[ऋषि- कवि भार्गव । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती ।]
8387
अचोदसो नो धन्वन्त्विन्दवः प्र सुवानासो बृहद्दिवेषु हरयः ।
विं च नशन्न इषो अरातयोSर्यो नशन्त सनिषन्त नो धियः॥1॥
जो प्रभु - प्रेरित हो - कर अपना दायित्व निभाते रहते हैं ।
प्रभु ही उनको सद् - गति देते हैं वह ही उनकी रक्षा करते हैं॥1॥
8388
प्र णो धन्वन्त्विन्दवो मदच्युतो धना वा येभिरर्वतो जुनीमसि।
तिरो मर्तस्य कस्य चित्परिह्वृतिं वयं धनानि विश्वधा भरेमहि॥2॥
सहज - सरल - सन्मार्ग से मिले ऐसा ही धन मुझे चाहिए ।
अनीति- राह से मुझे बचाना मुझको तेरा सान्निध्य चाहिए॥2॥
8389
उत स्वस्या अरात्या अरिर्हि ष उतान्यस्या अरात्या वृको हि षः।
धनवन्न तृष्णा समरीत तॉ अभि सोम जहि पवमान दुराध्यः॥3॥
परमेश्वर पावन - मन देना खट् - रागों से मुझे बचाना ।
सत्पथ पर मुझको चलना है मञ्जिल तक मुझको पहुँचाना॥3॥
8390
दिवि ते नाभा परमो य आददे पृथिव्यास्ते रुरुहुः सानवि क्षिपः।
अद्रयस्त्वा बप्सति गोरधि त्वच्य1प्सु त्वा हस्तैर्दुदुहुर्मनीषिणः॥4॥
ज्ञान - योग और कर्म - योग के राज - मार्ग पर जो चलते हैं ।
वे ही प्रभु से वैभव पाते वह ही प्रभु - दर्शन करते हैं ॥4॥
8391
एवा त इन्दो सुभ्वं सुपेशसं रसं तुञ्जन्ति प्रथमा अभिश्रियः ।
निदंनिदं पवमान नि तारिष आविस्ते शुष्मो भवतु प्रियो मदः॥5॥
हे प्रभु - वर आनन्द - प्रदाता तुम ही देते हो सुख - आनन्द ।
तुम ही तो सब के प्रेरक हो सुधि ले लेना आनन्द - कन्द ॥5॥
8387
अचोदसो नो धन्वन्त्विन्दवः प्र सुवानासो बृहद्दिवेषु हरयः ।
विं च नशन्न इषो अरातयोSर्यो नशन्त सनिषन्त नो धियः॥1॥
जो प्रभु - प्रेरित हो - कर अपना दायित्व निभाते रहते हैं ।
प्रभु ही उनको सद् - गति देते हैं वह ही उनकी रक्षा करते हैं॥1॥
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प्र णो धन्वन्त्विन्दवो मदच्युतो धना वा येभिरर्वतो जुनीमसि।
तिरो मर्तस्य कस्य चित्परिह्वृतिं वयं धनानि विश्वधा भरेमहि॥2॥
सहज - सरल - सन्मार्ग से मिले ऐसा ही धन मुझे चाहिए ।
अनीति- राह से मुझे बचाना मुझको तेरा सान्निध्य चाहिए॥2॥
8389
उत स्वस्या अरात्या अरिर्हि ष उतान्यस्या अरात्या वृको हि षः।
धनवन्न तृष्णा समरीत तॉ अभि सोम जहि पवमान दुराध्यः॥3॥
परमेश्वर पावन - मन देना खट् - रागों से मुझे बचाना ।
सत्पथ पर मुझको चलना है मञ्जिल तक मुझको पहुँचाना॥3॥
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दिवि ते नाभा परमो य आददे पृथिव्यास्ते रुरुहुः सानवि क्षिपः।
अद्रयस्त्वा बप्सति गोरधि त्वच्य1प्सु त्वा हस्तैर्दुदुहुर्मनीषिणः॥4॥
ज्ञान - योग और कर्म - योग के राज - मार्ग पर जो चलते हैं ।
वे ही प्रभु से वैभव पाते वह ही प्रभु - दर्शन करते हैं ॥4॥
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एवा त इन्दो सुभ्वं सुपेशसं रसं तुञ्जन्ति प्रथमा अभिश्रियः ।
निदंनिदं पवमान नि तारिष आविस्ते शुष्मो भवतु प्रियो मदः॥5॥
हे प्रभु - वर आनन्द - प्रदाता तुम ही देते हो सुख - आनन्द ।
तुम ही तो सब के प्रेरक हो सुधि ले लेना आनन्द - कन्द ॥5॥
atiutam-****
ReplyDeleteखूबसूरत प्रस्तुति...
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