[ऋषि- उशना काव्य देवता- पवमान सोम । छन्द- त्रिष्टुप् ।]
8486
अयं सोम इन्द्र तुभ्यं सुन्वे तुभ्यं पवते त्वमस्य पाहि ।
त्वं ह यं चकृषे त्वं ववृष इन्दुं मदाय युज्याय सोमम्॥1॥
परमेश्वर मन पावन करते मति में देते हैं शुभ-विचार ।
जो प्रभु की पूजा करते हैं सुख-सागर में करते विहार॥1॥
8487
स ईं रथो न भुरिशाळयोजि महः पुरूणि सातये वसूनि ।
आदीं विश्वा नहुष्याणि जाता स्वर्षाता वन ऊर्ध्वा नवन्त॥2॥
सोमदेव ही गति देते हैं वे ही देते हैं धन - धान ।
दुष्ट- दलन वे ही करते हैं वे ही हैं आनन्द- निधान ॥2॥
8488
वायुर्न यो नियुत्वॉ इष्टयामा नासत्येव हव आ शम्भविष्ठः ।
विश्ववारो द्रविणोदाइव त्मन्पूषेव धीजवनोSसि सोम ॥3॥
सोम - देव तुम ही वरेण्य हो पवन - वेग से चलते हो ।
सुख - सन्तति तुम ही देते हो सबका पोषण करते हो ॥3॥
8489
इन्द्रो न यो महा कर्माणि चक्रिर्हन्ता वृत्राणामसि सोम पूर्भित्।
पैद्वो न हि त्वमहिनाम्नां हन्ता विश्वस्यासि सोम दस्योः॥4॥
अज्ञान-तमस को तुम्हीं मिटाते साधक को प्रेरित करते हो ।
हम सबको सुख-साधन देते रिपु-बल से रक्षा करते हो ॥4॥
8490
अग्निर्न यो वन आ सृज्यमानो वृथा पाजांसि कृणुते नदीषु ।
जनो न युध्वा महत उपब्दिरियर्ति सोमःपवमान ऊर्मिम्॥5॥
जल में थल में और गगन में सोम - देव रक्षा करते हैं ।
आनन्द - अमृत वे देते हैं वे सबकी विपदा हरते हैं ॥5॥
8491
एते सोमा अति वाराण्यव्या दिव्या न कोशासो अभ्रवर्षा: ।
वृथा समुद्रं सिन्धवो न नीचीःसुतासो अभि कलशॉ असृग्रन्॥6॥
जिस साधक का मन पावन है वह ही पाता है आनन्द ।
चिन्तन-मनन-निदिध्यासन से पा सकता है परमानन्द॥6॥
8492
शुष्मी शर्धो न मारुतं पवस्वानSभिशस्ता दिव्या यथा विट् ।
आपो न मक्षू सुमतिर्भवा नःसहस्त्राप्सा:पृतनाषाण्न यज्ञः॥7॥
परमात्मा सबको सुख देते सबका रखते हैं वे ध्यान ।
अनन्त बलों का वह मालिक है वह परमेश्वर कृपानिधान॥7॥
8493
राज्ञो नु ते वरुणस्य व्रतानि बृहद्गभीरं तव सोम धाम ।
शुचिष्ट्वमसि प्रियो न मित्रो दक्षाय्यो अर्यमेवासि सोम॥8॥
वह परमेश्वर नित्य शुध्द है सख्य-भाव से अपनाता है ।
नेम-नियम वह ही समझाता प्रेम-पन्थ पर पहुँचाता है॥8॥
8486
अयं सोम इन्द्र तुभ्यं सुन्वे तुभ्यं पवते त्वमस्य पाहि ।
त्वं ह यं चकृषे त्वं ववृष इन्दुं मदाय युज्याय सोमम्॥1॥
परमेश्वर मन पावन करते मति में देते हैं शुभ-विचार ।
जो प्रभु की पूजा करते हैं सुख-सागर में करते विहार॥1॥
8487
स ईं रथो न भुरिशाळयोजि महः पुरूणि सातये वसूनि ।
आदीं विश्वा नहुष्याणि जाता स्वर्षाता वन ऊर्ध्वा नवन्त॥2॥
सोमदेव ही गति देते हैं वे ही देते हैं धन - धान ।
दुष्ट- दलन वे ही करते हैं वे ही हैं आनन्द- निधान ॥2॥
8488
वायुर्न यो नियुत्वॉ इष्टयामा नासत्येव हव आ शम्भविष्ठः ।
विश्ववारो द्रविणोदाइव त्मन्पूषेव धीजवनोSसि सोम ॥3॥
सोम - देव तुम ही वरेण्य हो पवन - वेग से चलते हो ।
सुख - सन्तति तुम ही देते हो सबका पोषण करते हो ॥3॥
8489
इन्द्रो न यो महा कर्माणि चक्रिर्हन्ता वृत्राणामसि सोम पूर्भित्।
पैद्वो न हि त्वमहिनाम्नां हन्ता विश्वस्यासि सोम दस्योः॥4॥
अज्ञान-तमस को तुम्हीं मिटाते साधक को प्रेरित करते हो ।
हम सबको सुख-साधन देते रिपु-बल से रक्षा करते हो ॥4॥
8490
अग्निर्न यो वन आ सृज्यमानो वृथा पाजांसि कृणुते नदीषु ।
जनो न युध्वा महत उपब्दिरियर्ति सोमःपवमान ऊर्मिम्॥5॥
जल में थल में और गगन में सोम - देव रक्षा करते हैं ।
आनन्द - अमृत वे देते हैं वे सबकी विपदा हरते हैं ॥5॥
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एते सोमा अति वाराण्यव्या दिव्या न कोशासो अभ्रवर्षा: ।
वृथा समुद्रं सिन्धवो न नीचीःसुतासो अभि कलशॉ असृग्रन्॥6॥
जिस साधक का मन पावन है वह ही पाता है आनन्द ।
चिन्तन-मनन-निदिध्यासन से पा सकता है परमानन्द॥6॥
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शुष्मी शर्धो न मारुतं पवस्वानSभिशस्ता दिव्या यथा विट् ।
आपो न मक्षू सुमतिर्भवा नःसहस्त्राप्सा:पृतनाषाण्न यज्ञः॥7॥
परमात्मा सबको सुख देते सबका रखते हैं वे ध्यान ।
अनन्त बलों का वह मालिक है वह परमेश्वर कृपानिधान॥7॥
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राज्ञो नु ते वरुणस्य व्रतानि बृहद्गभीरं तव सोम धाम ।
शुचिष्ट्वमसि प्रियो न मित्रो दक्षाय्यो अर्यमेवासि सोम॥8॥
वह परमेश्वर नित्य शुध्द है सख्य-भाव से अपनाता है ।
नेम-नियम वह ही समझाता प्रेम-पन्थ पर पहुँचाता है॥8॥
वह परमेश्वर नित्य शुध्द है सख्य-भाव से अपनाता है ।
ReplyDeleteनेम-नियम वह ही समझाता प्रेम-पन्थ पर पहुँचाता है॥8॥
वह पल पल की खबर रखता है
सुन्दर काव्यानुवाद।
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