Sunday, 13 April 2014

सूक्त - 84

[ऋषि- प्रजापति वाच्य । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती ।]

8412
पवस्व  देवमादनो   विचर्षणिरप्सा  इन्द्राय   वरुणाय   वायवे ।
कृधी नो अद्य वरिवः स्वस्तिमदुरुक्षितौ गृहीणि दैव्यं जनम्॥1॥

हे  मनुज  बनो  तुम  विज्ञानी  आओ  आविष्कार  करें  हम ।
सबकी  दरिद्रता  मिट  जाए  कर  लो  ऐसा  कोई  उपक्रम॥1॥

8413
आ यस्तस्थौ भुवनान्यमर्त्यो विश्वानि सोमः परि  तान्यर्षति ।
कृण्वन्त्सञ्चृतं विचृतमभिष्टय इन्दुःसिषक्त्युषसं न सूर्यः॥2॥

विज्ञान-ज्ञान  से  आभा-मण्डल  स्वयं  तेज  से  भर  उठता  है ।
अन्वेषण अति आवश्यक  है  जगती  का  वैभव  बढता  है ॥2॥

8414
आ यो गोभिः सृज्यत ओषधीष्वा देवानां सुम्न इषयन्नुपावसुः ।
आ विद्युता पवते धारया सुत इन्द्रं सोमो मादयन्दैव्यं जनम्॥3॥

जो  जग - हित  में  रहे  समर्पित  प्रभु  उनकी  रक्षा  करते  हैं ।
उनका यश बढता रहता है जो पर-हित  में  जीते  मरते  हैं ॥3॥

8415
एष स्य सोमः पवते सहस्त्रजिध्दिन्वानो वाचमिषिरामुषर्बुधम् ।
इन्दुः समुद्रमुदिर्यति वायुभिरेन्द्रस्य हार्दि कलशेषु सीदति॥4॥

अनन्त  शक्ति-सम्पन्न  वही  है  जग  का  स्वामी है परमेश्वर ।
जो उषा - काल  में  हमें जगाता कहता जागो बढो परस्पर ॥4॥

8416
अभि त्यं गावःपयसा पयोवृधं सोमं श्रीणन्ति मतिभिःस्वर्विदम ।
धनञ्जयः पवते कृत्व्यो रसो विप्रः कविः काव्येना स्वर्चना: ॥5॥

परमात्मा  आनन्द - रूप  है  आनन्द - वेग  सम्मुख  बहता  है ।
ज्ञान-योग का पथिक निरन्तर प्रभु की गोद में  ही  पलता है॥5॥

1 comment:

  1. खूबसूरत प्रस्तुति...

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