Friday, 18 April 2014

सूक्त - 79

[ऋषि- कवि भार्गव । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती ।]

8387
अचोदसो नो धन्वन्त्विन्दवः प्र  सुवानासो  बृहद्दिवेषु  हरयः ।
विं च नशन्न इषो अरातयोSर्यो नशन्त सनिषन्त नो धियः॥1॥

जो  प्रभु - प्रेरित  हो - कर  अपना  दायित्व  निभाते  रहते  हैं ।
प्रभु ही उनको सद् - गति देते हैं वह ही उनकी रक्षा करते हैं॥1॥

8388
प्र णो धन्वन्त्विन्दवो मदच्युतो  धना  वा  येभिरर्वतो  जुनीमसि।
तिरो मर्तस्य कस्य चित्परिह्वृतिं वयं धनानि विश्वधा भरेमहि॥2॥

सहज - सरल - सन्मार्ग  से  मिले  ऐसा  ही  धन  मुझे  चाहिए ।
अनीति- राह से मुझे बचाना मुझको तेरा सान्निध्य चाहिए॥2॥ 

8389
उत स्वस्या अरात्या अरिर्हि ष उतान्यस्या अरात्या वृको  हि षः।
धनवन्न तृष्णा समरीत तॉ अभि सोम जहि पवमान दुराध्यः॥3॥

परमेश्वर  पावन -  मन  देना  खट्  -  रागों  से  मुझे  बचाना ।
सत्पथ पर मुझको चलना है मञ्जिल तक मुझको पहुँचाना॥3॥

8390
दिवि ते नाभा परमो य आददे पृथिव्यास्ते रुरुहुः सानवि क्षिपः।
अद्रयस्त्वा बप्सति गोरधि त्वच्य1प्सु त्वा हस्तैर्दुदुहुर्मनीषिणः॥4॥

ज्ञान - योग और कर्म - योग के राज - मार्ग  पर  जो चलते हैं ।
वे  ही  प्रभु  से  वैभव  पाते  वह  ही  प्रभु - दर्शन  करते  हैं ॥4॥

8391
एवा  त  इन्दो  सुभ्वं  सुपेशसं रसं  तुञ्जन्ति  प्रथमा अभिश्रियः ।
निदंनिदं पवमान नि तारिष आविस्ते शुष्मो भवतु प्रियो मदः॥5॥

हे  प्रभु - वर आनन्द - प्रदाता  तुम  ही  देते  हो  सुख - आनन्द ।
तुम  ही  तो  सब  के प्रेरक हो सुधि ले लेना आनन्द - कन्द ॥5॥    

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