[ऋषि- नोधा गौतम । देवता- पवमान सोम । छन्द- त्रिष्टुप् ।]
8519
साकमुक्षो मर्जयन्त स्वसारो दश धीरस्य धीतयो धनुत्रीः ।
हरिः पर्यद्रवज्जा: सूर्यस्य द्रोणं ननक्षे अत्यो न वाजी ॥1॥
योगी मन- निग्रह करता है वह करता है प्रभु का ध्यान ।
कर्म-योग पथ पर आखिर में दर्शन देते हैं भगवान॥1॥
8520
सं मातृभिर्न शिशुर्वावशानो वृषा दधन्वे पुरुवारो अद्भिः ।
मर्यो न योषामभि निष्कृतं यन्त्सं गच्छते कलश उस्त्रियाभिः॥2॥
कर्म - योग वरणीय - पन्थ है सत्कर्मों का है अभियान ।
उद्योगी ही विभूति पाता है चिन्तनीय है यह व्याख्यान॥2॥
8521
उत प्र पिप्य ऊधरघ्न्याया इन्दुर्धाराभिः सचते सुमेधा: ।
मूर्धानं गावः पयसा चमूष्वभि श्रीणन्ति वसुभिर्न निक्तैः॥3॥
प्रकाश-रूप वह परमात्मा ही अनन्त-शक्तियों का स्वामी है ।
सत्पथ पर चलने वाला ही प्रभु का सच्चा अनुगामी है ॥3॥
8522
स नो देवेभिः पवमान रदेन्दो रयिमश्विनं वावशानः ।
रथिरायतामुशती पुरन्धिरस्मद्रय1गा दावने वसूनाम्॥4॥
ज्ञान - कर्म दोनों ही अद्भुत परमात्मा तक पहुँचाते हैं ।
प्रभु ही यश - वैभव देते हैं सबको प्रेम से समझाते हैं॥4॥
8523
नू नो रयिमुप मास्व नृवन्तं पुनानो वाताप्यं विश्वश्चन्द्रम् ।
प्र वन्दितोरिन्दो तार्यायुः प्रातर्मक्षू धियावसुर्जगम्यात्॥5॥
प्रेम - रूप है वह परमेश्वर प्रेम - पन्थ पर पहुँचाता है ।
मुझको बहुत-बहुत भाता है क्या जानूँ उससे क्या नाता है॥5॥
8519
साकमुक्षो मर्जयन्त स्वसारो दश धीरस्य धीतयो धनुत्रीः ।
हरिः पर्यद्रवज्जा: सूर्यस्य द्रोणं ननक्षे अत्यो न वाजी ॥1॥
योगी मन- निग्रह करता है वह करता है प्रभु का ध्यान ।
कर्म-योग पथ पर आखिर में दर्शन देते हैं भगवान॥1॥
8520
सं मातृभिर्न शिशुर्वावशानो वृषा दधन्वे पुरुवारो अद्भिः ।
मर्यो न योषामभि निष्कृतं यन्त्सं गच्छते कलश उस्त्रियाभिः॥2॥
कर्म - योग वरणीय - पन्थ है सत्कर्मों का है अभियान ।
उद्योगी ही विभूति पाता है चिन्तनीय है यह व्याख्यान॥2॥
8521
उत प्र पिप्य ऊधरघ्न्याया इन्दुर्धाराभिः सचते सुमेधा: ।
मूर्धानं गावः पयसा चमूष्वभि श्रीणन्ति वसुभिर्न निक्तैः॥3॥
प्रकाश-रूप वह परमात्मा ही अनन्त-शक्तियों का स्वामी है ।
सत्पथ पर चलने वाला ही प्रभु का सच्चा अनुगामी है ॥3॥
8522
स नो देवेभिः पवमान रदेन्दो रयिमश्विनं वावशानः ।
रथिरायतामुशती पुरन्धिरस्मद्रय1गा दावने वसूनाम्॥4॥
ज्ञान - कर्म दोनों ही अद्भुत परमात्मा तक पहुँचाते हैं ।
प्रभु ही यश - वैभव देते हैं सबको प्रेम से समझाते हैं॥4॥
8523
नू नो रयिमुप मास्व नृवन्तं पुनानो वाताप्यं विश्वश्चन्द्रम् ।
प्र वन्दितोरिन्दो तार्यायुः प्रातर्मक्षू धियावसुर्जगम्यात्॥5॥
प्रेम - रूप है वह परमेश्वर प्रेम - पन्थ पर पहुँचाता है ।
मुझको बहुत-बहुत भाता है क्या जानूँ उससे क्या नाता है॥5॥
समाज को सुन्दर और व्यवस्थित बनाती शब्द संरचना।
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