[ऋषि- उशना काव्य । देवता- पवमान सोम । छन्द- त्रिष्टुप् ।]
8477
प्र तु द्रव परि कोशं नि षीद नृभिः पुनानो अभि वाजमर्ष ।
अश्वं न त्वा वाजिनं मर्जयन्तोSच्छा बहीं रशनाभिर्नयन्ति॥1॥
कर्म-योग पथ के साधक को हे प्रभु तुम आओ अपनाओ ।
आनन्द का वह आकॉक्षी है उसको परमानन्द दे जाओ॥1॥
8478
स्वायुधः पवते देव इन्दुरशस्तिहा वृजनं रक्षमाणः ।
पिता देवानां जनिता सुदक्षो विष्टम्भो दिवो धरुणः पृथिव्या:॥2॥
प्रभु सबकी रक्षा करता है वह ही तो है पिता हमारा ।
सर्व-शक्ति-सम्पन्न वही है एक-मात्र है वही सहारा ॥2॥
8479
ऋषिर्विप्रः पुरएता जनानामृभुर्धीर उशना काव्येन ।
स चिद्विवेद निहितं यदासामपीच्यं1 गुह्यं नाम गोनाम्॥3॥
सर्व-व्याप्त है वह परमात्मा सज्जन के मन में बसता है ।
वही धीर है वीर वही है मानव-मन में जो रहता है ॥3॥
8480
एष स्य ते मधुमॉ इन्द्र सोमो वृषा वृष्णे परि पवित्रे अक्षा: ।
सहस्त्रसा: शतसा भूरिदावा शश्वत्तमं बर्हिरा वाज्यस्थात्॥4॥
नभ में कई रहस्य छिपे हैं अन्वेषण अति आवश्यक है ।
यज्ञ शक्ति का महा-श्रोत है इसका प्रभाव अति व्यापक है॥4॥
8481
एते सोमा अभि गव्या सहस्त्रा महे वाजायामृताय श्रवांसि ।
पवित्रेभिःपवमाना असृग्रञ्छ्रवस्यवो न पृतनाजो अत्या:॥5॥
जो समर्थ हो पराक्रमी हो प्रभु की विचित्रता अपनाये ।
जो जिसकी पूजा करता हो वह वैसा ही बन जाए ॥5॥
8482
परि हि ष्मा पुरुहूतो जनानां विश्वासरद्भोजना पूयमानः ।
अथा भर श्येनभृत प्रयांसि रयिं तुञ्जानो अभि वाजमर्ष॥6॥
परमेश्वर आराध्य हमारे हम सबके भीतर वे रहते हैं ।
हे प्रभु हमें समर्थ बना दो तुमसे बस इतना कहते हैं ॥6॥
8483
एष सुवानः परि सोमः पवित्रे सर्गो न सृष्टो अदधावदर्वा ।
तिग्मे शिशानो महिषो न शृङ्गे गा गव्यन्नभि शूरो न सत्वा॥7॥
जिसका मन पावन होता है परमात्मा बस जाता है ।
भक्तों को ज्ञान- दृष्टि देता है सद्-गति मन्त्र सिखाता है॥7॥
8484
एषा ययौ परमादन्तरद्रेः कूचित्सतीरूर्वे गा विवेद ।
दिवो न विद्युत्स्तनयन्त्यभ्रैः सोमस्य ते पवत इन्द्र धारा॥8॥
कर्म-योग का पथिक सदा ही पाता है प्रभु का सान्निध्य ।
भगवान भक्त अद्वैत हुए जब भी मिलता प्रभु का सामीप्य॥8॥
8485
उत स्म राशिं परि यासि गोनामिन्द्रेण सोम सरथं पुनानः ।
पूर्वीरिषो बृहतीर्जीरदानो शिक्षा शचीवस्तव ता उपष्टुत् ॥9॥
कर्म-योग का पथ-पुनीत है प्रभु सख्य-भाव अपनाते हैं ।
अति आत्मीय मित्रता है यह जब भी पुकारो आ जाते हैं॥9॥
8477
प्र तु द्रव परि कोशं नि षीद नृभिः पुनानो अभि वाजमर्ष ।
अश्वं न त्वा वाजिनं मर्जयन्तोSच्छा बहीं रशनाभिर्नयन्ति॥1॥
कर्म-योग पथ के साधक को हे प्रभु तुम आओ अपनाओ ।
आनन्द का वह आकॉक्षी है उसको परमानन्द दे जाओ॥1॥
8478
स्वायुधः पवते देव इन्दुरशस्तिहा वृजनं रक्षमाणः ।
पिता देवानां जनिता सुदक्षो विष्टम्भो दिवो धरुणः पृथिव्या:॥2॥
प्रभु सबकी रक्षा करता है वह ही तो है पिता हमारा ।
सर्व-शक्ति-सम्पन्न वही है एक-मात्र है वही सहारा ॥2॥
8479
ऋषिर्विप्रः पुरएता जनानामृभुर्धीर उशना काव्येन ।
स चिद्विवेद निहितं यदासामपीच्यं1 गुह्यं नाम गोनाम्॥3॥
सर्व-व्याप्त है वह परमात्मा सज्जन के मन में बसता है ।
वही धीर है वीर वही है मानव-मन में जो रहता है ॥3॥
8480
एष स्य ते मधुमॉ इन्द्र सोमो वृषा वृष्णे परि पवित्रे अक्षा: ।
सहस्त्रसा: शतसा भूरिदावा शश्वत्तमं बर्हिरा वाज्यस्थात्॥4॥
नभ में कई रहस्य छिपे हैं अन्वेषण अति आवश्यक है ।
यज्ञ शक्ति का महा-श्रोत है इसका प्रभाव अति व्यापक है॥4॥
8481
एते सोमा अभि गव्या सहस्त्रा महे वाजायामृताय श्रवांसि ।
पवित्रेभिःपवमाना असृग्रञ्छ्रवस्यवो न पृतनाजो अत्या:॥5॥
जो समर्थ हो पराक्रमी हो प्रभु की विचित्रता अपनाये ।
जो जिसकी पूजा करता हो वह वैसा ही बन जाए ॥5॥
8482
परि हि ष्मा पुरुहूतो जनानां विश्वासरद्भोजना पूयमानः ।
अथा भर श्येनभृत प्रयांसि रयिं तुञ्जानो अभि वाजमर्ष॥6॥
परमेश्वर आराध्य हमारे हम सबके भीतर वे रहते हैं ।
हे प्रभु हमें समर्थ बना दो तुमसे बस इतना कहते हैं ॥6॥
8483
एष सुवानः परि सोमः पवित्रे सर्गो न सृष्टो अदधावदर्वा ।
तिग्मे शिशानो महिषो न शृङ्गे गा गव्यन्नभि शूरो न सत्वा॥7॥
जिसका मन पावन होता है परमात्मा बस जाता है ।
भक्तों को ज्ञान- दृष्टि देता है सद्-गति मन्त्र सिखाता है॥7॥
8484
एषा ययौ परमादन्तरद्रेः कूचित्सतीरूर्वे गा विवेद ।
दिवो न विद्युत्स्तनयन्त्यभ्रैः सोमस्य ते पवत इन्द्र धारा॥8॥
कर्म-योग का पथिक सदा ही पाता है प्रभु का सान्निध्य ।
भगवान भक्त अद्वैत हुए जब भी मिलता प्रभु का सामीप्य॥8॥
8485
उत स्म राशिं परि यासि गोनामिन्द्रेण सोम सरथं पुनानः ।
पूर्वीरिषो बृहतीर्जीरदानो शिक्षा शचीवस्तव ता उपष्टुत् ॥9॥
कर्म-योग का पथ-पुनीत है प्रभु सख्य-भाव अपनाते हैं ।
अति आत्मीय मित्रता है यह जब भी पुकारो आ जाते हैं॥9॥
जीवन में कर्म की प्रधानता है...
ReplyDeleteकर्म योग की महत्ता का बहुत सटीक आंकलन...बहुत प्रभावी प्रस्तुति...आभार
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