार्दि कलशेषु सीदति॥4॥
अनन्त शक्ति-सम्पन्न वही है जग का स्वामी है परमेश्वर ।
जो उषा - काल में हमें जगाता कहता जागो बढो परस्पर ॥4॥
8416
अभि त्यं गावःपयसा पयोवृधं सोमं श्रीणन्ति मतिभिःस्वर्विदम ।
धनञ्जयः पवते कृत्व्यो रसो विप्रः कविः काव्येना स्वर्चना: ॥5॥
परमात्मा आनन्द - रूप है आनन्द - वेग सम्मुख बहता है ।
ज्ञान-योग का पथिक निरन्तर प्रभु की गोद में ही पलता है॥5॥
8412
पवस्व देवमादनो विचर्षणिरप्सा इन्द्राय वरुणाय वायवे ।
कृधी नो अद्य वरिवः स्वस्तिमदुरुक्षितौ गृहीणि दैव्यं जनम्॥1॥
हे मनुज बनो तुम विज्ञानी आओ आविष्कार करें हम ।
सबकी दरिद्रता मिट जाए कर लो ऐसा कोई उपक्रम॥1॥
8413
आ यस्तस्थौ भुवनान्यमर्त्यो विश्वानि सोमः परि तान्यर्षति ।
कृण्वन्त्सञ्चृतं विचृतमभिष्टय इन्दुःसिषक्त्युषसं न सूर्यः॥2॥
विज्ञान-ज्ञान से आभा-मण्डल स्वयं तेज से भर उठता है ।
अन्वेषण अति आवश्यक है जगती का वैभव बढता है ॥2॥
8414
आ यो गोभिः सृज्यत ओषधीष्वा देवानां सुम्न इषयन्नुपावसुः ।
आ विद्युता पवते धारया सुत इन्द्रं सोमो मादयन्दैव्यं जनम्॥3॥
जो जग - हित में रहे समर्पित प्रभु उनकी रक्षा करते हैं ।
उनका यश बढता रहता है जो पर-हित में जीते मरते हैं ॥3॥
8415
एष स्य सोमः पवते सहस्त्रजिध्दिन्वानो वाचमिषिरामुषर्बुधम् ।
इन्दुः समुद्रमुदिर्यति वायुभिरेन्द्रस्य हार्दि कलशेषु सीदति॥4॥
अनन्त शक्ति-सम्पन्न वही है जग का स्वामी है परमेश्वर ।
जो उषा - काल में हमें जगाता कहता जागो बढो परस्पर ॥4॥
8416
अभि त्यं गावःपयसा पयोवृधं सोमं श्रीणन्ति मतिभिःस्वर्विदम ।
धनञ्जयः पवते कृत्व्यो रसो विप्रः कविः काव्येना स्वर्चना: ॥5॥
परमात्मा आनन्द - रूप है आनन्द - वेग सम्मुख बहता है ।
ज्ञान-योग का पथिक निरन्तर प्रभु की गोद में ही पलता है॥5॥
खूबसूरत प्रस्तुति...
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